पीएम मोदी ने गृह मंत्रालय के चिंतन शिविर में पुलिस के लिए वन नेशन, वन यूनिफॉर्म की वकालत की है। साथ ही, प्रधानमंत्री ने अपराधों को रोकने के लिए केंद्रीय एजेंसियों और राज्य पुलिस के बीच सहयोग का भी आह्वान किया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा आयोजित आंतरिक सुरक्षा के "चिंतन शिविर" (विचार-मंथन सत्र) को संबोधित कर रहे थे।
पीएम मोदी ने कहा कि “एक राष्ट्र, एक पुलिस के लिए एक वर्दी, सिर्फ एक विचार है। मैं इसे आप पर थोपने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। बस इसे एक विचार दें। यह हो सकता है, यह 5, 50, या 100 वर्षों में हो सकता है। जरा सोचिए।”
प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका मानना है कि देश भर में पुलिस की पहचान एक समान होनी चाहिए।
प्रधानमंत्री जो कह रहे हैं, उसके बारे में सच तो यह है कि, पुलिस के बारे में एक देश एक पुलिस एक वेश की अवधारणा (Concept of one nation one police one disguise) आज से नहीं बल्कि 1861 के पुलिस एक्ट के समय से ही है। पूरे ब्रिटिश भारत की पुलिस, एक ही रंग की वर्दी जो खाकी होती है, उसे ही पहनती है। पुलिस का जो स्वरूप बना था, वह केवल तीन प्रेसीडेंसी शहरों, कलकत्ता, बंबई और मद्रास में कमिश्नर सिस्टम के कारण अलग रहा और शेष भारत की पुलिस एक ही रूप रंग और कानून पर गठित हुई।
शुरू में कैसी थी पुलिस वर्दी
शुरू में पुलिस वर्दी सूती कमीज, पेंट, हाफ पैंट, बूट आदि
पूरे देश में एक सा ही है पुलिस वर्दी का सिस्टम
हाफ पैंट, पीटी परेड के लिए, आज भी लागू है। सूती वर्दी भी बाद में रख रखाव की सुविधा के कारण टेरीकॉट की हो गई, और सूती वर्दी जो, केवल परेड के लिए रखी गई, अब वह भी प्रचलन में नहीं रही।
सूती वर्दी का रखरखाव महंगा होता है और उसमें वह क्रीज आदि नहीं आ पाती है, जो टेरीकॉट की वर्दी में आती है। वर्दी का यह सिस्टम, पूरे देश में एक सा है।
जहां तक रैंकों का प्रश्न है, सिपाही से लेकर डीजी तक, पूरे देश की पुलिस, एक जैसा ही रैंक और बैज धारण करती है, पर उन रैंक और बैज के साथ राज्य पुलिस के लोग राज्य का नाम और टोपी पर राज्य का लोगो धारण करते हैं, जैसे उप्रपु, मप्रपु आदि।
इसी तरह केंद्रीय पुलिस बल, जैसे सीआरपीएफ, बीएसएफ, आईटीबीपी, सीआइएसएफ, एसएसबी आदि की भी वर्दी का रंग खाकी ही है और उनके भी रैंक और बैज, सिपाही से लेकर डीजी तक एक ही प्रकार के हैं।
क्या आम पुलिसकर्मी से अलग होती है आईपीएस अफसरों की वर्दी?
आईपीएस अफसरों की भी वर्दी, सभी पुलिसजन की वर्दियों के समान खाकी है, पर वे राज्य के नाम की जगह, IPS का नाम और टोपी पर IPS का बैज धारण करते हैं।
अपराधों और अपराधियों से निपटने के लिए राज्यों के बीच घनिष्ठ सहयोग की वकालत करते हुए, पीएम ने कहा, “कानून और व्यवस्था अब एक राज्य तक सीमित नहीं है। अपराध अंतरराज्यीय हो रहा है और अंतर्राष्ट्रीय भी। प्रौद्योगिकी के साथ, अपराधियों के पास अब हमारी सीमाओं से परे अपराध करने की शक्ति है। ऐसे में सभी राज्यों और केंद्र की एजेंसियों के बीच समन्वय महत्वपूर्ण है।"
POLNET क्या है?
