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यह आलेख कीर्ति पत्रिका में 'नए नेताओं के अलग-अलग विचार' शीर्षक से जुलाई 1928 में छपा था। भगत सिंह का यह लेख कई भ्रांतियों को दूर करता है।

Thoughts of Bhagat Singh regarding Pandit Nehru, Subhash Chandra Bose Sadhu Vaswani

{शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह (1907-1931), जब केवल तेईस साल के थे, तब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फाँसी दे दी थी। वे समाजवादी और क्रांतिकारी विचारों के थे। भगत सिंह आधुनिक भारतीय इतिहास के स्तम्भों में हैं और भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के महान नायकों में हैं। वे आश्चर्यजनक रूप से काफी कम उम्र में ही राजनीतिक विचारों की दृष्टि से बहुत परिपक्व थे और उन्हें एक गंभीर राजनीतिक चिंतक भी माना जाता है। यद्यपि आमजन की याददाश्त में वे एक ऐसे युवा के रूप में ही हैं जो हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गए। उनकी प्रखर मेधा अक्सर विस्मृत हो जाती है।

भगत सिंह को लेकर भ्रांतियां क्या हैं ?

लोगों के जहन में बहुत-सी ऐतिहासिक भ्रांतियां हैं। उनमें से एक भ्रांति यह है कि भगत सिंह और सुभाषचन्द्र बोस एक समान विचारों वाले 'कर्मवीर' क्रान्तिकारी थे और जवाहरलाल नेहरू इनसे उलट थे। यह आलेख कीर्ति पत्रिका में 'नए नेताओं के अलग-अलग विचार' शीर्षक से जुलाई 1928 में छपा था। भगत सिंह का यह लेख इस भ्रांति को दूर करता है। शहीदे आजम भगतसिंह की जयंती के अवसर पर राष्ट्रीय सेक्युलर मंच द्वारा भोपाल में

style="font-family: 'Mangal',serif;">आयोजित कार्यक्रम के दौरान भगत सिंह का यह लेख जारी किया गया।}

असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद जनता में बहुत निराशा और मायूसी फैली। हिन्दू-मुस्लिम के झगड़ों ने बचा-खुचा साहस भी खत्म कर डाला। लेकिन देश में जब एक बार जागृति फैल जाए तब देश ज्यादा दिन तक सोया नहीं रह सकता। कुछ ही दिनों बाद जनता बहुत जोश के साथ उठती तथा हमला बोलती है। आज हिन्दुस्तान में फिर जान आ गई है। हिन्दुस्तान फिर जाग रहा है। देखने में तो कोई बड़ा जन-आन्दोलन नजर नहीं आता लेकिन नींव जरूर मजबूत की जा रही है। आधुनिक विचारों के अनेक नए नेता सामने आ रहे हैं। इस बार नौजवान नेता ही आगे बढ़े और देश में नौजवानों के ही आंदोलन चल रहे हैं। नौजवान नेता ही देशभक्त लोगों की नजरों में आ रहे हैं। बड़े-बड़े नेता बड़े होने के बावजूद एक तरह से पीछे छोड़े जा रहे हैं। इस समय जो  नेता आगे आए हैं वे हैं - बंगाल के पूजनीय श्री सुभाषचन्द्र बोस और माननीय पंडित जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिन्दुस्तान में उभरते नजर आ रहे हैं और युवाओं के आन्दोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिन्दुस्तान की आजादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल ह्दय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगान्तकारी। हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अंतर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके। लेकिन उन दोनों के विचारों का उल्लेख करने के पूर्व एक और व्यक्ति का उल्लेख करना भी जरूरी है जो कि इन्हीं की भाँति स्वतंत्रता प्रेमी हैं और युवा-आन्दोलनों की एक विशेष शख्सियत हैं। साधु वासवानी जी चाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं की भाँति जाने-माने तो नहीं, चाहे देश के राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष स्थान तो नहीं, तो भी युवाओं पर, जिन्हें कि कल देश की बागडोर सँभालनी है, उनका असर है और उनके ही द्वारा शुरू हुआ आन्दोलन 'भारत युवा संघ' इस समय युवाओं में विशेष प्रभाव रखता है। उनके विचार बिलकुल अलग ढंग के हैं। उनके विचार एक ही शब्द में बताए जा सकते हैं -  "वापस वेदों की ओर लौट चलो" (बैक टू वेद्स)। यह आवाज सबसे पहले आर्य समाज ने उठाई थी। इस विचार का आधार इस आस्था में है कि वेदों में परमात्मा ने संसार का सारा ज्ञान उँडेल दिया है। इससे आगे और अधिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए हमारे हिन्दुस्तान ने चौतरफा जो प्रगति कर ली थी उससे आगे न दुनिया बढ़ी है और न बढ़ सकती है। खैर, वासवानी आदि इसी आस्था को मानते हैं। तभी एक जगह कहते हैं:

"हमारी राजनीति ने अब तक कभी तो मैजिनी और वाल्टेयर को अपना आदर्श मानकर उदाहरण स्थापित किए हैं और या कभी लेनिन और टॉल्सटाय से सबक सीखा। हालाँकि उन्हें ज्ञान होना चाहिए कि उनके पास उनसे कहीं बड़े आदर्श हमारे पुराने ऋषि हैं।" वे इस बात पर यकीन करते हैं कि हमारा देश एक बार तो विकास की अन्तिम सीमा तक जा चुका था और आज हमें आगे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पीछे लौटने की जरूरत है।

आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचार में सभी जगह नजर आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यह 'शक्ति' धर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं "इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।" वह 'शक्ति' शब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं:

"For in sllitude have communicated with her, our admired Bharat Mata. And my aching head has heard voices saying…The day of freedom is not far off"…Sometimes indeed a strange feeling visits me and I say to myself – Holy, holy is Hinduastan. For still is she under the protection of her mighty Rishis and their beauty is around us, but we behold it not.

अर्थात एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज सुनी है कि 'आजादी का दिन दूर नहीं...कभी-कभी बहुत अजीब विचार मेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूँ, हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ऋषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी खूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।

यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहते हैं : "हमारी माता बड़ी महान है। वह बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।" इस तरह वे केवल भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं "Our national movement must become purifying mass movement, if it is to fulfill its destiny without falling into Class war one of dangers of Bolshevism." अर्थात हमें अपने राष्ट्रीय जन-आन्दोलन को देश-सुधार का आन्दोलन बना देना चाहिए। तभी हम वर्गयुद्ध के बोल्शेविज्म के खतरों से बच सकेंगे। वे इतना कहकर ही कि गरीबों के पास जाओ, गाँवों की ओर जाओ, उनको दवा-दारू मुफ्त दो - समझते हैं कि हमारा कार्यक्रम पूरा हो गया। वे छायावादी कवि हैं। उनकी कविता का कोई विशेष अर्थ तो नहीं निकल सकता, मात्र दिल का उत्साह बढ़ाया जा सकता है। बस पुरातन सभ्यता के शोर के अलावा उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं। युवाओं के दिमागों को वे कुछ नया नहीं देते। केवल दिल को भावुकता से ही भरना चाहते हैं। उनका युवाओं में बहुत असर है। और भी पैदा हो रहा है। उनके दकियानूसी और संक्षिप्त-से विचार यही हैं, जो कि हमने ऊपर बताए हैं। उनके विचारों का राजनीतिक क्षेत्र में सीधा असर न होने के बावजूद बहुत असर पड़ता है। विशेषकर इस कारण कि नौजवानों, युवाओं को ही कल आगे बढ़ना है और उन्हीं के बीच इन विचारों का प्रचार किया जा रहा है।

