सुनील दत्ता
19 जनवरी 1919 : सामन्तवाद, साम्प्रदायिकता और अराजक तत्वों के खिलाफ आवाज उठाने वाले मजहब और धर्म के नाम पर लड़ने- झगड़ने वालों को आड़े हाथों लेने वाले, गरीबी और नाइंसाफी को देश से उखाड़ फेकने की तमन्ना रखने वाले मानवीय संवेदनाओं और असहाय लोगों की आवाज को जन- जन तक पहुँचाने वाले प्रगतिशील शायर कैफ़ी आज़मी का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से पांच- छ: किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव मिजवा में हुआ।
मिजवा गाँव के एक प्रतिष्ठित जमींदार परिवार में उन्नीस जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज़वी और कनीज़ फातिमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज़वी का जन्म हुआ। अतहर हुसैन रिज़वी ने आगे चलकर अदब की दुनिया में कैफ़ी आजमी नाम से बेमिसाल शोहरत हासिल की कैफ़ी की। चार बहनों की असामयिक मौत ने कैफ़ी के दिलो- दिमाग पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला।
कैफ़ी के वालिद को आने वाले समय का अहसास हो चुका था। उन्होंने अपनी जमींदारी की देख-रेख करने के बजाय गाँव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया। उन दिनों किसी जमींदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी- पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था।
कैफ़ी के वालिद का निर्णय घर के लोगों को नागवार गुजरा। वो लखनऊ चले आये और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी
कैफ़ी के वालिद साहब नौकरी करते हुए अपने गाँव मिजवा से सम्पर्क बनाये हुए थे और गाँव में एक मकान भी बनाया, जो उन दिनों हवेली कही जाती थी।
कैफ़ी की चार बहनों की असामायिक मौत ने न केवल कैफ़ी को विचलित किया बल्कि उनके वालिद साहब का मन भी बहुत भारी हुआ। उन्हें इस बात कि आशंका हुई कि लड़कों को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर यह मुसीबत आ पड़ी है।
कैफ़ी के माता-पिता ने निर्णय लिया कि कैफ़ी को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) दिलाई जाये। कैफ़ी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारिस (Shia madrasa sultanul madaris) में करा दिया गया।
आयशा सिद्दीक ने एक जगह लिखा है कि
''कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गो ने एक दीनी शिक्षा गृह में इस लिए दाखिल किया था कि वह पर फातिहा पढ़ना सीख जायेंगे। कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब पर फातिहा पढ़कर निकल गये''।
''तुम इतना क्यों मुस्कुरा रहे हो/ क्या गम है जिसको छुपा रहे हो'', गीत की पंक्तियों को आजादी के बाद की पीढ़ी में कौन सा शख्स ऐसा होगा जिसने कभी न गुनगुनाया हो? कोई ऐसा भी शख्स है जो यह गीत न गुनगुनाया हो जिससे उसके रोगटे खड़े न हुए हों ''कर चले हम फ़िदा जाने ए वतन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो''
एक झोंक में इतना बोलने के बाद बोले देखो,
''पेट की भूख और राख के ढेर में पड़ी चिनगारी को कमजोर न समझो''। जंगल में किसी ने पेड़ काटने से अगर रोका नहीं तो किसी ने देखा नहीं, यह समझने के भूल कभी मत करना। गाँव- देहात का हर शख्स, खेती-किसानी से जुड़ा चेहरा मेहनतकश मजूर हो या खटिया- मचिया पर बैठा कोई अपाहिज, वह तुम्हारी हर चाल को देख और समझ रहा है। वह भ्रष्ट अफसर शाही को खूब समझता है पर यह दौर समझने का नहीं बल्कि समझाने का है। अपने साथियो से मैं हर वक्त यही कहता हूँ- लड़ने से डरो मत, दुश्मन को खूब पहचानो और मौका मिले तो छोड़ो मत, अपनी माटी के गंध और पहचान को बनाये रखो, अपने हर संघर्ष में आधी दुनिया को मत भूलो, वही तुम्हारे संघर्ष की दुनिया को पूरा करती है। मांगने की आदत बंद करो, छिनने के कूबत पैदा करो। देखो, तुम्हारी कोई समस्या फिर समस्या रह जाएगी क्या ?
