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लखनऊ, 25 अप्रैल 2019। जयपुर सेंट्रल जेल (Jaipur Central Jail) में साम्प्रदायिक आधार पर जेल प्रशासन द्वारा बंदियों के साथ की गयी मारपीट के बाद तिहाड़ जेल में मुस्लिम कैदी साबिर की पीठ पर “ऊं” का टैटू (Tattoo of "OM" on the back of a Muslim prisoner Sabir) बनाए जाने जैसी घटनाएं साफ करती हैं कि जेलों में ऐसे हमले संगठित रूप से करवाए जा रहे हैं।

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रिहाई मंच अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब ने कहा कि जेलों में एक के बाद एक हो रही आपराधिक घटनाएं स्तब्ध कर देने वाली हैं। विभिन्न सरकारों के कार्यकाल में साम्प्रदायिक आधार पर जेलों में मारपीट और हत्याओं तक की घटनाएं हुई हैं लेकिन ऐसा पहली बार है कि खुले रूप में और उच्चतम स्तर पर ऐसी घटनाएं कराई जा रही हैं। साबिर के बाएं कंधे के पीछे करीब पांच इंच का ऊं का टैटू बनाया गया है।

उन्होंने बताया कि साबिर ने कड़कड़डूमा कोर्ट में इसकी शिकायत करते हुए बताया कि जेल न० 4 के सुपरिंटेंडेंट ने कुछ लोगों के साथ मिलकर पहले उसकी पिटाई की फिर किसी गर्म चीज से दाग़ कर पीठ पर टैटू बनवाया। उन्होंने कहा कि जेल प्रशासन का केवल साम्प्रदायीकरण ही नहीं हुआ है बल्कि नियम कानून ताक पर रखकर हिंसक घटनाओं के दोषी अधिकारियों का राजनीतिक स्तर पर संरक्षण भी किया जाता रहा है। इससे आपराधिक मानसिकता के साम्प्रदायिक अधिकारियों को शह मिलती है।

रिहाई मंच नेता ने कहा कि अदालतें न्यायिक अभिरक्षा में विचाराधीन या सज़ायाफता कैदियों के अधिकारों की रक्षा करने में बुरी तरह नाकाम रही हैं और कई मामलों में तो वह खुद भी आपराधिक प्रवृत्ति के अधिकारियों के साथ खड़ी दिखी हैं। ऐसे में एक बार फिर

यह सवाल प्रासंगिक है कि क्यों न पुलिस विभाग से इतर किसी जांच एजेंसी का गठन किया जाए जो ऐसे मामलों की निष्पक्ष जांच कर पीड़ितों को न्याय दिला सके।

मुहम्मद शुऐब ने कहा कि एक तरफ हेमंत करकरे (Hemant Karkare) जैसे जांबाज़ देश के लिए अपने प्राणों की कुर्बानी देते हैं तो दूसरी तरफ बीमारी का स्वांग रचकर ज़मानत हासिल करने वाली आतंक की आरोपी प्रज्ञा ठाकुर (Pragya Thakur) को सत्ताधारी दल द्वारा लोकसभा का प्रत्याशी बनाया जाता है। वह खुले आम अशोक चक्र विजेता हेमंत करकरे के खिलाफ ज़हर उगलती है लेकिन अदालतें उसका संज्ञान लेने में अपने को असमर्थ पाती हैं और न ही भाजपा उसकी उम्मीदवारी पर पुनर्विचार करती है।

उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिक या जातीय आधार पर राजनीतिक भेदभाव, अपराधियों को संरक्षण और न्यायालयों में सरकारी पक्ष रखने वाले प्रतिनिधियों के जरिये अदालती फैसलों को प्रभावित करने या मनमर्जी के फैसले हासिल कर लेने का खेल शिखर पर है और जिसने पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। समय रहते अगर चेता न गया तो संविधान बचेगा ना लोकतंत्र। दोनों को बचाने का रास्ता ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगने से ही होकर जाता है।

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