Hastakshep.com-आपकी नज़र-Ladakh border episode-ladakh-border-episode-Starvation deaths in lockdown-starvation-deaths-in-lockdown-starved to death-starved-to-death-प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना-prdhaanmntrii-griib-klyaann-yojnaa-पहाड़-phaadd-भूख से मौत-bhuukh-se-maut-मन की बात-mn-kii-baat-राष्ट्रवाद-raassttrvaad-लद्दाख सीमा प्रकरण-lddaakh-siimaa-prkrnn-लॉकडाउन में भूख से मौतें-lonkddaaun-men-bhuukh-se-mauten

प्रधानमंत्री मोदी के 30 जून के संबोधन (Prime Minister Modi's 30 June address,) को, जो कोरोना संकट के दौर में राष्ट्र के लिए प्रधानमंत्री का छठा संबोधन था, अनेक टिप्पणीकारों ने खोदा पहाड़ निकली चुहिया करार दिया है। बेशक, प्रधानमंत्री के संबोधन ने ज्यादातर लोगों को निराश ही किया है। प्रधानमंत्री के मन की बात कार्यक्रम (Prime Minister's 'Mann Ki Baat' program) के सिर्फ एक दिन बाद ही, प्रधानमंत्री के इस संबोधन का एलान किया जा चुका था। प्रधानमंत्री कार्यालय (The Office of the Prime Minister) की इससे संबंधित घोषणा का प्रचार-प्रसार करने में, दूसरों के अलावा गृहमंत्री अमित शाह (Home Minister Amit Shah) ने भी हाथ बंटाया था और महत्वपूर्ण संबोधन की उम्मीद बंधायी थी।

इसके अलावा, प्रधानमंत्री मोदी का नोटबंदी से लेकर देशव्यापी लॉकडाउन तक, अचानक बड़ी तथा देश में भारी उथल-पुथल करने वाली घोषणाएं करने का रिकार्ड था।

इस सब को देखते हुए, प्रधानमंत्री के संबोधन में कुछ नया आने की काफी उम्मीदें जाग गयी थीं, जिसमें मीडिया की अटकलों ने भी अपना ही योगदान किया था।

इस पृष्ठभूमि में सत्रह मिनट से लंबे प्रधानमंत्री के संबोधन में कोई भी नयी घोषणा नहीं होने से, लोगों का निराश होना स्वाभाविक है। जाहिर है कि यह निराशा इसलिए और भी ज्यादा है कि एक ओर करोना संकट और दूसरी ओर लद्दाख सीमा संकट को देखते हुए, प्रधानमंत्री से इन चुनौतियों के संदर्भ में सरकार के सोच तथा प्रयासों को लेकर, देश को भरोसे में लेने की उम्मीद तो की ही जाती थी। इसलिए, प्रधानमंत्री के संबोधन से, जिसमें खासतौर पर कोरोना के संदर्भ में पुरानी बातों तथा योजनाओं के दुहराए जाने के सिवा और कुछ नहीं था, जबकि लद्दाख सीमा प्रकरण (Ladakh border episode) का तो जिक्र तक नहीं था, लोगों ने अगर ठगा हुआ महसूस किया, तो इसमें उनका कसूर नहीं है।

         

फिर भी, ऐसा भी नहीं है कि प्रधानमंत्री ने सिर्फ राष्ट्र को संबोधित करने का अपना शौक पूरा करने के लिए, कोरोना के दौर का अपना छठवां संबोधन किया हो।

प्रधानमंत्री के संबोधन में कम से कम एक, खुद उन्हीं के शब्दों में ‘‘बड़ी घोषणा’’ जरूर थी। इसका संबंध मोदी सरकार के इस फैसले से है कि लॉकडाउन के बाद, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के हिस्से के तौर पर, हरेक व्यक्ति को पांच किलो अनाज तथा एक किलो दाल हर महीने मुफ्त देने की जो योजना तीन महीने के लिए शुरू की गयी थी, वह 30 जून को अनलॉक-1 के खत्म होने के बाद भी जारी रहेगी और नवंबर के आखिर तक यानी अगले पांच महीने और जारी रहेगी।

जाहिर है कि प्रधानमंत्री इस सिलसिले में यह याद दिलाना नहीं भूले कि इसके जरिए पूरे 80 करोड़ भारतीयों को मुफ्त अनाज मुहैया कराया गया है, कि उनकी सरकार से मुफ्त राशन हासिल करने वाली यह आबादी, अमरीका की कुल आबादी से ढ़ाई गुनी, यूके की आबादी से 12 गुनी और योरपीय यूनियन की आबादी से, दोगुनी आदि होती है।

इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री ने हिसाब लगाकर यह भी बताया इस योजना के पांच महीने के प्रस्तावित विस्तार पर 90,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे और इसी के तीन महीने के अब तक के खर्च को इसमें जोड़ दिया जाए तो, उनकी सरकार कोरोना संकट के बीच जनता को मुफ्त राशन देने पर ही कुल 1.5 लाख करोड़ रुपए खर्च कर रही होगी।

हां! प्रधानमंत्री ने यह स्पष्ट करने की कोई जरूरत नहीं समझी कि यह पूरा खर्चा, 1.75 लाख करोड़ रु0 की मूल प्रधानमंत्री कल्याण योजना से ही आएगा, जिसका एलान मार्च के आखिर में लॉकडाउन की घोषणा के फौरन बाद किया गया था, या फिर आने वाले खर्च के लिए उनकी सरकार कोई अतिरिक्त प्रावधान करने जा रही है। और उनके यह स्पष्ट करने की तो उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि पिछले तीन महीनों में इस योजना पर वास्तव में केंद्र सरकार ने कितना खर्च किया है या वास्तव में इस योजना के अंतर्गत कितना अनाज, कितने लोगों में बांटा गया है!

