आज से पूरे देश में कोयला क्षेत्र के निजीकरण (Privatization of coal sector) के खिलाफ लाखों कोयला मजदूर हड़ताल पर हैं। इसमें वामपंथी संगठनों के अलावा आरएसएस से जुड़ी बीएमएस तक को भारी दबाब में शामिल होना पड़ा है।
मजदूरों के अंदर आक्रोश है कि कोयला के निजी हाथों में जाने से जिस त्रासदीपूर्ण जीवन को उनके पूर्वजों ने झेला और असुरक्षित जीवन में काम किया उसे मोदी सरकार फिर से वापस लाने पर आमादा है।
नई पीढ़ी के जिन लोगों ने गैंग्स आफ वासेपुर (Gangs of Wasseypur) नामक फिल्म देखी होगी उसने यह पाया होगा कि कोयले के राष्ट्रीयकरण (Nationalization of coal) के पहले कैसे गुलामों की तरह कोयला मजदूरों की जिदंगी थी। इस बात को अस्सी के दशक में बनी फिल्म काला पत्थर में भी दर्शाया गया है।
इन गुलामी के दिनों की वापसी के खिलाफ कोयला मजदूरों की यह तीन दिवसीय हड़ताल है जो आज से शुरू होकर 4 जुलाई तक चलेगी। यही वजह है कि आमतौर पर पिछले 6 सालों से जब से मोदी सरकार आयी है मजदूर वर्ग पर जारी लगातार हमले के बावजूद किसी भी राष्ट्रीय प्रतिवाद में शामिल न होने वाली यहां तक कि ऐसे मौकों पर मजदूर वर्ग के प्रतिवाद का विरोध करने वाली और राष्ट्र हित सर्वोपरि का नारा देने वाली बीएमएस को राष्ट्र हित के लिए हड़ताल वापस लेने का आव्हान करने वाले मंत्री प्रहलाद जोशी की अपील के बावजूद हड़ताल में शामिल होना पड़ रहा है।
बहरहाल कोयला मजदूरों की यह हड़ताल कोरोना महामारी में आपदा को कॉरपोरेट मुनाफे के अवसर में बदलने की मोदी सरकार की नीति के तहत
इस हड़ताल पर कल जारी कोयला मंत्री की अपील में कहा गया कि कोयला का आयात राष्ट्रीय हितों के विरूद्ध है इसलिए देश में कोयला की आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए सरकार को यह फैसला लेना पड़ा जो राष्ट्र हित में है। उनका यह कहना कि विश्व के पांचवे सबसे ज्यादा कोयला भंडारण वाले देश भारत में कोयले का आयात पाप से कम नहीं है। उन्होंने कहा कि दुनिया में तीसरे नम्बर का कोयला भंडारण वाला देश चीन 3500 मिलियन टन कोयला निकाल कर विश्व का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक व उपभोग करने वाला है।
अब सामान्य ज्ञान का भी कोई व्यक्ति सोचे कि विदेशी कम्पनियों द्वारा कराया गया कोयला खनन कैसे राष्ट्र हित में है जबकि इन कम्पनियों को खनन के बाद कोयला के निर्यात की पूरी छूट दी गयी है। क्या विदेशी कम्पनियों से खनन करा कर भारतीय जरूरतों की पूर्ति हो सकेगी। शायद नहीं आप देख सकते हैं कि पिछले वर्ष भारत में 976 मिलीयन टन कोयले की आवश्यकता में 729.10 मिलीयन टन कोयला का खनन सार्वजनिक क्षेत्र की कोल इंडिया लिमिटेड़ ने किया और यदि इसमें कमी रह गयी तो इसकी जबाबदेही भी सरकार की ही बनती है। जिसने इसके लिए नीति और कार्य न करके राष्ट्र के हितों को नुकसान पहुंचाने का पाप किया है।
दरअसल ऊर्जा के महत्वपूर्ण स्रोत कोयला (Important sources of energy are coal), जिससे हमारे देश में पैदा होने वाली कुल 370348 मेगावाट बिजली में 198525 मेगावाट लगभग सत्तर प्रतिशत से ज्यादा बिजली पैदा होती है, उसकी लूट का खेल नई आर्थिक औद्योगिक नीतियों के आने के साथ ही शुरू हो गया था।
मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार कार्यक्रम ने इंदिरा गांधी के कोयला के राष्ट्रीयकरण के कोयला खनन (राष्ट्रीयकरण अधिनियम) 1973 को उसी समय अलविदा कह दिया था।
तत्कालीन सरकार ने 1993 में राष्ट्रीयकरण के बाद पहली बार प्राईवेट कंपनियों को कैप्टिव खनन के लिए इजाजत दी, इसके लिए न तो किसी तरह की पारदर्शी व्यवस्था निर्मित की गई, यहां तक कि कानून भी नहीं बनाया गया, बल्कि प्रशासनिक निर्णय से स्क्रीनिंग कमेटी के द्वारा इतने बड़े नीतिगत फैसला लागू किया गया। बाद में अटल जी की सरकार ने ‘पहले आओ-पहले पाओ‘ की नीति पर अमल करते हुए कोयला की बिक्री का निर्णय लिया और इसकी प्रक्रिया शुरू कर दी। इस नीति पर बढ़ते हुए यूपीए सरकार ने भी इसे लागू किया और परिणाम यह हुआ कि उन कम्पनियों तक को कोयला क्षेत्र का आवंटन हुआ जिनका कोयले के उपभोग से कोई लेना-देना नहीं था। इस पर सीएजी ने अपनी फाईनल रिपोर्ट जिसे संसद में पेश किया गया उसमें बिना किसी बिडिंग और मनमर्जी से किये गए कोल ब्लॉक आवंटन में 1.86 लाख करोड़ रुपये के सरकारी खजाने की लूट होना बताया था।
सुप्रीम कोर्ट तक ने 2014 में 218 में से 214 कोल ब्लॉक के आवंटन को अवैध बताते हुए रद्द कर दिया। इससे टाटा ग्रुप, जिंदल स्टील, बिड़ला ग्रुप, एस्सार ग्रुप्स, अडानी ग्रुप्स, लैंको आदि को 100 कोल ब्लॉक आवंटित थे।
इस घोटाले में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी समन जारी किया गया था। झारखंड के पूर्व सीएम मधु कोड़ा और केंद्र के कुछ वरिष्ठ अधिकारी जेल में हैं।
आपको याद होगा कि कोलगेट घोटाला राष्ट्रीय सवाल बना था और इसके विरूद्ध पूरे देश में आंदोलन हुआ और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का यह मुख्य मुद्दा बना। भारतीय जनता पार्टी ने इस पर प्रतिवाद दर्ज कराया और इसे बड़ा चुनावी मुद्दा भी बनाया था।
ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट द्वारा फरवरी में जंतर-मंतर पर किए दस दिवसीय उपवास में इस पर राजनीतिक प्रस्ताव लेकर देश में ऊर्जा के प्रमुख स्रोत कोयला के किसी भी प्रकार से चाहे वह नीलामी हो या ‘पहले आओ- पहले पाओ’ की नीति हो पर राष्ट्रहित में रोक लगाने की मांग की गयी।
आइपीएफ का साफ कहना था कि राष्ट्रीय हितों और विकास के लिए कोयला जो हमारी बिजली उत्पादन का प्रमुख स्रोत है उसे देशी विदेशी कॉरपोरेट घरानों के हवाले नहीं करना चाहिए। यह देश के विकास के पहिए को रोक देगा क्योंकि कॉरपोरेट हितों के लिए इसके खनन और बिक्री के कारण हमारी ऊर्जा जरूरत बाधित होगी और इसके दुष्परिणाम दूरगामी होंगे।
इसके बाद बनी मोदी सरकार ने ‘पहले आओ पहले पाओ’ की नीति में बदलाव कर नीलामी प्रक्रिया से कोल ब्लाक आवंटन का कार्य शुरू किया और इसके लिए बाद खान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम 1957 व कोयला खनन (राष्ट्रीयकरण अधिनियम) 1973 में संशोधन कर कोयला खनन (विशेष प्रावधान) अधिनियम 2015 लाया गया जिसे भी संशोधन कर मार्च में खनिज कानून (संशोधन) अधिनियम 2020 पारित किया है। इसके अस्तित्व में आने के बाद से कोल इंडिया लिमिटेड का कोयला खनन क्षेत्र में चला आ रहा एकाधिकार खत्म हो जायेगा और सौ प्रतिशत एफडीआई समेत कॉरपोरेट कंपनियों को खुले बाजार में कोयले की खरीद-फरोख्त की छूट मिल जायेगी।