अब हम श्री सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कॉन्फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाए गए और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अन्तर्गत कैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बन गए। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं, और महाराष्ट्र कॉन्फ्रेंस में अध्यक्षीय भाषण में आपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।

पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वराज पार्टी के नेता पंडित मोतीलाल नेहरू जी के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आए हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कॉन्फ्रेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव स्वीकृत हो सका था। आपने अमृतसर कांन्फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर जोर दिया। लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कॉन्फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अंतर स्पष्ट हुआ था। लेकिन बाद में बम्बई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गई। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षत कर रहे थे और सुभाषचन्द्र ने भाषण दिया। वे एक बहुत भावुक बंगाली हैं। उन्होंने भाषण आरंभ किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष संदेश है। वह दुनिया को आध्यात्मिकता की शिक्षा देगा। खैर, आगे वे दीवाने की तरह कहना आरम्भ कर देते हैं - चाँदनी रात में ताजमहल को देखो और जिस दिल की यह सूझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा कि हममें "यह हमारे आँसू ही जम-जमकर पत्थर बन गए हैं।" वह भी वापस वेदों की ओर लौट चलने का आव्हान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण मे 'राष्ट्रवादिता' के संबंध में कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण सोच वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन वह भूल है। हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है, न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो यह 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' है अर्थात 'सच, कल्याणकारी और सुन्दर'।

यह भी छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है। वे प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायती राज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। 'पंचायती राज और जनता का राज' वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत पुराना है। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिन्दुस्तान के लिए नई चीज नहीं। खैर, उन्होंने सबसे ज्यादा उस दिन के भाषण में जोर जिस बात पर दिया था वह यह थी कि हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है। पंडित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिलकुज विपरीत हैं। वे कहते हैं -

"जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष संदेश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।" जवाहरलाल कहते हैं : "Every youth must rebel. Not only in political sphere, but in social, economic and religious sphere also. I have not much use for any man who comes and tells me that such and such thing is said in Koran. Every thing unreasonable must be discarded even if they find authority for it in the Vedas and Koran." (यानि) ‘‘प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता हीं जो आकर कहे कि फलाँ बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो नहीं माननी चाहिए।"

यह एक युगान्तकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राजपरिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरूद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तकारी और विद्रोही! पंडितजी एक स्थान पर कहते हैं : "To those who still fondly cherish old ideas and are striving to bring back the conditions which prevailed in Arabia 1300 years ago or in the Vedic age in India. I say, that it is inconceivable that you can bring back the hoary past. The world of reality will not retract its steps, the world of imagination may remain stationary."

वे कहते हैं कि जो अब भी कुरान के जमाने के, अर्थात 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियाँ पैदा करना चाहते हैं या जो वेदों के जमाने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यही कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आएगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं।

सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पंडित जी कहते हैं, हमें अपना राज कायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतंत्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है।

सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पंडित जी एक क्रान्ति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं - दिल के लिए नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तकारी है जो दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है : "They should aim at Swaraj for the masses based on socialism. That was a revolutionary method…Mere reform or gradual repairing of the existing machinery could not achieve the real proper Swaraj for the general masses." (अर्थात) हमारा आदर्श समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार पूर्ण स्वराज होना चाहिए, जो कि युगान्तकारी तरीकों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की धीमी-धीमी की गई मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज नहीं ला सकती।

यह उनके विचारों का ठीक-ठीक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है। परन्तु पंडित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।

अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों विचार आ गए हैं। हमें किस ओर झुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचार-पत्र ने सुभाष की तारीफ के पुल बाँधकर पंडित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मार जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रान्त है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।

सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरा मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तकारी विचारों को खूब सोच-विचारकर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पंडित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए। लेकिन जहाँ तक विचारों का सम्बन्ध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इंकलाब  का स्थान क्या है, आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों ओर अकेले खड़े होकर दुनिया के मुकाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इंकलाब के ध्येय को पूरा कर सकेगी।