वैसे प्रधानमंत्री ने जिस तरह इस कार्यक्रम के आधार पर यह कहकर अपनी पीठ ठोकने की कोशिश की है कि लॉकडाउन के संदर्भ में उनकी सरकार की पहली प्राथमिकता यह सुनिश्चित करना रही है कि कोई भूखा नहीं रहे, उसके सिलसिले में कम से कम इसकी याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि देशव्यापी तालाबंदी की घोषणा से करोड़ों लोगों को अचानक, रोजी-रोटी के साधनों से महरूम करने से पहले, नरेंद्र मोदी की सरकार ने यह सुनिश्चित करने की रत्तीभर व्यवस्था नहीं की थी कि ‘‘कोई भूखा नहीं रहे।’’

उल्टे देशव्यापी तालाबंदी लागू होने के कई दिन के बाद ही, वित्त मंत्री ने उक्त गरीब कल्याण पैकेज का एलान किया था, जिसके तहत उठाए जाने वाले कदमों को सबसे बेहतर मामलों में भी जमीन पर अमल में आने में कई दिन और लग गए थे।

नागरिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों ने भी अगर, लॉकडाउन की पाबंदियों के बावजूद आगे बढक़र व्यापक पैमाने पर मदद नहीं की होती, तो मोदी सरकार ने तो करोड़ों नहीं तो लाखों लोगों का तो भूखा पेट सोना सुनिश्चित ही कर दिया था।

जाहिर है कि प्रवासी मजदूरों की किसी भी कीमत पर घर-गांव वापसी की कोशिशों का, जो जहां है वहीं रहे’ की स्थिति में, उन्हें भूख से मौत (भूख से मौत) मुंह बाए खड़ी दिखाई देने से, घनिष्ठ संबंध था।

अचरज नहीं कि लॉकडाउन में भूख से मौतें (Starvation deaths in lockdown), जिनकी जाहिर है कि किसी ने गिनती रखी ही नहीं है, हजारों में जरूर होंगी।

बहरहाल, यह ‘‘बड़ी घोषणा’’ भी कम से कम इतनी बड़ी हर्गिज नहीं थी कि उसके लिए प्रधानमंत्री का, अपनी ‘‘मन की बात’’ सुनाने के दो दिन बाद ही, राष्ट्र को दोबारा संबोधित करना जरूरी होता। बेशक, प्रधानमंत्री मोदी बड़ी घोषणाएं खुद ही करना पसंद करते हैं। यह लॉकडाउन के दौर के बारे में भी उतना ही सच है, जितना अन्य स्थितियों में। फिर भी, खुद प्रधानमंत्री के कहे के अनुसार, यह तीन महीने से जारी व्यवस्था के पांच महीने के लिए और विस्तार का ही मामला था, न कि किसी नयी योजना का। ऐसे में सरकारी समाचार एजेंसी की विज्ञप्ति से या सरकार के प्रवक्ता की घोषणा से भी आराम से काम चल सकता था, जोकि लॉकडाउन-2 के बाद से एक प्रकार से आम नियम ही बन गया है। फिर भी, प्रधानमंत्री ने खुद ही देश को संबोधित करते हुए इसका एलान करना जरूरी समझा। आखिर क्यों?

इस क्यों का जवाब प्रधानमंत्री ने जिन शब्दों में मुफ्त राशन की इस व्यवस्था के विस्तार की घोषणा की, उनमें छुपा हुआ है।

खुद प्रधानमंत्री के ही शब्दों में, ‘‘प्रधानमंत्री कल्याण योजना को दीवाली और छठ पूजा तक’’ बढ़ाया जा रहा है। बेशक, ‘‘नवंबर के आखिर तक’’ का स्पष्टीकरण इसमें जोड़ा गया है, लेकिन वह है स्पष्टीकरण ही। वर्ना यह खैरात तो खास त्यौहारों के इस सीजन के लिए ही है, जो जुलाई से शुरू होकर, नवंबर में दीवाली, छठ पूजा तक चलना है।

इस तथ्य को रेखांकित करने के लिए प्रधानमंत्री इस सिलसिले में गुरु पूर्णिया से लेकर, रक्षा बंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, ओणम, काटी बिहू, दुर्गापूजा, दशहरा आदि सब का जिक्र करते हैं। वास्तव में इस क्रम में वह एक ओर तो अपने संबोधन में चंद सेकेंड के अंतर से, दीवाली और छठ पूजा का दो-दो बार जिक्र करते हैं। और दूसरी ओर उतने ही उल्लेखनीय तरीके से, वह इसी सीजन में पड़ऩे वाली, सिवइयों वाली मीठी ईद का जिक्र करना भूल जाते हैं!