गौरतलब हो कि 1973 में कोयला खनन के राष्ट्रीयकरण के बाद प्राईवेट कंपनियों के खनन की इजाजत नहीं थी।
यह सच्चाई है कि निजी खनन कंपनियों की सीमाओं और कमजोरियों के चलते ही देश की जरूरत के मुताबिक ही कोयला सेक्टर का राष्ट्रीयकरण किया गया था। इस राष्ट्रीयकरण के बाद ही देश की जरूरतों के मुताबिक कोयला का उत्पादन हो सका यहां तक कि निजी खनन के सापेक्ष वर्किंग कंडीशन, पर्यावरण व विस्थापन के सवाल को बेहतर तरीके से हल किया गया। यदि इसी रास्ते पर हम आगे बढ़ते और कोयला क्षेत्र की सरकारी कंपनियों को पूरी क्षमता से संचालित किया जाता तो हम कोयला उत्पादन में आत्मनिर्भर रहते।
कहने का मतलब यह है कि कोयला खनन की सरकारी कंपनियों की क्षमता पर्याप्त है और उनमें जरूरत के मुताबिक इजाफा की भी गुंजाइश है लेकिन सरकार का असली मकसद कोयला क्षेत्र में कॉरपोरेट्स के लिए लूट व अकूत मुनाफाखोरी के लिए बाजार तैयार करना है। इसलिए यह तर्क कोयला क्षेत्र में एफडीआई और निजीकरण से प्रतिस्पर्धा बढ़ने से कोयला सस्ता होगा और उपलब्धता सुनिश्चित होगी पूरी तरह से बेबुनियाद है।
इसी तरह का तर्क बिजली उत्पादन की कॉरपोरेट कंपनियों के संबंध में भी दिया गया था जिसका नतीजा सामने है। इसी तर्क के आधार पर कॉरपोरेट बिजली कंपनियों को बेहद सस्ती जमीन, सस्ते लोन आदि तमाम छूंटे प्रदान की गई लेकिन आज यह जमीनी हकीकत है कि इन कॉरपोरेट कंपनियों से सरकारी क्षेत्र की कंपनियों की तुलना में काफी मंहगी दरों से बिजली खरीदी जा रही है और देश के एनपीए मतलब सरकारी बट्टा खाते में सबसे ज्यादा बकाएदार बिजली उत्पादन करने वाली कॉरपोरेट कम्पनियां ही है।
दरअसल मोदी सरकार के आर्थिक सुधारों का मकसद कोयला और बिजली दोनों महत्वपूर्ण क्षेत्रों को कॉरपोरेट के अधीन ले आना और इस पूरे इंफ्रास्ट्रक्चर को कॉरपोरेट्स को हैंडओवर करना है जिससे इस बुनियादी क्षेत्र से अकूत मुनाफाखोरी व लूट की जा सके। बिजली सेक्टर में प्रस्तावित इलेक्ट्रीसिटी संशोधन कानून 2020 भी इसी दिशा में एक कदम है।
वास्तव में कोल ब्लॉक के देशी विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों को खनन के लिए देने और खरीद फरोख्त की छूट मिलने से कोयला खनन में लूट होगी, कोयला मंहगा होगा, पर्यावरण व विस्थापन का भी गंभीर संकट पैदा होगा।
यह भी गौर करने की बात है कि भारत और दुनिया में कोयले का सीमित रिजर्व है। लेकिन अभी भी ऊर्जा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका इसकी है, भारत में ऊर्जा के अन्य श्रोतों से बिजली उत्पादन अभी भी सीमित हैं। ऐसे में इस महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन के खनन और खरीद फरोख्त में देशी विदेशी कंपनियों का वर्चस्व राष्ट्रीय हितों के लिए कतई अच्छा नहीं है और इसके दूरगामी विनाशकारी परिणाम होंगे। इसलिए आज से शुरू कोयला मजदूरों का आंदोलन राष्ट्रीय हितों पर हमला करने वाली मोदी सरकार के विरूद्ध राष्ट्र हित में है, जिसका हर देशभक्त भारतीय को सर्मथन करना चाहिए।
दिनकर कपूर
अध्यक्ष, वर्कर्स फ्रंट