स्वतंत्रता के बाद से, भारत में, राजनीतिज्ञों ने मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिये पारंपरिक रूप से मुख्यतः तीन श्रेणियों के मुद्दों का उपयोग किया है - सुरक्षा, धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान व मुसलमानों को देश की समृद्धि में उनका वाजिब हक दिलवाना (To make Muslims get their rightful rights in the prosperity of the country)। हाल में महाराष्ट्र में हुये विधानसभा चुनाव में आल इंडिया मजलिस-इत्तिहादुल-मुसलमीन के उम्मीदवारों की विजय (Victory of All India Majlis-Ittihadul-Muslimeen candidates in Maharashtra assembly elections) ने यह साबित किया है कि एक चौथे मुद्दे का उपयोग भी मुस्लिम मतों को पाने के लिये किया जा सकता है और वह है, हिन्दू राष्ट्रवादियों का मुकाबला करने के लिये धार्मिक आधार पर एक होना।
अलग-अलग समय पर इन मुद्दों का उपयोग, बदलती हुई रणनीतियों के तहत किया जाता रहा है। ये हैं 1. चुनावी राजनीति से दूरी बनाना 2. उन राजनैतिक पार्टियों की सदस्यता लेना, जिनमें मुसलमानों का बहुमत नहीं है व 3. मुसलमानों की अपनी राजनैतिक पार्टियाँ बनाना।
पाकिस्तान में बसने के लिये भारत छोड़ने से पहले, मौलाना मौदूदी ने कहा था कि यदि भारत के मुसलमान अपने अधिकारों पर जोर देंगे तो उनके प्रति हिन्दुओं का पूर्वाग्रह बढ़ेगा। अतः, उनकी यह सलाह थी कि मुसलमानों को सरकार और प्रशासन से दूर ही रहना चाहिए ताकि हिन्दू राष्ट्रवादी आश्वस्त रहें कि उनके मुकाबिल मुस्लिम राष्ट्रवादी ताकतें लामबंद नहीं हो रही हैं।
मौलाना के अनुसार, यही वह एकमात्र रास्ता था जिसके जरिए मुसलमान, इस्लाम के संबंध में बहुसंख्यक समुदाय के पूर्वाग्रहों को दूर करने में सफल हो सकते थे।
साम्प्रदायिक राष्ट्रवादियों की दृष्टि में समाज में या तो किसी सम्प्रदाय का वर्चस्व हो सकता है या वह पराधीन हो सकता है। उन्हें बीच का यह रास्ता दिखता ही नहीं है कि दो समुदायों के सदस्य, मिलजुलकर, शांतिपूर्वक रह भी
मौलाना मौदूदी के पाकिस्तान जाने के बाद, उनके द्वारा स्थापित जमायते इस्लामी ने चुनावी राजनीति में भाग नहीं लिया। परंतु मौलाना की सलाह उन मुसलमानों के लिये किसी काम की नहीं थी जो कि अपनी रोजाना की ज़िन्दगी की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगे हुये थे।
देवबंदी उलेमाओं के संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिन्द ने हमेशा पाकिस्तान का विरोध किया (Jamiat Ulema-e-Hind, the organization of the Deobandi Ulema, always opposed Pakistan)। जमात ने कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन का इस उम्मीद में समर्थन किया कि स्वाधीन भारत में मुसलमानों को उनके धर्म का पालन करने की आजादी होगी और उनके पर्सनल लॉ से कोई छेड़छाड़ नहीं की जायेगी। जमीयत का यह मानना था कि मुस्लिम सांस्कृतिक पहचान के लिये, गैर-मुस्लिम साथी देशवासी उतना बड़ा खतरा नहीं हैं जितने कि अंग्रेज। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद में आस्था ने जमीयत को यह विश्वास करने का और मजबूत आधार दिया। राजनैतिक व्यवस्था में मुस्लिम समुदाय को उसका वाजिब हिस्सा दिलवाने में जमीयत की कोई रूचि नहीं थी। उसकी रूचि केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ को संरक्षित रखने में थी।
दूसरी ओर, जिन्ना और अन्य मुस्लिम राष्ट्रवादियों का लक्ष्य मुसलमानों को सत्ता में उनका वाजिब हक दिलवाना था और वे आधुनिक विचारों का स्वागत करते थे। जहाँ देवबंदी उलेमा मुसलमानों की एक विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान बनाना और उसकी रक्षा के लिये समुदाय को एक रखना चाहते थे, वहीं जिन्ना और मुस्लिम राष्ट्रवादी, मुसलमानों को एक अलग राजनैतिक समुदाय और अलग राष्ट्र मानते थे।
