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India has reached the top 3 position worldwide in the corona epidemic.

Opportunities in disaster : government and media in times of epidemic

प्रधानमंत्री ने जून के आखिर में राष्ट्र को एक बार फिर संबोधित किया था (Prime Minister Narendra Modi's address to the nation in June 2020)। यह कोरोना संकट के आने के बाद से राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री का छठा संबोधन था। प्रधानमंत्री की मानें तो सब ठीक-ठाक है। बेशक, लोगों को दिलासा देना, तसल्ली देना तो समझ में आता था, ताकि लोग बेवजह घबराएं नहीं। पर प्रधानमंत्री जी को तो इसकी शेखी बघारनी थी कि उनके राज में भारत कैसे कोरोना का मुकाबला करने में दूसरे बड़े-बड़े देशों से आगे है, उनसे ज्यादा कामयाब रहा है। उन्होंने यह कहकर खुद अपनी पीठ भी ठोकी कि सही समय पर कदम उठाकर उनकी सरकार ने लाखों जानें बचायी हैं!

फिर भी प्रधानमंत्री मोदी भी इस सचाई को छुपा नहीं सके कि उनकी सरकार के कामयाबी के दावे अपनी जगह, कोरोना के पीडि़तों और उससे जान गंवाने वालों का आंकड़ा तेजी से ऊपर से ऊपर ही जा रहा है। आज कोविड-19 के संक्रमण मामले में भारत पहले लॉकडाउन में और उसके बाद तथाकथित अनलॉक में भी तेजी से ऊपर चढ़ते गए हैं और भारत दुनिया भर में टॉप से तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। बेशक, अमरीका तो अब भी सबसे आगे है। उसके बाद, ब्राजील।

बहरहाल, प्रधानमंत्री ने महामारी के मोर्चे पर बढ़ती चुनौती के लिए किसी तरह की जिम्मेदारी स्वीकार करने से साफ इंकार करते हुए, केसों में और मौतों में भी तेजी से बढ़ोतरी की सारी जिम्मेदारी, जनता पर ही डाल दी। उनका कहना था कि अनलॉक में जनता लापरवाह हो गयी

है। लोगों ने दो गज दूरी, चेहरे पर मास्क लगाने औैर बार-बार साबुन से हाथ धोने जैसी सावधानियों के मामले में ढील शुरू कर दी है। जो महामारी का बढ़ता जोर दिखाई दे रहा है, उसी का नतीजा है।

पर महामारी का जोर तो बढ़ता ही जा रहा है। हर रोज, पिछले दिन से ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे हैं और पिछले दिन से ज्यादा लोग मौत के मुंह में समा रहे हैं। लेकिन हमारी सरकार, प्रधानमंत्री समेत समूची सरकार, इस सचाई पर पर्दा डालने की ही कोशिशों में लगी हुई है। लेकिन, यह बढ़ते खतरे की सचाई पर पर्दा डालने का भर का मामला नहीं है। यह सिर्फ लोगों को झूठी तसल्ली देने का भी मामला नहीं है। यह इस बढ़ते खतरे का मुकाबला करने के लिए जो कुछ किए जाने की जरूरत थी, उससे बचने का, सरकार के नाते बनने वाली जिम्मेदारी पूरी करने से भागने, पीछे हटने का भी मामला है।

वास्तव में इस सरकार ने पहले तो लॉकडाउन से मिली मोहलत को गंवा दिया।

होना यह चाहिए था कि लॉकडाउन से संक्रमणों की रफ्तार में बढ़ोतरी पर लगने वाले अंकुश का इस्तेमाल कर बड़े पैमाने पर टैस्टिंग बढ़ाते। संक्रमितों के संपर्कों का पता लगाते। बड़े पैमाने सार्वजनिक चिकित्सा सुविधाएं जुटाते। बैड, आइसीयू, वेंटीलेटर जुटाते। लेकिन, वह नहीं किया। ताली-थाली बजायी। दीया-बाती की। फूल भी बरसवा लिए। पर फ्रंटलाइन वर्कर्स की प्राणरक्षा के लिए जरूरी पीपीई किटों तक का इंतजाम नहीं किया गया। और तो और देश की राजधानी में ये आलम है कि नगर पालिका के अस्पतालों में डाक्टर इसी संकट के बीच तीन-तीन महीने की तनख्वाह ही नहीं मिलने के चलते, हड़ताल की धमकी देने पर मजबूर हो गए हैं। नर्सों का तथा बाकी स्टाफ का क्या हाल होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। कोरोना संबंधी सर्वेक्षण के काम में लगीं आशा वर्कर्स से लेकर सफाईकर्मी तक, न्यूनतम सुरक्षा से लेकर उपयुक्त वेतन तक की मांगों को लेकर, विभिन्न राज्यों में विरोध प्रदर्शन आदि करने पर मजबूर हुए हैं।