बोले मेरे घर में तो खैर कट्टरपंथियों जैसा कोई माहौल कभी नहीं रहा, मगर भइया मैं तो गाँव के मदरसे कभी नहीं गया। हमें तो होली का हुड़दंग और रामायण की चौपाई ही अच्छी लगती थी।
कैफ़ी के ये विचार उनको बखूबी बयां करती है। ''खून के रिश्ते'' यह वाक्य उनके चिंतन विचार शैली और सोच के दिशा का न केवल प्रतीक हैं, बल्कि उनके विशाल व्यक्तित्व के झलक भी दिखलाती है। इसी दृश्य की झलक हमें उनके इन गीतों से मिलती है, माटी के घर थे, बादल को बरसना था, बरस गये। गरीबी जलेगी, मुल्क से यह सुनते- सुनते उम्र के सत्तर बरस गये।
सम्वेदना के धरातल पर दिल को झकझोर देने वाले शायर कैफ़ी की आवाज़ आज नहीं तो आने वाले कल शोषित- पीड़ित की आवाज बनकर इस व्यवस्था को झकझोर कर रखेगी ही बस वक्त का इन्तजार है।
सुल्तानुल मदारिस में पढ़ते हुए कैफ़ी साहब ने 1933 में प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कहानी संग्रह ''अंगारे'' पढ़ लिया था, जिसका सम्पादन सज्जाद जहीर ने किया था। उन्हीं दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफ़ी साहब ने छात्रों की यूनियन बना कर अपनी मांगों के साथ हड़ताल शुरू कर दी। डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदारिस बन्द कर दिया गया। परन्तु गेट पर हड़ताल व धरना चलता रहा। धरना स्थल पर कैफ़ी रोज एक नज्म सुनाते।
धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफ़ी की प्रतिभा को पहचान कर कैफ़ी और उनके साथियो को अपने घर आने की दावत दे डाली। वहीं पर कैफ़ी की मुलाक़ात एहतिशाम साहब से हुई जो उन दिनों सरफराज के सम्पादक थे।
एहतिशाम साहब ने कैफ़ी की मुलाक़ात अली सरदार जाफरी से कराई। सुल्तानुल मदारीस से कैफ़ी साहब और उनके कुछ साथियो को निकाल दिया गया।
1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफ़ी साहब कानपुर चले गये और वह मजदूर सभा में काम करने लगे।
मजदूर सभा में काम करते हुए कैफ़ी ने कम्युनिस्ट साहित्य का गम्भीरता से अध्ययन किया। 1943 में जब बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी का ऑफिस खुला तो कैफ़ी बम्बई चले गये और वही कम्यून में रहते हुए काम करने लगे।
सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफ़ी ने पढ़ना बन्द नहीं किया। प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर ( फारसी ० दबीर कामिल ( फारसी ) आलिम ( अरबी ) आला काबिल ( उर्दू ) मुंशी ( फारसी ) कामिल ( फारसी ) की डिग्री हासिल कर ली। कैफ़ी के घर का माहौल बहुत अच्छा था। शायरी का हुनर खानदानी था। उनके तीनों बड़े भाई शायर थे। आठ वर्ष की उम्र से ही कैफ़ी ने लिखना शुरू कर दिया। ग्यारह वर्ष की उम्र में पहली बार कैफ़ी ने बहराइच के एक मुशायरे में ग़ज़ल पढ़ी। उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे।
कैफ़ी की ग़ज़ल मानी साहब को बहुत पसंद आई और उन्होंने काफी को बहुत दाद दी। मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफ़ी की प्रंशसा अच्छी नहीं लगी और फिर उनकी ग़ज़ल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्हीं की गजल है ?