पीएम का कहना सही है कि, अपराध का स्वरूप, बदला है और वह राज्य और देश की सीमाओं को पार करके अंतर्राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। लेकिन पुलिस भी अपराध के इस बदलते कलेवर के अनुसार बदल रही है। भारत इंटरपोल का सदस्य है और अंतर्देशीय संबंधों और संचार सुविधा के लिए 1980 के दशक से ही पुलिस का अपना संचार तंत्र (Police's own communication system), जिसे POLNET कहा जाता है, का जाल बिछाया जा रहा था। वायरलेस सिस्टम तो आजादी के बाद से ही है, पर जैसे जैसे संचार तकनीकी में बदलाव होते जा रहे हैं, पुलिस का संचार तंत्र भी विकसित और बदलता जा रहा है। अब लगभग सभी राज्यों में पुलिस अफसरों, और हर पदों पर सीयूजी मोबाइल सेवा है और सभी एक दूसरे के साथ जुड़े रहते हैं।
पुलिस बलों में सुधार के लिए एमपीएफ योजना क्या है ?
राज्य पुलिस बलों में सुधार के लिए 1969-70 से केंद्र सरकार द्वारा राज्य पुलिस बलों के आधुनिकीकरण की योजना (एमपीएफ योजना) क्रियान्वित की जा रही है। केंद्रीय गृह मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स/एमएचए) पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (एमपीएफ) योजना को लागू करने हेतु उत्तरदायी है। यह योजना, एक केंद्र प्रायोजित योजना है। जिसके अंतर्गत,
राज्यों को ‘गैर-योजना’ एवं योजना दोनों के अंतर्गत वित्त पोषण के उद्देश्य से दो श्रेणियों, अर्थात् श्रेणी ‘ए’ और श्रेणी ‘बी’ में विभाजित किया गया है। श्रेणी ‘ए’ राज्य, अर्थात् जम्मू-कश्मीर एवं सिक्किम सहित 8 उत्तर पूर्वी राज्य 90:10 के अनुपात में, केंद्र: राज्य के बंटवारे के आधार पर वित्तीय सहायता प्राप्त करने के पात्र होंगे। शेष राज्य ‘बी’ श्रेणी में होंगे एवं 60:40 के केंद्र: राज्य के बंटवारे के आधार पर वित्तीय सहायता के लिए पात्र होंगे। हर साल इस योजना में बजट आता है और वह पुलिस को बेहतर बनाने के लिए व्यय किया जाता है।
जहां तक राज्यों के आपसी संबंधों की बात है, राज्य स्तर पर पड़ोसी राज्यों के पुलिस अधिकारियों के साथ बराबर औपचारिक रूप से, अंतर्राज्यीय बैठकें होती रहती हैं, जिनमें मुख्य रूप से संगठित आपराधिक गिरोहों के विषय में आवश्यक सूचनाओं का आदान प्रदान किया जाता रहता है। अनौपचारिक रूप से तो, थाने से लेकर जिले के एसपी तक आपस में, एक दूसरे के संपर्क में रहते हैं, जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद भी करते हैं।
मैं 1992 से 1995 तक देवरिया में एडिशनल एसपी के पद पर नियुक्त था और पडरौना के बिहार और नेपाल के इलाके में जंगल पार्टी नाम से डकैतों और अपहरणकर्ताओं का एक संगठित गिरोह तब सक्रिय था। उसके बारे में पड़ोसी जिले गोपालगंज और नेपाल का एक जिला था नवल परासी, वहां के पुलिस अफसरों से हमारा नियमित संपर्क था। हम दोनों एक दूसरे की मदद भी करते थे।