बहरहाल, पहले लॉकडाउन की मोहलत को बर्बाद किया गया सो किया गया, ओपन-1 के शुरू होने के बाद से तो सरकार ने जैसे इस लड़ाई से अपना हाथ ही खींच लिया है। लॉकडाउन-3 के आखिर में प्रधानमंत्री ने 20 लाख करोड़ रु0 के आत्मनिर्भर भारत पैकेज का जो एलान किया था, वास्तव में देश की सरकार के कोरोना के खिलाफ मोर्चे से पीछे हट जाने का ही एलान था।

अचरज नहीं कि इस पैकेज में, कोरोना के मुकाबले के लिए किसी भी नये खर्चे का, किसी भी नयी योजना का एलान कोई नहीं था। इसके ऊपर से इस बढ़ते संकट की तरफ से ध्यान बंटाने के लिए, आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का एक सरासर झूठा नारा और उछाल दिया गया।

प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जैसी इसकी शेखी मारी कि कैसे उनकी सरकार सही वक्त पर और सारी जरूरी कदम उठाकर कोरोना के कहर से देश को बचा लिया था। उसी तरह उन्होंने इसकी भी शेखी मारी कि कैसे उनकी सरकार ने बड़ी मुस्तैदी दिखाते हुए इसकी गारंटी की थी कि लॉकडाउन में कोई भूखा न सोए। इतना ही नहीं, उन्होंने तो बढ़ा-चढ़ाकर इसका भी बखान किया कि कैसे उनकी सरकार ने जनता को मुफ्त भोजन मुहैया कराने का इतना बड़ा काम किया था, जो न पहले किसी न किया था और न आइंदा कर पाएगा। उनकी सरकार ने तो अमरीका की कुल आबादी से ढ़ाई गुने, इंग्लैंड की आबादी के 12 गुने और योरपीय यूनियन की आबादी से दोगुने लोगों को मुफ्त भोजन कराया था! इसके साथ ही उन्होंने 20 करोड़ गरीबों के खाते में तीन महीने में 31 हजार करोड़ रु0 जमा कराने का गाना भी गया। वह यह भूल गए कि मामूली गणित से भी कोई भी जान जाएगा कि यह सिर्फ और सिर्फ 500 रु0 महीना एक पूरे परिवार को देने का मामला हुआ। और वह भी तब जबकि मोदी सरकार ने अचानक लॉकडाउन या देशव्यापी तालाबंदी का एलान कर, बीसियों करोड़ मेहनत-मजदूरी करने वालों से एक ही झटके में उनका रोजी-रोटी का जरिया छीन लिया था।

Announcement of nationwide lockdown with no plans

वास्तव में प्रधानमंत्री गरीबों को जरूरी मदद देने के बढ़े-चढ़े दावों की आड़ में इस सचाई को छुपाने की कोशिश कर रहे थे, उन्होंने देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा बिना किसी योजना के और बिना किसी तैयारी के अचानक उसी तरह की थी, जैसे चार साल पहले अचानक नोटबंदी की घोषणा की थी। वास्तव में राज्य सरकारों तक से इससे पहले कोई राय-मशविरा नहीं किया गया था, जबकि यह तालाबंदी जमीन पर उन्हें ही लागू करानी थी। हां! देश के प्रमुख मीडिया घरानों के धनी-धौरियों के साथ जरूर प्रधानमंत्री ने इस सिलसिले में एक बैठक की थी, हालांकि उसमें भी प्रधानमंत्री ने कोई परामर्श लेने के बजाए, उन्हें एक ही परामर्श दिया था कि सरकार के लिए ‘पॉजिटिव स्टोरीज’ करें! कोरोना के संकट के बीच भी सरकार को सिर्फ अपनी छवि की ही चिंता थी।

