पहले सूचना दे दी थी।
जनसँख्या का सफाया हो रहा है अमेरिकी ग्लोबल आर्डर को नए सिरे से मजबूत बनाने के लिए। मेरी नई टीप का इंतज़ार करें।
भारत में स्वास्थ्य, कानून व्यवस्था और अर्थव्यवस्था खत्म होने के कगार पर।
कल से तबियत ढीली चल रही है। बागवानी की सोच रहा हूँ। पद्दो जितनी मेहनत कर लेता है, उतनी नहीं कर सकता। सामने भतीजे अंकुर ने कुछ खेती बाड़ी कर रखी है, उसके अलावा थोड़ा बहुत शुरुआत करनी है।
कोरोना ने गांव के लोगों को नए सिरे से बाजार के बिना आत्मनिर्भर होकर जीना सीखा दिया है। महीने भर के लॉकडाउन में। गांव में रहना है तो शहरी आदतें छोड़कर मेहनतकश ज़िंदगी जीने का अभ्यास करना बाजार से कट जाने के बाद बहुत जरूरी हो गया है।
आज सुबह से रक्तचाप कम है। कल दिनभर सोता रहा था। एक सूटकेस का पैक कोलकाता से लौटने के बाद अभी खुला नहीं था।
सविता जी कई दिनों से कह रही थीं, इसे खोलो, इसमें अल्बम सारे हैं।
कल दोपहर उसे उतारने गए तो वह इतना भारी निकला कि बांस की सीढ़ी लड़खड़ा गई और हम दोनों गिर गए। मेज टूट गयी। लेकिन हमें चोट नहीं आयी।
सविता जी हायपर सेंसिटिव हैं। बेहद टची हैं। बहुत ज़िंदा हैं। भावनाएं उनमें करंट की तरह काम करती हैं।
कल शाम को ही सारा खजाना खँगाल लेती, लेकिन बिजली गुल हो जाने से आज सुबह का इंतज़ार करना पड़ा।
सुबह से मुझे चक्कर आ रहे थे। खड़ा नही हो पा रहा था।
हम दोनों मधुमेह के मरीज हैं। सविता तो 2003 से इन्सुलिन पर हैं।
दिनेशपुर आने के बाद मेडिकल चेक अप हुआ ही नहीं। तीन साल हो रहे हैं। खून की जांच, रक्त चाप जांच दिनेशपुर से चल रहा
लिखने की तैयारी सुबह से है। बैठ ही नहीं सका।
11 बजे के करीब रूपेश आ गए और उनके साथ पहली बार रसिक महाराज।
सविता जी उसी दौरान पुरानी यादों में ऐसे खोई थी कि बच्चों के आगे पकड़ लिए गए और 1983 की तस्वीरें सार्वजनिक हैं।
दरअसल हमारा मानना है कि प्रेम कोई बताने जताने का मामला होता नहीं है। हमें इसकी जरूरत होती नहीं है।
हमारी दिनचर्या, जीवन शैली, विचार, परिवेश, अध्ययन, संघर्ष, वाद विवाद, मतभेद में भी एक तार दिलों के दरम्यान कहीं करंट जैसा काम करता है और चीजें इसी हिसाब से चलती हैं।
जैसा कि फिल्मों में दिखाया जाता रहा है या इस दौर में और उग्र ढंग से दिखाया जाता है और जिसका अनुकरण गांवों के बच्चे इन दिनों करते हैं, गांवों में प्रेम दरअसल इतना मुखर कभी होता नहीं है।
शब्दों की भूमिका बहुत कम होती है।
खेती किसानी के काम में पल पल लोग बंधे होते हैं कच्चे धागे से, जिसमें निजता जितनी होती है उतना ही होता है लोक और परम्परा का निर्वाह।