कैफ़ी साहब को इम्तिहान से गुजरना पडा। मिसरा दिया गया- ''इतना हंसों कि आँख से आँसू निकल पड़ें'' फिर क्या कैफ़ी साहब ने इस मिसरे पर जो ग़ज़ल कही वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई। लोगों का शक दूर हुआ ''काश ज़िन्दगी में तुम मेरे हमसफर होते तो ज़िन्दगी इस तरह गुजर जाती जैसे फूलो पर से नीमसहर का झोंका'' ज़िन्दगी जेहद में है, सब्र के काबू में नहीं, नब्जे हस्ती का लहू, कापते आँसू में नही, उड़ने खुलने में है निकहत, खमे गेसू में नही, जन्नत एक और है जो मर्द के पहलू में नहीं। उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे, उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे। ( कैफ़ी )
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सचिव कामरेड अतुल अनजान कहते हैं कि कैफ़ी साहब साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी थे। लोकतंत्र के जबर्दस्त हामी थे। गरीब मजदूरों, किसानों के सबसे बड़े पैरोकार थे। मार्क्सवादी दर्शन तथा वैज्ञानिक समाजवाद में उनकी जबर्दस्त आस्था थी। आवाज बड़े बुलंद थी। गम्भीर बातों को भी बड़ी आसानी से जनता के सामने रखने की अद्भुत क्षमता थी। शब्दों का प्रयोग बहुत सोच समझकर नपे- तुले अंदाज में रखते थे। इसीलिए वे आवामी शायर थे। इसीलिए उनकी पहचान और मकबूलियत देश परदेश में थी। इतना विशाल व्यक्तित्व और अत्यंत सादे और सरल। यही थे कामरेड कैफ़ी। मेरे जीवन में साहित्यिक अभिरुचि बनाये रखने के प्रेरणा स्रोत थे कामरेड कैफ़ी।
Kaifi Azmi was a sensitive poet
कैफ़ी एक ऐसे संवेदनशील शायर थे जिन्हें मुंबई की रंगीनियत बाँध न सकी। जिले के कई नामवर मुंबई से लेकर इंडियन द्वीप बार्वाडोस और सूरीनाम, अमेरिका, जापान तक गये, लेकिन वहीं के होकर वहाँ रह गये। कई लोगों ने मुंबई को व्यावसायिक ठिकाना बनाया और जिले के मिट्टी के प्रति प्रेम उपजा तो चंद नोटों की गड्डियां चंदे के नाम व हिकारत की नजर से यहाँ के लोगों को सौंप दी; लेकिन कैफ़ी इसके अपवाद साबित हुए। उन्होंने एक शेर में जिक्र भी किया है
''वो मेरा गाँव है, वह मेरे गाँव के चूल्हे की, जिनमें शोले तो शोले धुँआ नही उठता''
कैफ़ी ने ज़िन्दगी के आखरी वक्त बड़ी शिद्दत के साथ अपने गाँव मिजवा की तरक्की के नाम दिए। लकवाग्रस्त शरीर जो कि व्हील चेयर पर सिमट गया था, के वावजूद उन्होंने यहाँ के विकास के ऐसे सपने संजोये थे, जो एक कृशकाय शरीर को देखते हुए कल्पित ख़्वाब की तरह नजर आता था। लेकिन कैफ़ी ने अपने अपाहिज शरीर को आड़े आने नहीं दिया। उन्होंने मिजवा में बालिका डिग्री कालेज खोलने का सपना देखा था, वो तो साकार नहीं हो पाया लेकिन आज मिजवा में बालिकाओं का माध्यमिक विद्यालय उनके सपने को साकार करने का रह का सेतु बना। इस विद्यालय में बालिकाओ, को कढ़ाई, बुनाई से लेकर आधुनिक दुनिया से लड़ने के लिए कंप्यूटर की शिक्षा दी जाती है।
कैफ़ी का मानना था कि '' अपनी मिट्टी से कटा व्यक्ति किसी का भी नहीं हो सकता।''
जमींदार के घर में पैदा होने और लखनऊ के शायराना फिजां में पलने- बढ़ने के वावजूद कैफ़ी को मिजवां की बुनियादी जरूरतें अक्सर खींचती रहती थीं। फतेह मंजिल नाम लोगों की जुबान पर बसे कैफी का यह आशियाना आज भी कैफ़ी की यादों का चिराग बना हुआ है और आने वाले सदियों तक बना रहेगा।
अजीब आदमी था वो-- मुहब्बतों का गीत था/ बगावतों का राग था/ कभी वो सिर्फ फूल था/ कभी वो सिर्फ आग था/ अजीब आदमी था वो/ वो मुफलिसों से कहता था कि दिन बदल भी सकते हैं/ वो जाबिरो से कहता था तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज है /कभी पिघल भी सकते हैं/ वो बन्दिशों से कहता था/ मैं तुमको तोड़ सकता हूँ/ सहूलतो से कहता था/ मैं तुमको छोड़ सकता हूँ/ हवाओं से वो कहता था/ मैं तुमको मोड़ सकता हूँ/ वो ख़्वाब से ये कहता था/ के तुझको सच करूंगा/ मैं वो आरजू से कहता था/ मैं तेरा हम सफर हूँ/ तेरे साथ ही चलूँगा मैं। तू चाहे जितनी दूर भी बना अपनी मंजिले कभी नही थकुंगा/ मैं वो ज़िन्दगी से कहता था कि तुझको मैं सजाऊँगा/ तू मुझसे चाँद मांग ले मैं चाँद ले आउंगा/ वो आदमी से कहता था कि आदमी से प्यार कर उजड़ रही ये जमी कुछ इसका अब सिंगार कर अजीब आदमी था वो
कैफ़ी ने अपनी ज़िन्दगी से रुखसत होते- होते ये नज्म़ कही थी। पूरे दुनिया के मेहनतकश आवाम से- ''कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले उस इन्कलाब का, जो आज तक उधार सा है।