लॉकडाउन की घोषणा के बाद, 1.75 लाख करोड़ रुपए के गरीब कल्याण पैकेज की ठोस रूप-रेखा जारी होने में दो-तीन दिन निकल गए। और उसके बाद, उसमें की गयी घोषणाओं को जमीन पर उतरने में कुछ दिन और। यही वह समय था, जब आय के साधन छिनने से भूखों मरने की नौबत आती देखकर, भारत के छोटे-बड़े सैकड़ों शहरों से हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूरों के अपने घर-गांव की ओर पलायन का सिलसिला शुरू हुआ, जो लॉकडाउन के पूरे दौर में जारी रहा। पलायन का यह अंतहीन सिलसिला ही तालाबंदी में गरीबों की जरूरतें पूरी करने के मोदी सरकार के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है।

         कोई भूखा नहीं सोए’ मोदी सरकार ने पता है कितनी मुस्तैदी से सुनिश्चित किया?

लॉकडाउन-3 के आखिर में यानी लॉकडाउन के पूरे पचास से ज्यादा दिन गुजरने के बाद, मोदी सरकार को इस बात का ख्याल आया कि करोड़ों प्रवासी मजदूरों के पास राशन कार्ड तो हैं ही नहीं और इसके चलते उन्हें तो मुफ्त राशन मिल ही नहीं पा रहा था। इसके बाद ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एलान किया कि राशन कार्ड के बिना ही इस प्रवासी मजदूरों को मुफ्त राशन दिया जाएगा।

यह तब था जबकि खुद वित्त मंत्री के अनुसार, इन प्रवासी मजदूरों की संख्या 8 करोड़ अवश्य थी, हालांकि अन्य अनुमानों के अनुसार यह संख्या 12 से 14 करोड़ होगी।

सरकार के ही आंकड़े को सही मानें तो 8 करोड़ मजदूरों और उनके आश्रित परिवारों के भूखे पेट सोने का पचास दिन से ज्यादा मोदी सरकार को ख्याल ही नहीं आया। उसे तो सिर्फ तब ख्याल आया, जब मोदी सरकार की मीडिया की सारी नाकेबंदी के बावजूद, प्रवासी मजदूरों के महा-पलायन की खबरें देसी-विदेशी मीडिया में इस कदर छा गयीं कि मोदी सरकार के लिए भी इस सचाई की ओर से आंखें मूंदना नामुमकिन हो गया। इसके बाद, जी हां मीडिया में इस पलायन के जबर्दस्त विस्फोट के बाद ही, सुप्रीम कोर्ट की भी नींद टूटी और मोदी सरकार ने प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के लिए ट्रेनों-बसों आदि की व्यवस्था करने के लिए कदम उठाने शुरू किए। इसके बावजूद, खुद सरकार के नागरिक आपूर्ति मंत्री ने माना है कि इन आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों में से चौथाई से कम को हीसहायता के रूप में ये अनाज मिला है।

फिर भी, अगर प्रवासी मजदूरों की विपद देश और दुनिया के सामने आ सकी और अगर इस निर्मम सरकार को भी, पचास दिन बाद ही सही, किसी हद तक इन मजदूरों की विपदा कम करने के लिए कुछ न कुछ करने के लिए मजबूर किया जा सका, तो इसका सबसे ज्यादा श्रेय देसी-विदेशी मीडिया के मजदूरों के महापलायन के कवरेज को ही जाता है। बेशक, इसे मीडिया के अपनी भूमिका अदा करने का उदाहरण माना जाएगा। लेकिन, मीडिया का इस तरह और एक हद तक असरदार तरीके से अपनी भूमिका अदा करना, अब कोई नियम नहीं रहा है। अब तो यह एक अपवाद है। कोरोना के खिलाफ लड़ाई और लॉकडाउन, अब ओपन-1-2 के इस पूरे दौर में,  प्रवासी मजदूरों का मुद्दा अकेला मुद्दा है, जिस पर मीडिया सचमुच अपनी भूमिका अदा करता नजर आया है। वर्ना आमतौर पर इस पूरे दौर में मीडिया अपनी वास्तविक भूमिका छोडक़र, सरकार का भोंपू ही बना रहा है।