खेती किसानी तबाह होने से गांव में भले ही फिल्मी अधकचरा प्रेम मुखर हो गया हो, दरअसल माटी की सोंधी महक में पगी वह खालिस प्रेम, निःशब्द प्रेम शहरीकरण और बाजार डिजिटल शोर में कहीं दुबक कर जान बचने की दुआ मांग रहा है।
गांव कितने आत्मनिर्भर रहे हैं, हमारी माताओं, बुआओं, दादियों और नानियों की पीढ़ियों ने भारत विभाजन के जख्मों को सीकर आधे अधूरे लोगों को मुकम्मल बनाकर दिखाया है।
बसंतीपुर के लोग अक्सर शिवन्ना को देखकर कहते हैं कि वह मेरी मां की तरह है। लेकिन सब कुछ सहेजने, जानने और सीखकर याद रखने की 3 साल की उम्र में उसकी आदतें मुझे अपनी दादी शांति देवी की याद दिलाती हैं।
मेरी दादी अपढ़ थी।
लेकिन वह जमींदारों के लठैतों और पुलिस के खिलाफ मर्दों की गैरहाज़िरी में औरतों की मोर्चाबंदी और जीत के किस्से सिलसिलेवार सुनाती थीं।
मेरी दादी 60 साल की उम्र में पूर्वी बंगाल में जैशोर के नडायल महकमे के मधुमती नदी किनारे अपने गांव खेत नदी छोड़कर आयी थीं।
इसी तरह आयी थी तमाम विभाजन पीड़ित औरतें।
लेकिन किसानों की उन बेटियों ने किस्मत का रोना नहीं रोया। परिवारों को जोड़ने, गांव को बसाने, नए खेत, नए आम केले फलों सब्जियों के बगीचे, मछलियों भरे पोखर रोपने में उन्होंने अपनी जान लगा दी।
मेरी दादी अपढ़ थी लेकिन हर तरह की बीमारी के इलाज के लिए घर में हर कहीं औषधि के पेड़ पौधे लगा रखी थी, जिन्हें हमारी पीढ़ियों ने ऐसे तबाह कर दिया कि किसी को उन पेड़ पौधों के नाम तक याद नहीं।
गांव में दादी की हमउम्र औरतें हर जरूरी काम कर लेती थीं। गर्भवती महिलाओं का आपातकालीन प्रसव भी। एक थी अन्ना बूढ़ी, जो आंख से कम देखती थी और कान से कम सुनती थी, लेकिन इस मामले में नार्मल डिलीवरी के मामले में बड़ी बड़ी डॉक्टर भी उनके मुकाबले नहीं आ सकती।
ताड और नारियल, सुपारी के पेड़ न लगा पाने का अफसोस था दादी को।
बंगाल की मछलियों को याद करती थीं।
दूसरी ओर, हमारे दोस्त नित्यानन्द टेक्का की दबंग दादी थीं जो दूर दूर जाने वाली मछली पकदनीयालों की टोली का नेतृत्व करती थी, तो गांवभर के बच्चों को सुबह दुपहर रात कभी भी पकड़कर नहलाकर खिलाने से लेकर उनकी मरम्मत का काम भी खूब करती थी। इस मरम्मत के काम में गांव के मतबरों को भी बख्शती न थी वह।
इन्हीं औरतों ने गांवों को आत्मनिर्भर बनाया।
आज लॉक डाउन में फिर वही औरतें उन भूली बिसरी विभाजन पीड़ित औरतों की तरह एकदम शेरनी बनकर अपने परिवार को सहेज रही हैं।
शिवन्ना गांव या खेत में घूमते वक्त कहती, दादा, मेरा हाथ पकड़े रहना, वरना गिर जाओगे।
वह हमारे साथ हर काम करती है।
वह साढ़े तीन साल की है।
मेरी दादी का निधन 1970 में लम्बी बीमारी से हुई। उनकी कोई तस्वीर फिलहाल नहीं मिल रही है।
