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Please do not do politics on this great disaster, will man become extinct? Definitely consider this question

अच्छी खबर यह है कि अम्फान तूफान से दीघा और ओडिशा को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ।

अच्छी खबर यह भी है कि प्रधानमंत्री बंगाल की मुख्यमंत्री का अनुरोध मानकर बंगाल और ओडिशा के तूफान पीड़ित इलाकों का दौरा कर रहे हैं।

कृपया इस महाआपदा पर राजनीति न करें।

आपको बीबीसी का एक वीडियो शेयर किया है- क्या मनुष्य विलुप्त हो जाएगा? इस सवाल पर गौर जरूर कीजियेगा।

कोरोना काल में आम जनता अभूतपूर्व रोजी रोटी के संकट से घिरा है। उनकी इस मरणासन्न दशा पर सत्ता की रोटी मत सेंकिए। थोड़ी सी मनुष्यता, थोड़ी सी सभ्यता बची है तो सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर बुनियादी सवालों का जवाब खोजें।

कोलकाता के तीन सौ सालों के इतिहास में हर मौके पर मैनग्रोव जंगल सुंदरवन ने उसकी रक्षा की है। कोलकाता के तख्त पर बैठने वालों ने उसी सुंदरवन को तहस नहस कर दिया है उसी तरह जैसे हिमालयी राज्यों के सत्तानशीनों ने जंगल काटकर पहाड़ों को नँगा कर दिया है। पहाड़ की एक एक इंच बेच खाया।

सुपर साइक्लोन अम्फान सीधे सागरद्वीप से टकराकर कोलकाता पहुंच गया इसबार। सागर द्वीप की आबादी 50 हजार है जो बाकी दुनिया से कटी है।

टीवी पर कोलकाता की तबाही की तस्वीर आपने देखी है। 1911 तक भारत की राजधानी और आज़ादी वक्त देश के सबसे बड़े औद्योगिक महानगर की हालत इन तस्वीरों से समझी नहीं जा सकती।

इंडियन एक्सप्रेस की नौकरी के दौरान हर रात घर लौटते हुए हर मौसम में पूरे कोलकाता की परिक्रमा हो जाती थी।

बरसात या बेमौसम आंधी पानी में लाखों लोग फुटपाथ पर जो जिंदगी गुजर बसर करते हैं, उसका चश्मदीद गवाह रहा हूँ हर रात 27 साल तक।

कोलकाता के आसपास भारत विभाजन के शिकार लाखों लोग रेल पटरियों के दोनों तरफ, नदी, तालाब, झील, रेलवे

प्लेटफार्म, झुग्गी झोपड़ी की जबर्दखल कालोनियों और कहीं भी रहते हैं, दिहाड़ी मजदूर हैं।

लाखों स्त्रियां लोगों के घरों में नौकरानी हैं। कोरोना ने इन्हें रोटी रोज़ी से बेदखल कर दिवा था। अम्फान ने उनके आसमान और जमीन भी छीन ली।

कोलकाता में तीन दिन से बिजली नहीं है। पेड़ सारे के सारे गिर गए जिन्हें काटकर साफ नहीं किया जा सका तो यातायात कोरोना लॉकडाउन के मध्य आपातकाल में भी असम्भव है। मोबाइल टॉवर सारे गिर गए। फोन पर किसी से बात नहीं हो सकती।

बंगाल की किसी सरकार ने दलित शरणार्थियों की नागरिकता और पुनर्वास के लिए कुछ नहीं किया और न ही पिछले 70 सालों में बंगाल के किसी नेता ने देश भर में बसाए गए दलित शरणार्थियों की खोजखबर ली। उनकी क्या दशा हो रही होगी हमारा दिल जानता है।