जाहिर है कि मीडिया ने अपनी पिछली भूमिका को यूं ही नहीं छोड़ दिया है। अपने छ: साल के शासन में मोदी के नेतृत्व में भाजपा और संघ ने जिस तरह मीडिया यानी मुख्यधारा के मीडिया की मुश्कें कसी हैं, उसके बिना यह हर्गिज संभव नहीं था। मौजूदा राज में मीडिया को नाथने के लिए साम, दाम, दंड, भेद, सभी हथियारों को खुलकर आजमाया जा रहा है। विज्ञापनों से लेकर हर प्रकार की सरकारी कृपा तक का हथियार बनाया जाना इस खेल का एक ही हिस्सा है। इतना ही महत्वपूर्ण एक और हिस्सा है सत्ताधारी पार्टी व सरकारी तंत्र द्वारा सैकड़ों लोगों की फौज लगाकर, सारे मीडिया की सत्ताधारी पार्टी, सरकार और सबसे बढक़र प्रधानमंत्री के विरोध के लिए, चौबीसौ घंटे मॉनीटरिंग किया जाना और सत्ता पक्ष की हरेक आलोचना को, कार्पोरेट मीडिया मालिकान के सामने, उनके संस्थान के ‘‘गुनाह’’ के तौर पर पेश करना। सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों से लेकर संपादकों तक के दबाव डालकर हटवाए जाने और अनुकूल लोगों के बैठवाए जाने के चर्चित किस्सों की भी सूची बहुत लंबी होगी।

इसके ऊपर ने कोरोना की चुनौती के नाम पर और आपदा कानून की आड़ में, मोदी सरकार ने देश पर जिस तरह पूरा तानाशाही राज थोप दिया है, उसी के हिस्से के तौर पर मीडिया की बची-खुची आजादी भी छीन ली गयी है। यहां तक कि सरकार के इसके निर्देश पर तो सुप्रीम कोर्ट ने भी मोहर लगा दी थी कि कोरोना के संबंध में सरकार के वर्शन को प्रमुखता से पेश किया जाए।

लॉकडाउन के दौरान न सिर्फ सरकार के कदमों पर सवाल उठाने के लिए बल्कि सरकारी कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार तक के मामले उठाने के लिए भी, असम समेत देश के विभिन्न हिस्सों में पत्रकारों व अन्य मीडिया आउटलैट्स पर राजद्रोह से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून तक के अंतर्गत मामले बनाए गए हैं।

ऐसे में अचरज की बात नहीं है कि सरकार कोरोना की चुनौती से लेकर, अपने कदमों की कमजोरियों तक पर पर्दा डालने में लगी है। और अब तो वह इस महामारी की चुनौती का सामना करने से ही पीछा छुड़ाने के लिए, अन्य-अन्य मुद्दे उछालकर ध्यान बंटाने की कोशिश कर रही है।

         लेकिन, मीडिया की जिम्मेदारी तो बनती है कि सरकार जिस सचाई पर पर्दा डाल रही है, उसे उघाड़े। उससे सवाल करे। उसे जिम्मेदारियां पूरी करने पर मजबूर करे। पर मीडिया वही नहीं कर रहा है।

इसी का नतीजा है कि महामारी का मुकाबला करने के लिए विकसित पूंजीवादी देशों तक में जनता की आमदनी की हिफाजत करने और लोगों की जानें बचाने के लिए जो कदम उठाए गए हैं, मोदी सरकार उन कदमों को भी उठाने के लिए तैयार नहीं है। इसके बावजूद, वह अपने कदमों से जनता के संतुष्ट होने के दावे कर पा रही है। कुछ मीडिया हाउसों ने सर्वे छापकर इस तरह के दावे किए हैं कि कोरोना महामारी से निपटने के मामले में नरेंद्र मोदी सरकार की कारगुजारियों से जनता पूरी तरह से संतुष्ट है।

फिर भी, मीडिया की इससे भी महत्वपूर्ण एक विफलता और है, हालांकि उसकी चर्चा कम ही होती है। वह यह कि मौजूदा व्यवस्था को लेकर जो असली सवाल इस महामारी ने उठा दिए हैं, उन्हें मीडिया करीब-करीब नहीं ही उठा रहा है। मिसाल के तौर पर हम सब देख रहे हैं कि कैसे मौजूदा पूंजीवादी-नवउदारवादी व्यवस्था, इस महामारी का सामना करने में पूरी तरह से विफल साबित हुई है। और यह विफलता सिर्फ इस व्यवस्था की कमजोर कडिय़ों यानी विकासशील या पिछड़े देशों में ही देखने को नहीं मिल रही है, इस व्यवस्था की अमरीका जैसी सबसे मजबूत तथा वैचारिक रूप से सबसे मुकम्मल या शुद्घ कडिय़ों में, और भी शानदार तरीके से देखने को मिल रही है।

