जीवन के अंतिम पड़ाव पर त्रिलोचन जी हरिद्वार की एक सँकरी गलीवाली कालोनी में अपनी वकील बहू के साथ रहने लगे थे। जब तबियत बहुत ख़राब हो गयी, तो राज्य सरकार ने उन्हें देहरादून के एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराया। मुझे जब मालूम हुआ, तो सपत्नीक उनसे मिलने गया। देखकर चहक उठे।
थोड़ी देर तक मुझसे बातें करने के बाद श्रीमती जी से कहा -'आपसे एक मन की बात कह रहा हूँ। मैं मछली-भात आपके हाथों का खाना चाहता हूँ।'
देहरादून के अस्पतालों में सामान्यतः रोगी का भोजन अपने घर से ही आता है। अगले दिन मैं टिफिन कैरियर में मछली-भात आदि लेकर गया। उन्होंने जिस तल्लीनता से खाना खाया, वह देखने लायक था। जीर्ण-शीर्ण हो गए थे, मगर गहरी आँखों में वही चमक थी। मुझे याद आये, बनारस के वे दिन, जब त्रिलोचन जी रथयात्रा के पास रहते थे और पूरे शहर की परिक्रमा पैदल करते थे। उनके संग दो-चार तरुण बालक होते थे, जो उनके गहन ज्ञान को अवाक होकर सुनते थे। कभी -कभी वे निराला की 'शक्तिपूजा' भी सुनाते थे। 1970 में पटना के श्रीचन्द्र शर्मा ने अपनी पत्रिका 'स्थापना' में तीन खण्डों में त्रिलोचन जी केंद्रित विशेषांक निकाले, जिसमें पीआईबी के अधिकारी, अग्रज शम्भुनाथ मिश्र (अभिनेता संजय मिश्र के पिता ) के कहने पर मैंने भी त्रिलोचन जी पर विशद लेख लिखा था।
उस समय तक उनकी तीन पुस्तकें ही उपलब्ध थीं- धरती, गुलाब और बुलबुल और दिगन्त। इनमें 'धरती' में उनके गीत थे, जो यह दर्शाते थे कि मूलतः त्रिलोचन जी लोकधर्मी गीतकार थे। (“धरती ”के गीतों के अनुसरण में
फिर उन्होंने अंग्रेजी छन्द सॉनेट पर सवारी करना शुरू किया और 'सॉनेट सम्राट' कहलाकर माने। 1972 में वे 'जनवार्ता' दैनिक में और मैं 'आज' दैनिक में कार्यरत हुआ। दोनों कार्यालय आसपास थे, इसलिए अक्सर वे शाम को 'आज' आ जाते थे।
फिर दिल्ली विश्वविद्यालय की हिंदी-उर्दू कोश योजना में काम करने दिल्ली चले गये और वहां से सागर विश्वविद्यालय चले गए, मुक्तिबोध सृजनपीठ के अध्यक्ष होकर। कलकत्ता में जब उनके सुपुत्र अमित प्रकाश पत्रकार बनकर आये, तो बीच-बीच में त्रिलोचन जी कलकत्ता भी आते रहे और हमारी भेंट होती रही।
बनारस में जब थे, तो गोदौलिया चौराहे से सटी पत्रिका की दुकान पर शाम को मिल जाया करते थे।
1972 में जब 'धर्मयुग' में मेरा 'जाल फेंक रे मछेरे' गीत छपा, तो बधाई देने मेरे आवास ( काली मंदिर ) आये थे और बताया कि इसकी पंक्तियों को सीधे न लिखकर तोड़कर लिखना था।
उनका एक संग्रह है- उस जनपद का कवि हूँ। वे शब्दकोश के निर्माण से जुड़े थे, इसलिए शब्द की सूक्ष्म परख उन्हें थी। अपने जिले को वे सुल्तानपुर न कहकर 'सुल्ताँपुर' कहते थे। खाँटी अवधी का भरपूर प्रयोग करते थे, खड़ी बोली में भी। 'ताप के ताये हुए दिन'(साहित्य अकादमी पुरस्कृत ) में ताये शब्द गाँव से ही लाये थे।
त्रिलोचन जी के गीतों में चिरानी पट्टी गाँव का लोकतत्व और काशी का काव्य-चिन्तन उभरकर आया। दिसम्बर, 2007 में उनके निधन से हिंदी ने एक ऐसा मस्तमौला कवि खो दिया, जो हमेशा चर्चाओं की लहर पैदा कर उसका अकेले आनन्द लिया करता था। ऐसा वही कर सकता है, जिसका लोकजीवन की गीत-धर्मिता से गहरा जुड़ाव हो।
त्रिलोचन जी की काव्यात्मा को इन दो पंक्तियों में समझा जा सकता है -
मुझमें जीवन की लय जागी
मैं धरती का हूँ अनुरागी।”
-- बुद्धिनाथ मिश्र
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बढ़ रही क्षण क्षण शिखाएं
दमकते अब पेड़-पल्लव
उठ पड़ा देखो विहग-रव
गये सोते जाग
बादलों में लग गई है आग दिन की।
पूर्व की चादर गई जल
जो सितारों से छपाई
दिवा आई दिवा आई
कर्म का ले राग
बादलों में लग गई है आग दिन की।
जो कमाया जो गंवाया
छोड़, उसका छोड़ सपना
और कर-बल, प्राण अपना
आज का दिन भाग
बादलों में लग गई है आग दिन की।
वास तज कर विचरते पशु
विहग उड़ते पर पसारे
नील नभ में मेघ हारे
भूमि स्वर्ण पराग
बादलों में लग गई है आग दिन की।
@ त्रिलोचन शास्त्री
बुद्धिनाथ मिश्र की एफबी टाइमलाइन से साभार, प्रस्तुति – डॉ. कविता अरोरा