1970 में उनके बेटे के खिलाफ मैंने अपने हाई स्कूल मरण हड़ताल का नेतृत्व किया था, इस गुस्से में वे जो मुझसे सबसे ज्यादा प्यार करती थीं, मरने से पहले तक हमसे नहीं बोली।
मधुमती को वे कभी भूल न सकी।
नल या तालाब में वे नहा नहीं पाती थी।
उन्हें नहाने के लिए कोई छोटी ही सही एक मुकम्मल बहती हुई नदी चाहिए थी।
शुक्र है कि दादी और उनकी जैसी हमारी बहुत प्यारी औरतों के जिंदा रहने तक पहाड़ की सारी नदियां आज़ाद मैदानों में भी बहती थीं। बसन्तीपुर की दसों दिशाओं में जैसे बची थी जंगल की आदिम गंध, उसी तरह उन जंगलों में बहने वाली नदियां भी तब तक मरी नहीं थीं।
हमारी दादी मधुमती की ज़िंदगी जीती हुई मधुमती की तरह गायब हो गयीं।
इतने सालों बाद भी मुझे हर लड़की, हर औरत एक मुकम्मल नदी लगती है, आज़ाद बहने की शर्त है उनकी ज़िंदगी की।
शिवन्ना को रोज़ देखता हूँ और गांव की सारी दिवंगत औरतों की आत्माओं से घिर जाता हूँ।
हमेशा मुहब्बत से घिरा रहा हूँ।
पहाड़, मैदान और देश भर में मुझे इतनी मुहब्बत मिली है कि उस खजाने को खोने से हमेशा डरता हूँ।
यही गांव की ताकत है।
गांव के कण कण में बसी है मुहब्बत जिसे लोग खून पसीने से सींचते रहे हैं हजारों साल से।
उसी गांव की लाश पर भारत को अमेरिका बना रहे थे लोग। अमेरिका के ताजा हालात देख लें।
महामारी के अपने नियम हैं।
महामारी 1919 में भी आई थी अखण्ड भारत में। तब 30 करोड़ के करीब आबादी थी अखण्ड भारत की जो तीन देश की मिलाकर चीन से ज्यादा है।
तब दुनिया में 6 करोड़ और भारत में एक करोड़ लोग मारे गए थे।
दुनिया की यह सबसे बड़ी सबसे घनी आबादी है तो खतरे भी बहुत हैं। इस खतरे से बचने का इंतज़ाम सिर्फ लॉक डाउन और संक्रमण की छूट, दोनों?
अमेरिका और यूरोप के देशों में जिसतरह गरीब और अश्वेत लोग थोक भाव से मारे जा रहे हैं और वहाँ हुक्मरान का जो बेफिक्र ट्रम्प रवैया है, इस पर यह समझने और साबित करने की कोई जरूरत नहीं है कि मंदी और मुक्तबाजार, पूँजीवाद के संकट से निबटने का हथियार भी बन रहा है कोरोना वायरस।
विश्व व्यवस्था को नए सिरे से साधने के लिए गैर जरूरी जनसंख्या के सफाये का योजनाबद्ध कार्यक्रम चल रहा है। गरीबों को मामूली राहत का सब्जबाग दिखाकर मरने के लिए खुला छोड़ दिया गया है।
मजदूरों की रोज़ी रोटी छीनकर छंटनी हो गयी।
लॉक आउट का रास्ता बना दिया गया।
कर्मचारियों के वेतन में कटौती।
डॉक्टरों, नर्सों और पुलिसवालों के खिलाफ भी आपदा कानून धारा 188 का इस्तेमाल।
दूसरी ओर, पूंजीपतियों को राहत, पैकेज, कर्जमाफी का सिलसिला थम ही नहीं रहा।
मुक्तबाजार में कहीं भी कोरोना संक्रमण से गरीब मेहनतकश जनता को बचाने की कोई कोशिश नहीं है।
गांव में ही जान है, जहां है ओर मुहब्बत भी है।
मुक्त बाजार के अंधे कब समझेंगे?
पलाश विश्वास