भारत के स्वतंत्र होने के बाद, जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आजाद जैसे लोगों के सत्तासीन होने के कारण मुसलमान अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त थे। वैसे भी, विभाजन के दौर में हुये दंगे शांत होने के बाद से, सुरक्षा, मुस्लिम नेताओं के लिये चिंता का कोई बड़ा मुद्दा नहीं थी। उस समय जोर इस बात पर था कि अल्पसंख्यक तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब उन्हें बहुसंख्यकों का सद्भाव हासिल हो। जो मुसलमान भारत में रह गए थे, उनमें मुख्यतः कारीगर, मजदूर, भूमिहीन किसान और पिछड़ी जातियां थीं और उनके लिये यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्रों में अपने वाजिब हिस्से की मांग उठा सकते हैं। जमीयत और मुस्लिम राजनैतिक नेताओं ने मुसलमानों को उनकी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे को लेकर कांग्रेस का साथ देने के लिये राजी कर लिया।
इस मुद्दे के तीन भाग थे - पहला यह कि भारतीय राज्य, मुस्लिम पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप नहीं करेगा, दूसरा, उर्दू भाषा को प्रोत्साहन देने के प्रयास किए जाएंगे और तीसरा, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी (Aligarh Muslim University's minority character will not be tampered)। सन् 1990 के दशक में इस सूची में एक और मुद्दा जुड़ गया और वह था बाबरी मस्जिद की रक्षा का-जिसे अंततः सन् 1992 में ढहा दिया गया।
मुस्लिम नेतृत्व, समुदाय की शैक्षणिक और आर्थिक उन्नति के लिये कुछ भी करने का इच्छुक नहीं था। वह केवल मुसलमानों की धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रखना चाहता था और इसके लिये वह समुदाय के गौरवपूर्ण अतीत का गुणगान करता रहता था। इसमें शामिल था भारत को महान बनाने में मुस्लिम शासकों का योगदान, ताजमहल जैसी इमारतें और स्वाधीनता संग्राम में समुदाय की हिस्सेदारी।
नेतृत्व के सामने एक चुनौती यह थी कि मुस्लिम समुदाय अत्यंत विविधतापूर्ण था। इसमें अनेक पंथ और बिरादरियाँ थीं। इसके अतिरिक्त, भाषाई, सांस्कृतिक व नस्लीय अंतर भी थे और कई अलग-अलग परंपराएँ और रीतिरिवाज भी।
कांग्रेस के भीतर का मुस्लिम नेतृत्व इस तथ्य पर ध्यान नहीं दे रहा था कि मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच के सांस्कृतिक अंतर पर जोर देने और मुसलमानों की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान का निर्माण करने की कोशिश से, हिन्दू राष्ट्रवादी मजबूत हो रहे थे। उस समय महात्मा गांधी की हत्या में उनका हाथ होने और स्वाधीनता संग्राम में हिस्सेदारी न करने के कारण, हिन्दू राष्ट्रवादी समाज के हाशिए पर थे। वे शनैः-शनैः आमजनों के बीच यह प्रचार करने लगे कि मुसलमानों द्वारा अपनी विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को मजबूती देने से अलगवावादी प्रवृत्ति बढ़ेगी। जबकि तथ्य यह है कि धार्मिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के आश्वासन ने ही देवबंदी उलेमाओं को मिले-जुले भारतीय राष्ट्रवाद की ओर आकर्षित किया था और उन्हें विभाजन व मुस्लिम लीग के साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का विरोध करने के लिये प्रेरित किया था।
देवबंदी उलेमाओं का प्रयास यह था कि वे संस्कृति का इस्तेमाल एक धार्मिक समुदाय को राजनैतिक समुदाय के रूप में पुनर्परिभाषित करने के लिये करें और राजनैतिक व्यवस्था में अपना वाजिब हक माँगें।
हिन्दू राष्ट्रवादियों ने मुसलमानों का दानवीकरण शुरू कर दिया। वे कहने लगे कि मुसलमान, मूलतः अलगाववादी हैं, वे पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं और बहुपत्नी प्रथा का इस्तेमाल कर अपनी आबादी को इतना बढ़ा लेना चाहते हैं कि उनकी संख्या हिन्दुओं से अधिक हो जाए और वे भारत को इस्लामिक राज्य में बदल सकें। कांग्रेस इस बेजा प्रचार का मुकाबला करने की अनिच्छुक व इसमें असमर्थ थी। बल्कि कांग्रेस को लगता था कि अगर मुसलमान असुरक्षित महसूस करेंगे तो वे मजबूर होकर उसके साथ जुड़ेंगे।
