कोरोना के कारण सबसे ज्यादा मार रोजगार पर पड़ी है। खास कर रोज कमाने खाने वालों पर। बात यहां तक आ पहुंची है कि समाधान, आत्महत्या में दिख रहा है। बेरोजगारी के ताजे आंकड़े (Fresh unemployment statistics) पर गौर करें तो स्थिति सुधरती नहीं दिख रही। जुलाई के सापेक्ष अगस्त माह में शहरी क्षेत्र की बेरोजगारी दर 9.15 से बढ़कर 9.83 प्रतिशत हो गयी है। कृषि क्षेत्र में फिलहाल काम नहीं है। बुआई के बाद खाली खेतिहर मजदूर अब शहर आयेगा। जो, ट्रेन,बस के न चलने से रूके हैं।
सीएमआईई के मुताबिक सितंबर तक हालात ऐसे ही रहेगें। उसके बाद ही स्थिति कुछ साफ होगी।
चिंता आत्महत्याओं के बढ़ते मामलों को लेकर है। 18 वर्ष से लेकर 45 वर्ष की आयु वर्ग में आत्महत्याओं के मामले 60 प्रतिशत हैं। किसानों को पीछे छोड़कर कामगार यहां पहले पायदान पर आ गया है। नये आंकड़े बहुत डराने वाले हैं। कामगार, उद्यमी, पत्नियों, बेरोजगारों की आत्महत्याओं के मामलें में हिस्सेदारी 71 फीसद तक हो गयी है। जो किसी भी समाज,देश के हित में नहीं है। इससे सामाजिक, आर्थिक अव्यवस्था फैल सकती है।
दिल्ली के दो सगे ज्वैलर्स कारोबारी भाईयों ने आत्महत्या कर ली। वजह, आर्थिक है। अभी हाल ही में बनारस के एक परिवार ने सामूहिक आत्महत्या कर ली, जिसके सुसाइड नोट में बच्चों ने अपने पिता से कहा कि- “पापा! पहले हमें नींद की गोली खिला देना फिर सो जाने पर हमारा गला दबा देना।“ ये अपने आप में सब कुछ बयां कर देता है।
ये तुलस्यान परिवार दिहाड़ी मजदूर नहीं था। व्यवसायी था। ऐसा ही वाकया लखनऊ के विवेक शुक्ला के परिवार का है। जिन्होंने अपने पत्नी और तीन बच्चों सहित आत्महत्या कर ली। इन सबका एक ही कारण है, माली
सरकार भले अपील करती रही कि लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों को पगार देते रहें। फीस, स्कूल न मांगे। मगर हकीकत इसके जुदा रही। यहां तक कि ऑनलाइन क्लास शुरू होने के बाद किसी भी नेट प्रोवाइडर कंपनी ने बच्चों की पढ़ाई के नाम पर कोई स्पेशल नेट पैक तो छोड़िये उसमें एकाध दिन की छूट तक नहीं दी।
दिहाड़ी मजदूर, स्थायी नौकरी के छूटने से बेरोजगार परिवार, बाजार में कोई खास कारोबारी हलचल न होने से व्यवसायी परिवार भी परेशान है। सरकार की तरफ से जो राहत दी गयी, वो जमीन पर दिख नहीं रही। या वैसी नहीं है जैसी दिखनी चाहिए। पांच दिन के लिए लगभग सारे देश के बाजार खुले हैं। मगर ग्राहक न के बराबर है। सिर्फ रोजमर्रा की जरूरत वाली सामग्रियों की ही थोड़ी बहुत दुकानदारी है। सेनेटाइजर तक की बिक्री कम हो चली है।
आंकड़ों पर न जाने की जगह बैंकों के जरिए ही मौजूदा दौर को समझने में आसानी होती है। जहां पैसा जमा करने की जगह निकालने वालों की संख्या ज्यादा है। बैंक से कर्जा मांगने वाले कम हैं। बैंकों की कर्ज देने की दर पिछले 58 सालों में सबसे कम है। पुराने कर्जे की वापसी की रफ्तार कम हो चली है। पैसे जमा करने की दर 16 फीसद से घटकर 10 फीसद तक आ गयी है। भारत की अर्थव्यवस्था बचत वाली है। अभी भी मध्य वर्ग बचत को प्राथमिकता देता है। वही बैंकों, डाकघरों, जीवन बीमा जैसी योजनाओं में अपनी बचत को रखता रहा है। जिसे बैंक व्यापारियों, उद्यमियों को कर्ज देकर अर्थव्यवस्था को रफ्तार देते रहे हैं।