इस अनुभव ने नवउदारवादी पूंजीवाद की निजीकरण की पैरोकारी पर, उसकी बाजार के भरोसे रहने की पैरोकारी पर, बुनियादी सवाल उठा दिए हैं। और कुल मिलाकर नवउदारवादी व्यवस्था के एक ऐसी नाकाम व्यवस्था होने का सवाल उठा दिया है, जो पहले ही बड़े संकट के धक्के से बैठ गयी है। लेकिन, मुख्यधारा का मीडिया, भारत के विशिष्ट संदर्भ में तो भूले से भी इन सवालों को छेड़ता तक नहीं है। और तो और वह तो महामारी के इस संकट के बीच, सारी विफलताओं के बावजूद मोदी सरकार के निजीकरण की मुहिम को खनन से लेकर रक्षा उत्पादन तक, अब तक निजीकरण से सुरक्षित रखे गए क्षेत्रों तक पहुंचाने पर भी, कोई सवाल उठाने या किसी को उठाने देने के लिए भी तैयार नहीं है।

और इसका संबंध मुख्यधारा के मीडिया के चरित्र में ही आए बदलाव से है। कार्पोरेटों के नियंत्रण में मुख्यधारा का मीडिया, आज खुद पूंजीवादी तंत्र का हिस्सा बन चुका है। अब मीडिया के संबंध में मुद्दा यह नहीं है कि वह किस तरह पक्षपात करता है? वह किस तरह संपन्न तबकों की ही सुनता है? कैसे मेहनत मजदूरी करने वाले ही नहीं, मध्य वर्ग के भी बड़े हिस्से उसके राडार से गायब ही हो गए हैं। अब तो मीडिया खुद सत्ताधारी वर्ग का हिस्सा है।

यह बात समझने की है कि यह मीडिया पर सत्ताधारी वर्ग के नियंत्रण होने मात्र की बात नहीं है। नियंत्रण में फिर भी नियंत्रक और नियंत्रित यानी जो नियंत्रित करता है और जिसे नियंत्रित किया जाता है, उनके बीच एक अंतर होता है, एक भेद होता है। जो नियंत्रण में है उसका, नियंत्रण करने वाले से, किसी न किसी प्रकार का टकराव भी रहता है। और नियंत्रित किया जाने वाला, नियंत्रण करने वाले के हितों के साथ इतना पूरी तरह से एकरूप या तदाकार शायद ही कभी होता है कि, पूरी तरह से उसके हितों से ही संचालित हो। उल्टे दोनों के बीच एक खुला या छिपा, सुप्त या जाग्रत, तेज या मद्धम, टकराव मौजूद रहता है। यह अंतर्विरोध नियंत्रणकारी वर्ग के हितों के अलावा भी कुछ न कुछ की गुंजाइश बनाता है। इस गुंजाइश का हमेशा पूरा-पूरा उपयोग हो, यह कोई जरूरी नहीं है। फिर भी यह गुंजाइश रहती जरूर है। और यह गुंजाइश भी हमेशा बहुत थोड़ी ही हो, यह भी कोई जरूरी नहीं है। सामाजिक संतुलन में बदलाव के साथ, यह गुंजाइश घटती-बढ़ती रहती है।

लेकिन, आज की स्थिति इससे गुणात्मक रूप से भिन्न है। मीडिया क्योंकि खुद ही सत्ताधारी वर्ग का हिस्सा बन गया है, यह गुंजाइश ही खत्म हो गयी है। मीडिया तथा खासतौर पर टीवी पर नीतिगत प्रश्नों तक जाने वाली कोई भी बहस देख लीजिए, उसमें हमेशा ऐसे विकल्प के लिए रास्ता बंद ही रखा जाता है, जो मौजूदा नवउदारवादी नीतियों या पूंजीवादी आग्रहों के खिलाफ जाता हो। फिर चाहे आत्मनिर्भरता-आत्मनिर्भरता रटते-रटते, अर्थव्यवस्था के ज्यादा से ज्यादा क्षेत्रों पर बहुराष्ट्रीय निगमों के नियंत्रण के लिए दरवाजे ही क्यों न खोले जा रहे हों।