जाहिर है कि इस तरह बिहार चुनाव के लिए इशारों में हिंदुत्ववादी मंच को आगे बढ़ाने के लिए, खुद प्रधानमंत्री का मुफ्त राशन योजना के इस विस्तार की घोषणा करने के लिए सामने आना जरूरी था। यह काम उतनी सफाई से और उतने असरदार तरीके से, दूसरे किसी के किए नहीं से नहीं हो सकता था।

यह भी याद दिला दें कि इसके लिए सिर्फ हिंदूधार्मिकता को सहलाना काफी नहीं समझा गया। दीवाली और छठ पूजा का ख्याल रखे जाने का दो-दो बार प्रदर्शन किए जाने से तो यह काम हो ही गया होता। लेकिन, त्यौहार के सीजन की उसी सूची में से, ईद का उल्लेख बाहर करना भी जरूरी समझा गया। आखिरकार, बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का मंच गढऩे के लिए, बहुसंख्यकों के धर्म, परंपराओं, रीति-रिवाज के प्रति आदर दिखाना जितना जरूरी है, उससे भी ज्यादा जरूरी अपना अल्पसंख्यक विरोधी चेहरा (Narendra Modi's anti-minority face) दिखाना है।

यह बाद वाला पहलू ज्यादा कारगर, ज्यादा प्रभावी है। बहुसंख्यक धार्मिकता बिखरी हुई है, उसके साक्ष्य के तौर पर गुरु पूर्णिमा से लेकर कृष्ण जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी, बिहू, दुर्गापूजा, दशहरा आदि, आदि की दुहाई देनी पड़ती है, जबकि अल्पसंख्यक-विरोध कहीं एकीकृत है, उसके लिए सिर्फ एक ईद को बाहर रखना काफी है। यह बिहार में एनडीए की नैया पार लगाने के लिए बहुत ही जरूरी है।

जैसा अपनी पिछली टिप्पणी में हमने ध्यान दिलाया था, गलवान की सीमा झड़प तथा बिहार रेजीमेंट के बीस जांबाजों की शहादत की पृष्ठभूमि में, समस्तीपुर से गरीब कल्याण रोजगार योजना का उद्घाटन करते हुए, दस-बारह रोज पहले प्रधानमंत्री, बिहारियों के शौर्य का गौरव गान करने के जरिए, एनडीए के लिए उन्मत्त-राष्ट्रवादी मंच गढऩे की शुरूआत कर चुके थे। लेकिन, संदर्भ चीन का होने से शायद, लोकल स्तर पर इस मंच को दुहने की वैसी संभावनाएं नहीं लगी होंगी, जैसी मिसाल के तौर पर पाकिस्तान के या बांग्लादेश के भी संदर्भ में हो सकती थीं। इस कमी को, नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने इस संबोधन के जरिए पूरा कर दिया है।

उन्मत्त राष्ट्रवाद की तलवार पर, मुस्लिमविरोध की धार चढ़ाकर, भाजपा नीतिश कुमार को आगे कर, बिहार विजय के लिए निकलेगी। इस मुकाबले में इन सभी हथियारों का आजमाया जाना बहुत जरूरी भी है। आखिरकार, भाजपा को बिहार की पिछली बार की अपनी करारी हार भूली नहीं है। उसके ऊपर से, कोरोना महामारी का मुकाबला करने में और प्रवासी मजदूरों के संकट के सामने, एनडीए सरकार की जैसी घोर विफलता तथा निष्ठुरता सामने आयी है, उसे देखते हुए भाजपा और डरी हुई है। इसलिए, वह हरेक हथियार आजमाने जा रही है--उन्मत्त राष्ट्रवाद से लेकर बहुसंख्यक सांप्रदायिकता तक।

नरेंद्र मोदी का राष्ट्र के नाम संबोधन (Narendra Modi's address to the nation), वास्तव मे बिहार के नाम सत्ताधारी गठजोड़ के इसी इरादे का एलान था।

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं। Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

यह प्रकारांतर से इसका भी एलान है कि लद्दाख में सीमा पर विवाद, जल्दी से शांत होने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री का अचानक लद्दाख का दौरा और वहां सैनिकों का संबोधन, इसी स्क्रिप्ट के अनुसार थे। सरकार के स्तर पर एक के बाद विभागों द्वारा चीनी उत्पादों, प्रौद्योगिकी, कंपनियों के बहिष्कार के एलान और आरएसएस-भाजपा के संगठनों द्वारा चीनी सामान की होली, आदि इसी स्क्रिप्ट के अन्य प्रसंग हैं। भारत में बिहार चुनाव और बाहर अमरीका का राष्ट्रपति चुनाव, कम से कम यह सुनिश्चित करेगा कि इन सर्दियों तक चीन से ज्यादा तो नहीं, पर थोड़ी-बहुत तनातनी बनी रहे।

 राजेंद्र शर्मा                                  

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