मंदी, कोरोना काल से पहले ही बाजार में थी। मगर दुकान खर्च के साथ-साथ मामूली बढ़त की लोगों को उम्मीद थी। कृषि उत्पादन को देखते हुए ये कयास गलत भी नहीं था। क्योंकि कोरोना काल अगर नहीं होता तब बीते चार माह में शादी, ब्याह, पर्यटन सहित सेवा क्षेत्र में भी ठीक-ठाक काम निकला होता। जिससे लोगों की माली हालत कुछ ठीक होती।
हाल ही में कुछ आंकड़े आये हैं, जो ढांढस बंधाने की जगह चिंता जगाते है। देश की बेरोजगारी दर 26 प्रतिशत तक जा पहुंची है। आईएमएफ के अनुसार 40 फीसद आबादी फिर से गरीबी रेखा के नीचे चली जायेगी। गरीबी रेखा से ऊपर जाने का मतलब है दो वक्त की रोटी का माकूल इंतजाम। मतलब, खतरा भुखमरी का भी है।
इधर, बांदा से एक सिहरन भरी खबर आयी है। जहां नाबालिग बच्चियों ने देह व्यापार को मजबूरन अपनाया। शहरी इलाकों में रह रहे बुनकर परिवारों की हालत और भी बदतर है। जो महिलायें पावरलूम पर कठिन डिजाइनों वाली साड़ियां बड़े आराम से बुनती थीं आज कल बर्तन धोने, घरेलू काम वाली बाई का काम कर रही हैं। वो भी उतनी दिहाड़ी पर जो बमुश्किल उनकी एक साड़ी की बिनाई के करीब है। गरीब गुरबे की बचत ही कितनी ? पर, जो भी थी वो खत्म हो चुकी है।
कोरोना के मरीज रोज बढ़ रहे हैं। हांलाकि ठीक भी हो रहे हैं। कोरोना से ज्यादा डर उन्हें इस बात का है कि ये हालात कब तक रहेंगें? कोरोना, हर हाल में जानलेवा है।
आम आदमी पिछले चार माह से सिर्फ इस आस पर जी रहा है कि हालात अब सुधरें कि तब सुधरें। आत्म निर्भर होने से ज्यादा जरूरी है लोगों को उनके परंपरागत कामों पर वापस लौटना। जिसे वो बहुत ही बेहतर ढंग से अब तक करते आ रहे थे। ज्यादातर लोगों का पुश्तैनी काम बंद हो गया है। जिसके चलते लोग आत्महत्या कर रहे हैं। उनको वो काम करना पड़ रहा है जिसका एबीसी उन्हें नहीं पता। बुनकर चाय की दुकान खोले हैं। कपड़े का सेल्स मैन सब्जी का ठेला लगा रहा है। ये सब कुछ जीने की जुगत है, बस।
सरकार ने रजिस्टर्ड ईएसआई मजदूरों के लिए उनके पेंशन फंड के पैसे का उपयोग करने की इजाजत तो दे दी मगर देश के एक बड़े तबके के पास अभी भी ऐसा कोई कागज नहीं है जिससे वो सरकारी मदद को पा सकें।
पीडीएस राशन का हाल ये है कि अब कोटेदार खुलेआम फी यूनिट एक किलो राशन कम दे रहे हैं। जनता कुछ बोल नहीं पा रही है क्योंकि उसे लग रहा है कि कहीं जो राशन मिल रहा है वो भी बंद न हो जाय।
जनता बड़े ध्यान से सरकार की तरफ देख रही है। उसे आत्मनिर्भर शब्द से कोई आपत्ति नहीं है पर ये डर तो बना ही हुआ है कि कहीं इस चक्कर में उसे आत्महत्या में ही समाधान न दिखने लग जाय।
संजय दुबे