प्रधानमंत्री जी का, यह भी कहना उचित है कि, वैज्ञानिक तरीकों का मुकदमों की विवेचनाओं में उपयोग किया जाना चाहिए तो, यह भी किया ही जा रहा है। फिंगर प्रिंट, फोरेंसिक जांच, डॉग स्क्वायड आदि आधुनिक तकनीक का उपयोग, मुकदमे और अपराध की जटिलता के अनुसार होता रहता है, पर जितने मुकदमे दर्ज होते हैं उसकी तुलना में फोरेंसिक प्रयोगशालाएं कम हैं। उनकी संख्या बढ़ाई जाए, उन्हें और आधुनिक बनाया जाय, इसके लिए सरकार का दायित्व है कि वह पुलिस बजट बढ़ाए।
पुलिस बजट को लेकर अक्सर यह कहा जाता है कि, यह एक अनुत्पादक व्यय है, यानी सरकार को इससे कुछ मिलता नहीं है। यह बात सही है कि, यह अनुत्पादक व्यय है पर, यह भी एक तथ्य है कि, उत्पादन के सारे उपादान, कानून और व्यवस्था तथा अपराध से जुड़े हैं। त्वरित और सुबूत सहित विवेचना और पूछताछ के लिए यह जरूरी है कि, इन्हें आधुनिक और वैज्ञानिक उपकरणों से समृद्ध किया जाय, ताकि अदालत में जब मुकदमे जायें तो, वे सुबूत के अभाव के छूटने न पाएं।
यहां एक और महत्वपूर्ण बिंदु है, पुलिस प्रशिक्षण का।
पुलिस प्रशिक्षण के लिए भी पूरे देश में एकरूपता है। पुलिस ड्रिल के लिए पुलिस ड्रिल मैनुअल (पीडीएम) नामक एक निर्देश पुस्तिका है। जिसके अनुसार सिपाही से लेकर आईपीएस तक को एक ही पैटर्न की फिजिकल ट्रेनिंग दी जाती है। मूलतः यह ट्रेनिंग ड्रिल, सेना से ली गई है।
पुलिस की फील्ड क्राफ्ट, टैक्टिक्स, पीटी, इन्फेंट्री ट्रेनिंग, और सब इंस्पेक्टर से लेकर आईपीएस तक की, घुड़सवारी (माउंटेड पुलिस) की ट्रेनिंग दी जाती है। यह तो आउटडोर ट्रेनिंग की बात हुई। ट्रेनिंग का यह सिस्टम पूरे देश में, सभी राज्यों और केंद्रीय पुलिस बलों में एक ही तरह का है। कहीं कहीं आवश्यकतानुसार और फोर्स के उपयोग की जरूरत के अनुसार, ट्रेनिंग कार्यक्रम में, थोड़ा बहुत अंतर होता है, पर मूल ट्रेनिंग का यही स्वरूप है।
गोरे कमेटी क्यों बनी?
भारत सरकार ने पुलिस प्रशिक्षण पर अध्ययन के लिए 1971 में गोरे कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने राज्य पुलिस बलों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों की कमियों और जरूरतों की पहचान की। कुछ सुझाव भी दिए, जैसे- कई वर्षों के अनुभव वाले अधिकारियों की सेवाकालीन शिक्षा जारी रखने की आवश्यकता, प्रशिक्षण को सामाजिक और व्यवहार विज्ञान में बुनियादी ज्ञान और मानवीय संबंधों की गतिशीलता पर जोर, ताकि पुलिस के रवैये और उनके काम के सामुदायिक सेवा पहलुओं में प्रदर्शन में सुधार। इसके अलावा पुलिस प्रशासकों को मानव संसाधन उपयोग सहित समकालीन प्रबंधकीय कौशल में प्रशिक्षित किए जाने से संबंधित है, जिन्हें माना गया।
कमेटी ने कहा, "पुलिस प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य नौकरी में ईमानदारी और समर्पण के लिए, एक प्रेरक वातावरण प्रदान करना चाहिए।"
समिति की सिफारिशों के परिणामस्वरूप प्रशिक्षण की जरूरतों के बारे में बेहतर जागरूकता आई है। कमेटी ने कुल 24 सदर्भों पर, अपनी रिपोर्ट दी थी। वर्तमान प्रशिक्षण पद्धति में, गोरे कमेटी के अनुसार बदलाव किए गए हैं।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि,
