भारत में औद्योगीकरण (Industrialization in India) अभी तक भारतीय समाज में वर्गीकृत (क्लासिफाइड) मजदूर (Classified labor) की रूप रेखा तैयार नहीं कर पाया है। हमेशा से यह देश व्यापक रूप में कृषि प्रधान माना जाता रहा है। दुनिया के बदलते स्वरूप में ब्रिटिश एम्पायर ने यहाँ के छोटे मोटे घरेलू उद्योगों को नष्ट कर बड़े उद्योगों की स्थापनाओं (Establishments of large industries) की नींव डाली, फिर भी यहाँ के गाँव लगभग पूरी तरह इससे अछूते रहे। यह मुख्य रूप से बड़े शहरों या ट्रेड सेंटरों को ही प्रभावित कर पाया था या जहां पर बड़ी कंपनियां स्थापित की गयीं उन जगहों ने बड़े शहरों का रूप धारण कर लिया। यहाँ का किसान अपनी जमीन को माँ की दृष्टि से देखता रहा है जिसके कारण उसे अपनी जमीन छोड़कर किसी हालत में बाहर जाना मंजूर नहीं था। गांवों में रहने वाले लोग खेती पर आधारित थे और कुशल कारीगर के रूप में अपने आप को विकसित कर पाए थे, इसीलिए गांवों में किसानों मजदूरों के आपसी खट्टे मीठे संबंध बने रहे और यह देश गांवों का देश जाना जाता रहा है।
जब हम किसान मजदूर की बात करते हैं तब इस बात को भलीभाँति समझना चाहिए कि किसान मजदूर के बीच के संबंध अभी भी अटूट बने हुए हैं और आज जब हम एक महामारी के दौर से गुजर रहे हैं तब ये जरूरी हो गया है कि फिर से रुक कर इसका व्यापक विश्लेषण किया जाए।
मुझे स्मरण है कि देश के जाने माने मजदूर एवं सोशलिस्ट नेता रमाकांत पांडेय ने एक बैठक का जिक्र करते हुए कहा था कि (ऑल इंडिया फर्टिलाइजर
जिसके उत्तर में उन्होंने कहा कि एक सौ एकड़ से अधिक के किसानों को।
जिस पर प्रताप नारायण सिंह श्रीवास्तव ने बात स्पष्ट की कि भारत में सौ एकड़ से अधिक का किसान की बात तो दूर की है, यहाँ तो दस एकड़ वाले भी किसान गिनती के हैं। मतलब कि बहुत छोटे-छोटे किसान हैं। जिनके पास जमीनें ज्यादा हैं वो असिंचित हैं।
यहाँ हुए पूरे संवाद पर हम नजर डालते हैं तो इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत की सरकार लगातार विश्व बैंक के दबाव में पुरजोर कोशिश करती रही है और कर रही है कि किसानों की सब्सिडी कम की जानी चाहिए या खत्म कर दी जानी चाहिए और इसी उद्देश्य को साधने के लिए ही कुछ कॉरपोरेट मीडिया एवं समाज के अभिजात्य वर्गों द्वारा समय- समय पर किसानों को कर्जखोर, अकर्मण्य एवं तमाम अभद्र शब्दों द्वारा नवाजा जाता रहा है। यह अकारण ही नहीं है। इसके पीछे जनता द्वारा दिए गए टैक्स (जिसमें भारी हिस्सेदारी किसानों-मजदूरों की है ) का बहुत ही मामूली हिस्सा सब्सिडी के रूप में दिया जाना कॉरपोरेट या अभिजात्य वर्ग को मंजूर नहीं है। इसीलिए लाखों करोड़ रुपये उद्योगपतियों के माफ किये जाते हैं या (धोखे वाला शब्द) राइटऑफ किया जाता है जिसकी चर्चा जनता तक नहीं पहुंचती और न ही पहुंचने दी जाती है। साथ ही किसानों के दोहन के लिए कंपनियों के हित में कानून (Law in the interest of companies) बना दिए जाते हैं। करोड़ों किसानों का कभी-कभी ही टोकन के रूप में कुछ ही कर्जे की माफी की जाती है तो कॉरपोरेट के पेट में दर्द पैदा हो जाता है। एक शेर है “हम आह भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो कत्ल करते हैं और चर्चा नहीं होता”।
हमने खेती-किसानी और किसान को विगत लंबें अरसे से बहुत नजदीक से देखने की कोशिश की और जवाहरलाल नेहरू, सहजानन्द सरस्वती एवं अन्य बहुत सारे किसान नेताओं के अनुभवों के माध्यम से जाना और समझा, तो साफ-साफ ये बातें उभर के आई कि किसानों के साथ न्याय नहीं किया गया (Farmers were not judged) और न्याय उनके लिए सिर्फ और सिर्फ धोखे की बात थी।
