Hastakshep.com-आपकी नज़र-International Day of the World's Indigenous Peoples-international-day-of-the-worlds-indigenous-peoples-Tribals problem-tribals-problem-आदिवासियों की समस्या-aadivaasiyon-kii-smsyaa-भूमंडलीकरण-bhuumnddliikrnn-विश्व आदिवासी दिवस-vishv-aadivaasii-divs

Only by diversity, the tribals of India can become rich and modern!

आज विश्व आदिवासी दिवस (International Day of the World's Indigenous Peoples) है. इस अवसर का इस्तेमाल आदिवासियों को अधिकार चेतना से समृद्ध और आधुनिक जीवन शैली की ओर उन्मुख करने में होना चाहिए.

जहाँ तक भारत का सवाल है, इस दिशा में नहीं के बराबर काम हुआ. इसलिए आदिवासियों की समस्या (Tribals problem) लगभग पूर्ववत है. ऐसा होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि भारत में मूलनिवासी आदिवासियों  की बात करनेवालों में रिगो बेर्ता मेंचू (Rigoberta Menchú Tum is a K'iche' Indigenous feminist and human rights activist from Guatemala.) जैसा जिगरवाला कोई व्यक्ति पैदा ही नहीं हुआ.

Rigoberta menchu biography summary

गवाटेमाला के एक ट्राइब कबीले में जन्मीं रिगो बेर्ता ने 1992 में अमेरिका के उस ऐतिहासिक जश्न के रंग में भंग डाल पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था जो कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज किये जाने के 500 वीं सालगिरह पर आयोजित किया गया था.

मेंचू ने यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि अमेरिका के अमेरिकी (गोरे) अमेरिका के मूलनिवासी नहीं हैं.

उक्त अवसर पर नोबेल विजेता रिगो बेर्ता ने हुंकार भरते हुए कहा था जो जहाँ का मूलनिवासी है उसका वहां के संसाधनों पर पहला हक़ है. इस हिसाब से भारत में संसाधनों पर पहला हक आदिवासियों का मुद्दा खड़ा हो जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा मुद्दा खड़ा इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि भारत में ऐसा कहने और करने वाला कोई संगठन/ व्यक्ति सामने नहीं आया, जो रीगो बेर्ता मेन्चु की मानसिकता से पुष्ट हो! यहां जो आदिवासी या गैर - आदिवासी इनके हित में काम करने के लिए सामने आये, वे उनकी सभ्यता सांस्कृति को संरक्षण प्रदान करने व जल - जंगल में अधिकार दिलाने तक अपनी गतिविधियों को सीमित रखे.

आदिवासियों को भी संपदा - संसाधनों में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए :

इनमें से भी सप्लायर,

डीलर, ठेकेदार, फिल्मकार, पत्रकार इत्यादि पर्याप्त मात्रा में सामने आना चाहिए, यह बात उनके लिए काम करने वाले शर्माओं - रायों के जेहन में कभी उभरी नहीं क्योंकि मेन्चु इनको स्पर्श नहीं कर पायीं.

आज़ाद भारत में आदिवासियों में आधुनिक जीवन शैली का अभ्यस्त होने की आकांक्षा पैदा करने एवं सप्लायर, डीलर, ठेकेदार इत्यादि बनाने का पहली बार विचार चंद्रभान प्रसाद और उनके साथियों के जेहन में उभरा और उनके बदलाव का सही नक्शा 13 जनवरी, 2002 को चंद्रभान प्रसाद द्वारा लिखित भोपाल घोषणा पत्र में सामने आया, जिसमें उन्हें सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी इत्यादि में कैसे हिस्सेदार बनाया जाय, इसका स्पष्ट नक्शा सामने लाया गया था.

बाद में जब भोपाल घोषणा पत्र के डाइवर्सिटी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए 2007 में बहुजन डाइवर्सिटी मिशन संगठन वजूद में आया, जल - जंगल पर निर्भर परंपरागत आदिवासियों को आधुनिक आर्थिक क्षमता संपन्न बनाने की दिशा में अभूतपूर्ण काम हुआ.

आप जानते हैं कि शक्ति के स्रोतों का सवर्णो, ओबीसी, अल्पसंख्यकों और दलित आदिवासियों के संख्यानुपात बंटवारे के मुद्दे पर कार्यरत बहुजन डाइवर्सिटी मिशन मुख्यतः साहित्य पर निर्भर रहकर अपनी गतिविधियों को आगे बढ़ा रहा है. इस क्रम में इसकी सहयोगी प्रकाशन संस्था दुसाध प्रकाशन की ओर से डाइवर्सिटी केंद्रित 90 से अधिक किताबें प्रकाशित की जा चुकी हैं. इतने अल्प अंतराल में इतनी किताबें किसी भी संगठन की ओर से शायद ही प्रकाशित हुई होंगी. इन सभी किताबों में ही दलित, पिछड़ों के साथ आदिवासियों को भी शक्ति के स्रोतों में समान रूप से भागीदार बनाने का मुद्दा उठाया गया है. इसके फलस्वरूप ही 14 जुलाई, 2020 को झारखंड में 25 करोड़ के ठेको में आदिवासियों को प्राथमिकता दिये जाने की घोषणा हुई. ऐसा पूरे देश में हो सकता है, यदि समतामूलक भारत निर्माण के लिए कार्यरत मार्क्सवादी, गांधीवादी, लोहिया और आम्बेडकरवादी संगठन भूमंडलीकरण के दौर में प्रभावहीन हो चुके पुराने विचारों में समयानुकूल संशोधन कर डाइवर्सिटी के साथ जुड़ जाएं. क्योंकि डाइवर्सिटी में ही है आदिवासियों को आधुनिक और आर्थिक रूप से समर्थ समुदाय में तब्दील करने की क्षमता!

एच एल दुसाध

लेखक एच एल दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इन्होंने आर्थिक और सामाजिक विषमताओं से जुड़ी गंभीर समस्याओं को संबोधित ‘ज्वलंत समस्याएं श्रृंखला’ की पुस्तकों का संपादन, लेखन और प्रकाशन किया है। सेज, आरक्षण पर संघर्ष, मुद्दाविहीन चुनाव, महिला सशक्तिकरण, मुस्लिम समुदाय की बदहाली, जाति जनगणना, नक्सलवाद, ब्राह्मणवाद, जाति उन्मूलन, दलित उत्पीड़न जैसे विषयों पर डेढ़ दर्जन किताबें प्रकाशित हुई हैं।

Loading...