“सूरजकुंड में यह चिंतन शिविर सहकारी संघवाद का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। राज्य एक-दूसरे से सीख सकते हैं, एक-दूसरे से प्रेरणा ले सकते हैं और देश की बेहतरी के लिए मिलकर काम कर सकते हैं।”
जब अपराधों पर नज़र रखने की बात आती है, तो प्रौद्योगिकी के महत्व के बारे में बोलते हुए, पीएम ने कहा :
“हमने 5G युग में प्रवेश किया है और इसके साथ, चेहरे की पहचान तकनीक, स्वचालित नंबर प्लेट पहचान तकनीक, ड्रोन और सीसीटीवी तकनीक में कई गुना सुधार होगा। हमें अपराधियों से दस कदम आगे रहना होगा। साइबर अपराध हो या हथियारों या ड्रग्स की तस्करी के लिए ड्रोन तकनीक का उपयोग, हमें ऐसे अपराधों को रोकने के लिए नई तकनीक पर काम करते रहना होगा।"
प्रधानमंत्री ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही, वह यह है,
"पुलिस के बारे में अच्छी धारणा बनाए रखना "बहुत महत्वपूर्ण" है और "यहां गलतियां" दूर की जानी चाहिए।"
प्रधानमंत्री यहां पुलिस की छवि और साख की बात कर रहे हैं और तमाम प्रोफेशनल उपलब्धियों के, पुलिसकर्मियों के अनवरत रूप से, अनुकूल/ प्रतिकूल परिस्थितियों में काम करते रहने के बावजूद, पुलिस की साख क्यों सबसे निचले स्तर पर है, यह सवाल निश्चित रूप से प्रधानमंत्री को भी व्यथित करता होगा और सरकार के प्रमुख होने के नाते उनका दायित्व है कि, वे पुलिस की साख कैसे बचे, इस पर खुद कोई कार्ययोजना लाएं।
पुलिस और आंतरिक चिंतन शिविर में कुछ ठोस बातों पर बात की जानी चाहिए। जैसे जनता पुलिस अनुपात, जनशक्ति की कमी, विशेषकर, सिपाही, सब इंस्पेक्टर और इंस्पेकर स्तर पर, नई नियुक्ति और पुलिस बल में वृद्धि की बात तो फिलहाल छोड़ दीजिए, जो रिक्त पद हैं, उन्हें ही भर दिया जाय तो भी गनीमत है।
पुलिस की भूमिका अब केवल अपराध नियंत्रण तक ही सीमित नहीं रही। जैसे-जैसे आबादी बढ़ रही है, आर्थिक असमानता बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही, कानून और अपने अधिकारों के प्रति जनता की जागरूकता बढ़ रही है, उसे देखते हुए पुलिस के प्रति जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं। जनता की अपेक्षा का सारा बोझ पुलिस थानों पर ही घूम फिर कर आ जाता है, भले ही थाने के ऊपर अधिकारियों की लंबी चौड़ी फौज हो।
नहीं बढ़ रही नीचे के पुलिसकर्मियों की संख्या
एक दिक्कत यह भी है कि, पुलिस में सुपरवाइजरी अफसरों की संख्या तो बढ़ रही है पर उन अफसरों जैसे इंस्पेक्टर और उसके नीचे के पुलिसकर्मियों की संख्या उस गति से नहीं बढ़ रही है, जिस गति से बढ़नी चाहिए, जबकि जनता के संपर्क में सबसे अधिक यही वर्ग रहता है और पुलिसिंग की रीढ़ होता है। सबसे अधिक दबाव भी इसी वर्ग पर पड़ता है। पुलिस की छवि भी इसी वर्ग के प्रोफेशनल चरित्र और कार्यप्रणाली पर निर्भर रहता है। सरकार का ध्यान सबसे अधिक इसी वर्ग की ओर जाना चाहिए।
जनता में पुलिस की अनुकूल छवि और साख कैसे बने?