आज देश के कोने-कोने से मजदूर कामगार मेहनतकश और तमाम तरह से रोजी रोटी के इंतजाम में शहरों में आए लोगों का कोरोना महामारी जैसी विषम परिस्थितियां पैदा होने पर गाँव भाग कर जाने के लिए मजबूर होना यह दर्शाता है कि इनका संबंध अभी भी निश्चित रूप से खेती किसानी और किसान से है और इसलिए अब जरूरी हो जाता है कि उस रिश्ते को सही तरीके से समझा जाए।
यदि आप आज एक किसान को समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि पूंजीवाद का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव किसानों पर ही पड़ा क्योंकि 25 से 30 वर्ष पहले तेजी से जिनका पलायन हुआ था उनमे बड़ी संख्या में छोटे, लघु एवं सीमांत किसान ही थे और आगे चलकर नाम के लिए बचे इने-गिने बड़े किसानों की स्थिति भी ऐसी नहीं रही कि उनके बच्चों को अब खेती पर आश्रित रहकर भोजन मिल सकेगा क्योंकि सरकारों की किसान विरोधी नीतियों ने उनको ऐसी परिस्थिति में डाल दिया है कि खेती में लगी लागत ही वापस होना मुश्किल होता गया। अब तो ठीक इसके उलट है कि किसानों के बेटे बाहर जाकर मेहनत मजदूरी करके कुछ पैसे बचा कर घर भेजते हैं तो अन्य कार्यों के साथ खेती का भी काम भी हो पाता है अन्यथा जिनके पास इस किस्म का सहारा नहीं है वे कर्ज में डूबे हुए हैं और आत्महत्याएं भी कर रहे हैं।
रामचन्द्र गुहा ने भारत में पूंजीवादी नीतियों का विश्लेषण (Analysis of capitalist policies in India by Ramchandra Guha) करते अपनी पुस्तक “भारत, नेहरू के बाद” में यह उल्लेख किया कि देश में पहली बार किसान आत्महत्या की खबर 1995-96 में आई जिसकी संख्या 2005 आते-आते 1 लाख तक पहुँच गयी थी। आत्महत्याओं का सिलसिला आज भी जारी है।
आज तक उपलब्ध आकड़ों में वर्ष 1995 से लेकर 2018 तक भारत में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है जबकि विश्व में श्रमजीवी लोगों द्वारा इतने बड़े पैमाने पर आत्महत्याओं की कोई घटना सामने नहीं आई है। इसमें यह भी देखा गया है कि सबसे ज्यादा दुर्दशा नकदी फसल लगाने वाले और प्रगतिशील खेती करने वाले किसानों की हुई। अत्यधिक लागत लगने के बाद भी यदि प्याज एक रुपये किलो बेचना पड़ता है, आलू सड़कों पर फेंक देना पड़ता है, गन्ना खेत में जला दिया जाता है तब कर्ज में डूबा किसान हताश होकर आत्महत्या जैसे दुस्साहसी कदम उठाता है लेकिन तब भी सरकारों की चिंता कॉरपोरेट को बचाने की होती है। किसानों को सिर्फ झूठी तसल्ली दिलाना उनका पेशा हो गया है।
आंकड़ों के मुताबिक जिन इलाकों में पलायन सबसे ज्यादा हुआ, और आज के हालात में मेहनतकश वापस घर आए, वे यही इलाके हैं जो ट्रेड सेंटरों से बहुत दूर हैं। अब किसानों की जद्दोजहद अपनी जमीन बचाने की है जिसके लिए वो लगातार जूझ रहा है।
इस महामारी में लोगों की लाख कोशिशों के बाद भी मोदी जी ने सीधे-सीधे कोरोना में फंसे लोगों की कोई आर्थिक मदद नहीं नहीं की बल्कि इसमें भी 68 हजार करोड़ रुपये राइट ऑफ कर अपने कुछ चेलों को बचाया और 20 लाख करोड़ के पैकेज का नाटक किया। उसमें पहले से तय योजनाओं का धन था जिसमें से एक पैसा भी इन मजदूरों किसानों के हाथ में नहीं जाने वाला था। यह महामारी लोगों के नफा नुकसान का मामला हो सकता है तथा देश की सरकार के लिए एक अवसर भी हो सकती है लेकिन किसानों के लिए यह “आपदा का