गंगा के दोआब में सुंदरवन इलाके के बांगलादेश सीमा से सटे सैकड़ों दलित आदिवासी द्वीपो और वहां रहने वाले लोगों का क्या हुआ होगा, खुद ममता बनर्जी भी नहीं जानती जिनका अपना दफ्तर जहां है, जहां वे मोर्चा जमाये बैठी हैं, उस मुख्यालय नवान्न की इमारत हावड़ा में चली 170 किमी की गतिवाली आंधी से क्षतिग्रस्त है।

दक्षिण 24 परगना पूरा का पूरा ध्वस्त है, जो समुद्र से लगा हुआ है। जहां दलित, क्षत्रिय और मुसलमान बड़ी संख्या में हैं। कुछ आदिवासी भी हैं।

इसीतरह उत्तर 24 परगना में हिंगलगंज और बशीरहाट इलाकों की ध्वस्त आबादी पौण्ड्र और मुसलमानों की है। बाकी उत्तर 24 परगना, नदिया, मुर्शिदाबाद में नमोशूद्र और मुसलमानों की बड़ी आबादी है।

इसी तरह मेदिनीपुर में माहिषय और कैबर्त, मछुआरे और आदिवासी, मुसलमान पीड़ित हैं तो हावड़ा और हुगली में कैबर्त किसान हैं। ये सारे लोग 70 साल से दबे कुचले लोग हैं ।

कोरोना और तूफान ने उनका क्या हाल किया होगा, समझ लें।

पलाश विश्वास जन्म 18 मई 1958 एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक। उपन्यास अमेरिका से सावधान कहानी संग्रह- अंडे सेंते लोग, ईश्वर की गलती। सम्पादन- अनसुनी आवाज - मास्टर प्रताप सिंह चाहे तो परिचय में यह भी जोड़ सकते हैं- फीचर फिल्मों वसीयत और इमेजिनरी लाइन के लिए संवाद लेखन मणिपुर डायरी और लालगढ़ डायरी हिन्दी के अलावा अंग्रेजी औऱ बंगला में भी नियमित लेखन अंग्रेजी में विश्वभर के अखबारों में लेख प्रकाशित। 2003 से तीनों भाषाओं में ब्लॉग पलाश विश्वास
जन्म 18 मई 1958
एम ए अंग्रेजी साहित्य, डीएसबी कालेज नैनीताल, कुमाऊं विश्वविद्यालय
दैनिक आवाज, प्रभात खबर, अमर उजाला, जागरण के बाद जनसत्ता में 1991 से 2016 तक सम्पादकीय में सेवारत रहने के उपरांत रिटायर होकर उत्तराखण्ड के उधमसिंह नगर में अपने गांव में बस गए और फिलहाल मासिक साहित्यिक पत्रिका प्रेरणा अंशु के कार्यकारी संपादक।

बांकूड़ा और पुरुलिया के आदिवासी बहुल जंगल महल की भी हालत खस्ता है तो औद्योगिक और कोयला इलाका आसनसोल और कृषि सम्पन्न जिला बर्धमान, ताराशंकर बंदोपाध्याय और प्रणब मुखर्जी के सद्गोप किसान, आदिवासी और मुस्लिम जनसँख्या वाले, रविन्द्र के शांतिनिकेतन के बीरभूम भी अछूते नहीं है।

जाति, धर्म का कोरोनाकाल और अम्फान समय में असमानता और अन्याय की व्यवस्था में क्या भूमिका हो सकती है, पंडित गोविंद बल्लभ पंत की पहल पर देशभर में बसाए गए बंगाली दलित शरणार्थियों तक को इसका अंदाज़ा नही है, बाकी देश को क्या मालूम होगा। लेकिन अपनी बर्बादी की असल वजह जानने के लिए बंगाल के आईने में बहुजनों को झांकते हुए समझना चाहिए कि हिंदुत्व की पैदल सेना बनकर उन्होंने क्या खोया क्या पाया।

पलाश विश्वास,

कार्यकारी संपादक,

प्रेरणा अंशु,

दिनेशपुर