साख और जनता में अनुकूल छवि बनाने के लिए जरूरी है कि, पुलिस का प्रोफेशनल स्वरूप बनाए रखा जाय और इसके लिए जरूरी है कि, पुलिस का राजनीतिक दांव पेंच के लिए, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, हो रहे इस्तेमाल से, बचा जाय। जरूरत है, पुलिस क, किसी भी तरह की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से दूर रखा जाय। पुलिस उस कानून के प्रति, प्रतिबद्ध है, जिस कानून के अंतर्गत उसका गठन हुआ है और वह कानून को लागू करने, समाज में व्यवस्था बनाए रखने और वह भी, कानून को, कानूनी तरह से लागू कर के ही, के लिए प्रतिबद्ध और शपथबद्ध है। क्या प्रधानमंत्री जी, पुलिस पर राजनीतिक लाभ हानि के लिए किए जा रहे, हस्तक्षेप को रोकने के लिए कदम उठाएंगे?
ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि, इसी सरकार के समय, इस तरह का हस्तक्षेप होता है, बल्कि यह लंबे समय से है और हर राजनीतिक दल इस पाप में भागीदार है। पर जब प्रधानमंत्री जी ने चिंतन शिविर में पुलिस की छवि के बारे में, अपनी बात कही है तो, उनसे यह स्वाभाविक आशा बंधती है कि वे, बेजा राजनीतिक दखलंदाजी रोकने के लिए कुछ न कुछ सार्थक कदम उठाएंगे।
सरकार ने राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की संस्तुतियों को क्यों नहीं माना?
सरकार ने अब तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार, राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की उन संस्तुतियों को नहीं माना, जो बेजा राजनीतिक हस्तक्षेप को रोकती हैं। वे सिफारिशें भी नहीं मानी गई कि, विवेचना और लॉ एंड ऑर्डर को अलग किया जाय।
अभियोजन और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम से जुड़ी अनेक समस्याएं हैं, जिन्हे दूर किया जाना चाहिए। छवि बनती है काम, पारदर्शिता, कानून को कानूनी रूप से लागू करने की मनोवृत्ति, पेशागत ईमानदारी, जनता के प्रति व्यवहार, और बेजा बाहरी हस्तक्षेप के प्रति, विनम्र लेकिन दृढ़ता से 'नहीं' करने की स्पष्ट आदत से। लेकिन आज, जिस तरह से, राज्य पुलिस से लेकर अत्यंत महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, एनआईए, ईडी आदि पर राजनीतिक दखलंदाजी के आरोप लग रहे हैं, वह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम, आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और साख के लिए घातक है। सुप्रीम कोर्ट बराबर इस खतरे को महसूस करते हुए अपनी बात कह रहा है।
राजनैतिक एजेंडा पूरा करने के उपकरण के रूप के तब्दील हो गई हैं जांच एजेंसियां
आज जिला पुलिस की बात छोड़ दें, देश की महत्वपूर्ण जांच एजेंसी, ईडी, सीबीआई भी राजनैतिक एजेंडा को पूरा करने के उपकरण के रूप के तब्दील हो गई हैं। सरकार को इस मनोवृत्ति पर तत्काल अंकुश लगाना होगा और एजेंसियों के राजनैतिक इस्तेमाल को रोकना होगा।
राजनैतिक दलों को, पिक एंड चूज, पद्धति से, अपने-अपने अफसर चुनने की मनोवृत्ति छोड़नी होगी। इसका मनोवैज्ञानिक असर उन अधिकारियों पर बहुत पड़ता है, जो प्रोफेशनल तरह से अपना दायित्व निभाना चाहते हैं। और ऐसे अफसर, संख्या में कम भी नहीं हैं।
पुलिस का काम कठिन, तनावपूर्ण और बहुत ही कृतघ्न है। शायद किसी अन्य पेशे से, इतने कम, संसाधन के साथ, इतनी अधिक अपेक्षा नहीं की जाती होगी।।
राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद के एक अध्ययन ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि "देश के कई पुलिस स्टेशनों में, एक कांस्टेबल को दिन में, कम से कम, 15 से 16 घंटे और वह भी, सप्ताह में सातों दिन काम करना पड़ता है। साथ ही, काम के घंटों, साप्ताहिक छुट्टी, परिवारिक सुख-सुविधा, और अनुशासन के नाम पर अक्सर होने वाले अमानवीय दमन से उन्हें रूबरू होता है।"
विजय शंकर सिंह
© Vijay Shanker Singh
(लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।)
Police Image, Functioning, Chitan Camp and Prime Minister's Speech / Vijay Shankar Singh