पहाड़” साबित होगा। इसके पीछे कारण यह है कि जो किसान अपने सभी खर्चों जैसे बच्चों की फीस, शादी अन्य पारिवारिक एवं सामाजिक कार्य के लिए खेती के भरोसे था वह अब या तो अपनी जमीन बेचे या गिरवी रखे। जिन किसानों के बच्चों का सामान्य स्थिति में कृषि कार्यों में काम नहीं चल सकता था और वे घर छोड़कर बाहर गए जबकि यह तय ही था कि ये बच्चे, मजदूर मेहनतकश के रूप में या कामगार के रूप में उन जगहों पर नहीं रह सकते थे क्योंकि देश की पूंजीवादी आर्थिक नीतियों ने पहले ही उन्हें उजाड़ दिया था और एक कुत्सित प्रयास द्वारा सामाजिक विभाजन भी कर दिया था जिसके कारण राज्य सरकारों व देश की सरकार के लिए उनसे जुड़े आर्थिक मुद्दे बाहर हो चुके थे। आज बदली हुई परिस्थितियों में बरसों बाद ये बच्चे पुनः उसी खेती के भरोसे हैं। उन बच्चों का बोझ वो किसान कैसे उठा पाएगा जबकि उन बच्चों का सहारा वो किसान नहीं बल्कि किसान का सहारा वे बच्चे बन गए थे। आज की परिस्थिति में इसका सही विश्लेषण जरूरी है।
अब तो ये विचार करना ही पड़ेगा कि ये देश की सरकार और प्रदेश की सरकारें आने वाले राज्यों के चुनावों में इन किसानों और किसानों के बच्चों को (जो कामगार के रूप में दिखाई देते हैं और जिन्हे ‘माईग्रेंट’ बनाए रखने की कोशिश की जाती रही है) उन्हें क्या आश्वासन देंगे।
एक वीडिओ क्लिप के माध्यम से बिहार के एक नौजवान मजदूर ने घर वापस जाते समय यह बात कही थी कि अब हम वापस नहीं आएंगे और हम सभी लोगों को लेकर गांधी मैदान में बैठेंगे और सरकार से कहेंगे कि हमें यहीं काम दे।
मुझे लगता है कि इस किस्म की हजारों वीडियो क्लिप होंगी जो नवजवान सोचते होंगे। आज की परिस्थितियों को देखा जाए तो जिस तरह से कोरोना के बारे में खबरें आ रही हैं और जिस तेजी से इसका प्रभाव बढ़ रहा है इसमें किसानों पर पहाड़ जैसे इस संकट के खत्म होने का आसार नहीं दिख रहे हैं। और देश की सरकार इस बात पर आमादा है कि सिर्फ और सिर्फ कुछ उद्योगपतियों के हित के लिए समर्पित है, तो यह वापस गए मेहनतकश, कामगार, नवजवानों किसानों के सामने यह देश और परदेश की सरकारें स्वयं एक चुनौती के रूप में खड़ी हैं।
आज जब मोदी जी के लेफ्टिनेंट अमित शाह (Modi ji's lieutenant Amit Shah) सैकड़ों करोड़ रुपये लगा कर वर्चुअल मीटिंग (Virtual meeting) कर रहे हैं और वहाँ भी लगता है कि मोदी जी ने इन्हें सही आँकड़े नहीं बताए इसीलिए घबराहट में इक्यावन करोड़ खातों में करोड़ों रुपये डालने का मनचाहा सा बयान देकर जनता के सामने एक बहुत बड़ी धोखाधड़ी के नमूने पेश कर रहे हैं।
अगर देश में इक्यावन करोड़ खाते में करोड़ों रुपये चले गए होते तो सड़कों पर मजदूर गिरते पड़ते हालत में नहीं दिखाई देते।
देश की और प्रदेश की सरकारों को जाति-संप्रदाय की राजनीति छोड़ तथा इने गिने पूँजीपतियों की मुट्ठी से बाहर आकर बदली हुई परिस्थिति में किसानों और घर वापस आए बच्चों के लिए बन रहे नए विपरीत हालात के बारे में सोचना जरूरी है। सीधे-सीधे लगातार आर्थिक मदद देने के साथ-साथ पूंजी का विकेंद्रीकरण करते हुए जिस तरह से सन 1969 में पूंजी का अधिग्रहण जनता के हित में किया गया था वह पुनः (जो देश की ही पूंजी है ) चंद लोगों की मुट्ठी में एकत्रित हुई है, उसे सीधे अधिग्रहण कर लोगों के रोजगार के लिए तथा किसानों के हित में उसे उपयोग में लाकर ही देश की समृद्धि को आगे बढ़ाया जा सकता है। अन्यथा जो नई परिस्थिति आगे बन रही हैं उसे सहज रूप से नहीं देखा जा सकता।