कांग्रेस ने मुसलमानों को शिक्षा, बैंक कर्जों, सार्वजनिक नियोजन, सरकारी ठेकों इत्यादि में बराबरी के अवसर दिलवाने के लिये कोई प्रयास नहीं किए और ना ही यह कोशिश की कि सरकारी कल्याणकारी योजनाओं के लाभ मुसलमानों तक पहुंचें। इस दिशा में पहली बार कुछ अनमने से प्रयास सन् 2006 में सच्चर समिति की रपट आने के बाद किए गए और इन प्रयासों का मुख्य लक्ष्य भी प्रचार पाना था। नौकरशाहों ने मुसलमानों के लिये बनाई गई विशेष कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में पर्याप्त दिलचस्पी नहीं दिखाई और मुसलमानों को बहुत कम वास्तविक लाभ मिला।
सन् 1961 के जबलपुर दंगों ने पहली बार मुसलमानों की कांग्रेस के प्रति आस्था को झकझोरा। नेहरू के हस्तक्षेप के बाद भी मुसलमानों के खिलाफ हिंसा जारी रही। उस मुस्लिम नेतृत्व, जो अपनी विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान बनाने की कोशिशों में लगा हुआ था, के लिये जबलपुर दंगे एक चेतावनी थे। परंतु उन्होंने उसे नजरअंदाज कर दिया।
सन् 1952 के चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को, बिहार, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और संपूर्ण भारत में मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले मतों का क्रमश: 64, 72, 56 व 57 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त हुआ। सन् 1957 के चुनाव में कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवारों को इन्हीं राज्यों व संपूर्ण भारत में सभी मुस्लिम उम्मीदवारों को मिले मतों के क्रमश: 65, 58, 51 व 52 प्रतिशत मत प्राप्त हुये। सन् 1962 में यह प्रतिशत क्रमश: 52, 47, 52 व 52 रह गया। सन् 1967 में कांग्रेस को मिलने वाले मुसलमानों के मतों में भारी कमी आई और इन तीन राज्यों और संपूर्ण भारत में क्रमश: उसे केवल 39, 36, 47 और 40 प्रतिशत मत प्राप्त हुये।
सन् 1960 के दशक के अंत में देश में कांग्रेस के विरूद्ध वातावरण था और इसका असर मुसलमानों पर भी पड़ा। जैसा कि आंकड़ों से स्पष्ट है, खासी मुस्लिम आबादी वाले इन तीन राज्यों में मुसलमानों में कांग्रेस की पैठ तेजी से कम हुई।
मुसलमान बहुत तेजी से कांग्रेस से दूर खिसकने लगे क्योंकि पार्टी उन्हें सुरक्षा प्रदान करने में तो असफल रही ही थी, शासन व्यवस्था और आर्थिक संपन्नता में भी उन्हें उनका वाजिब हक नहीं दिलवा सकी थी। कांग्रेस का जोर केवल उनकी विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने पर था, जिसकी मांग पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले देवबंदी उलेमा करते थे। धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने के बदले, राजनैतिक समर्थन पाने की कोशिशों के उदाहरण थे सलमान रूशदी के उपन्यास ‘सेटेनिक वर्सेस‘ पर रोक और शाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिये नए कानून का निर्माण आदि।
सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद, मुसलमानों का कांग्रेस से पूरी तरह मोहभंग हो गया। इस घटना से मुसलमानों को यह लगने लगा कि कांग्रेस उनकी विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने में भी सक्षम नहीं है।
पिछड़े मुसलमान
जहाँ देववंदी उलेमाओं के लिये मुसलमानों की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान का मुद्दा केवल मुस्लिम पर्सनल लॉ, उर्दू व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इर्दगिर्द घूमता था, वहीं पिछड़े मुसलमानों, जो कि कुल आबादी के 85 फीसदी से ज्यादा थे, की सांस्कृतिक पहचान की परिभाषा भिन्न थी। वे जातिगत ऊँचनीच और भेदभाव का सामना कर रहे थे। जहाँ इस्लाम उन्हें समान दर्जा और न्याय का वायदा करता था वहीं अशरफ मुसलमान-जो कि या तो ऊँची जातियों के हिंदुओं से धर्मपरिवर्तन कर मुसलमान बने थे या दावा करते थे कि उनकी रगों में बादशाहों का खून बह रहा है-पिछड़े मुसलमानों को अपने बराबर दर्जा देने के लिये तैयार नहीं थे।