बेशक, इस दौर में सोशल मीडिया की उपस्थिति भी है। उस पर सत्ताधारी वर्ग का वैसा मुकम्मल नियंत्रण नहीं है। उसके कोनों-अंतरों में दूसरी-दूसरी आवाजों को भी कुछ गुंजाइश मिल जाती है। यानी बहुत बार व्यवहारवादी तरीके से हम सोचते हैं और सही ही सोचते हैं कि ना कुछ से तो कुछ ही सही। थोड़ा ही सही, फिर भी कुछ तो है। और जितना है, उतना ही रहेे यह भी कोई जरूरी नहीं है। अपने प्रयास से, अपने उद्यम से हम उसे बढ़ा भी सकते हैं। यानी सोशल मीडिया में जो भी मौके हैं, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के, लोगों को प्रभावित करने के, उनका संस्कार करने के, उनका उपयोग तो करना ही करना चाहिए। यह भी एक जरूरी काम है, जिसके महत्व को कम कर के देखने का मतलब है, अपना ही काम मुश्किल बनाना। आखिरकार, जनतंत्र के पक्षधरों का काम लोगों के दिलो-दिमाग को बदलना ही तो है।

फिर भी, लोगों के दिलो-दिमाग को जीतने की लड़ाई के मोर्चे या मैदान के रूप में, सोशल मीडिया की सीमाओं को भी याद रखना जरूरी है। मौजूदा सत्ताधारी वर्ग का अगर परंपरागत मीडिया पर लगभग पूरा नियंत्रण है, तो सोशल मीडिया भी उसके नियंत्रण से बाहर नहीं है। यह नियंत्रण विज्ञापनों के जरिए भी है और नियम-कायदों के जरिए भी। जो सामाजिक मीडिया पर सक्रिय हैं, वे इसमें संघ परिवार के  डॉमिनेंस को भी बखूबी जानते हैं। संघ परिवार के लिए यह युद्घ का मैदान है। इस मैदान में वह अपनी विशाल ट्रोल सेना के साथ लड़ रहा है और युद्घ के सारे हरबे-हथियारों के साथ लड़ रहा है। संघ पलटन ने इस युद्ध

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

को एक नये स्तर तक पहुंचा दिया है। ट्रोल सेना के सहारे हरेक भिन्न या विरोधी विचार को कुचलना अगर इसका एक पहलू है, तो सचेत रूप से फेक न्यूज का प्रचार-प्रसार, इसका एक और पहलू है।

इसके अलावा फेसबुक, ट्विटर आदि की नीतियों पर--बड़ी पूंजी/ कमाई का नियंत्रण है। मिसाल के तौर पर नस्लवाद आदि मानवविरोधी विचारों, मूल्यों को मंच न देने की फेसबुक की नीति सचेत रूप से इतनी लचर है कि उसके इस रुख पर जोरदार विरोध दर्ज कराते हुए, अनेक बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पिछले कुछ अर्से में ही एक के बाद एक, फेसबुक से अपने विज्ञापन खींच लिए हैं। इसी प्रकार, खुद हमारे देश में फेसबुक, ट्विटर आदि सोशल मीडिया प्लेटफार्मों द्वारा जातिवादी, सांप्रदायिक, स्त्रीविरोधी आदि संदेशों के न रोके जाने और दूसरी ओर मौजूदा सरकार के प्रति आलोचना की आवाजों को मनमाने तरीके से रोके जाने की, ढेरों शिकायतें सार्वजनिक दायरे में आती रही हैं।

इस तरह निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जैसे कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई, मौजूदा सरकार के खिलाफ लड़ाई से जुड़ी हुई है, वैसे ही मीडिया के जनतांत्रीकरण की लड़ाई, इसी बड़ी लड़ाई का हिस्सा भी है और इस लड़ाई का एक मोर्चा भी। इनमें से हरेक मोर्चे पर मजबूती, दूसरे सभी मोर्चों को मजबूत करेगी।

राजेंद्र शर्मा

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