अजलफ (नीची जातियों से धर्मपरिवर्तन कर बने मुसलमान) जिन्हें पसमांदा भी कहा जाता है, सांस्कृतिक दृष्टि से स्वयं को हिंदू नीची जातियों के सदस्यों के अधिक नजदीक पाते थे। उन्हें इस्लाम और बिरादरी की संस्कृति, दोनों विरासत में प्राप्त हुये थे।
पसमांदाओं को लामबंद करने के लिये सामाजिक न्याय और सामाजिक समावेश के मुद्दों का इस्तेमाल किया गया। पिछड़े मुसलमानों को उर्दू से कोई विशेष प्रेम नहीं था और ना ही उन्हें दूरदराज स्थित एक विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से कोई लेना-देना था, विशेषकर तब, जबकि उनके बच्चों के लिये पड़ोस के स्कूल में दाखिला पाना भी एक संघर्ष था। उन्हें वहाबी-देववंदी परिवार संहिता से भी कोई मतलब नहीं था। उनका जोर इस बात पर था कि उन्हें दो वक्त की रोटी मिल सके और उनके बच्चे पढ़ लिख सकें।
दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु और कर्नाटक व तेलगांना के ग्रामीण इलाकों में, मुसलमान अपनी द्रविड़ पहचान और सामाजिक न्याय के आंदोलनों से अधिक जुड़े हुये थे।
सुरक्षा का मुद्दा
सन् 1990 के दशक में सुरक्षा का मुद्दा, धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बन गया। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल मुसलमानों को यह आश्वासन देकर अपनी ओर खींचने में सफल रहे कि वे उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।
यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि मुस्लिम राजनैतिक नेतृत्व ने उच्चतम न्यायालय के उन कई फैसलों पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कि जिनके द्वारा मुसलमानों के धार्मिक-सांस्कृतिक चरित्र पर अतिक्रमण किया जा रहा था। उदाहरणार्थ, सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का कोई विरोध नहीं हुआ कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना राज्य द्वारा की गई है और इसलिये उसे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं माना जा सकता।
मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986, जिसे संसद ने शाहबानो प्रकरण में निर्णय को पलटने के लिये बनाया था, की उच्चतम न्यायालय ने इस तरह व्याख्या की कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं का अपने पूर्व पतियों से मुआवजा पाने का अधिकार और मजबूत हो गया। इस निर्णय का भी कोई विरोध नहीं हुआ।
ऐसे अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक मुद्दे हैं, जिनमें राज्य या न्यायालयों द्वारा हस्तक्षेप किया गया परंतु उन देववंदी उलेमाओं व अन्यों ने उनका कोई विरोध नहीं किया, जो ये दावा करते थे कि वे मुसलमानों की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करेंगे।
उत्तरप्रदेश में मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में भी सांप्रदायिक दंगों की संख्या और उनकी भयावहता में जबरदस्त गिरावट आयी। परंतु समाजवादी पार्टी व राजद दोनों ने ही पूरे मुस्लिम समुदाय के प्रवक्ता के रूप में केवल अशरफ नेतृत्व को गले लगाना ही बेहतर समझा। उनकी निगाहों में मुसलमान एकसार धार्मिक-सांस्कृतिक समुदाय थे। यह धारणा उनके द्वारा प्रस्तावित एम-वाय गठजोड़ से भी जाहिर होती है। मुलायम सिंह यादव ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी थी कि स्कूलों के मुस्लिम विद्यार्थियों को रविवार की जगह शुक्रवार को साप्ताहिक अवकाश मिला करेगा। परंतु इस निर्णय का मुसलमानों द्वारा ही इतना विरोध किया गया कि उसे वापस लेना पड़ा।
अगले अंक में जारी...
इरफान इंजीनियर
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)