बैंकिंग विश्लेषकों के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को वित्तीय वर्ष 2020-21 में नियामकीय शर्त पूरी करने के लिए अर्थात बैंकों के परिचालन के लिए कम से कम 50 हजार करोड़ रूपये की जरूरत होगी। सरकार ने अभी तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए कोई घोषणा नहीं की है। सरकार के पास फंड की कमी है। जो सार्वजनिक बैंक बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, सरकार उन सार्वजनिक बैंको की हिस्सेदारी बेचने के लिए निजीकरण के प्रस्ताव पर काम कर रही है। जो बैंक नियामकीय शर्त को पूरी नहीं कर पाएंगे उन बैंकों का परिचालन रूक जाएगा और सरकार ऐसी कमजोर बैंकों का निजीकरण करती चली जायेगी।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में यदि सरकार को अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करना हो या निजीकरण करना हो तो सरकार को पहले बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम में संशोधन करना होगा।
सरकारी सूत्रों के अनुसार पहले चरण में बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन ओवरसीज बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, यूको बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, पंजाब एंड सिंध बैन का निजीकरण किया जाएगा। जिन बैंकों का विलय नहीं हुआ हैं, सरकार उन बैंकों का निजीकरण करने जा रही है।
निजीकरण में एक बहुत बड़ी बाधा है वह है इन बैंकों का एनपीए।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण करना समस्या का समाधान नहीं है, निजीकरण से वास्तविक समस्या छिप जायेगी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भी निजी क्षेत्र के बैंक दीवालिया हुए थे और उनका सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों में विलय किया गया था।
सरकारी बैंकों की समस्या प्रशासन और नियामक ढाँचे में व्याप्त विसंगतियों के कारण है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के बजाए दीर्घकालीन ढांचागत सुधार किये जाने की जरूरत है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की समस्या केवल प्रभावी व कठोर
एनपीए के जाल से और घाटे से उबरने का एकमात्र रास्ता है कि सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर अधिक निवेश किया जाए। विकसित देशों में मानव संसाधन पर ही अधिक निवेश किया जाता है। इसके अंतर्गत नये स्टाफ की भर्ती की जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान में बैंकर्स अधिक काम के बोझ से लदे हुए हैं। बैंकों में कंप्यूटर, वित्त, वित्त विश्लेषक, क़ानूनी, औद्योगिक विशेषज्ञ की नियुक्तियां होनी आवश्यक है।
बैंक प्रशिक्षण का उद्देश्य (Bank training objective) स्टाफ और बैंक की कार्यक्षमता एवं प्रभावशीलता को उन्नत बनाना होना चाहिए। बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों को यथार्थ प्रशिक्षण दिए जाने की जरूरत है। उस प्रशिक्षण के अनुसार ही उनकी नियुक्ति की जानी चाहिए। बैंकों के हर स्तर पर प्रभावी संवाद प्रवाह को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है। निरंतर बदलते हुए परिवेश में बैंकों, वित्तीय संस्थाओं को व्यवसाय करते समय ऐसे वित्तीय निर्णय लेने चाहिए जिससे बैंकों, वित्तीय संस्थाओं की संपत्तियों, आस्तियों में निरंतर वृद्धि होती रहे लेकिन वृद्धि होना तो दूर, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं को अपना अस्तित्व बनाये रखना भी कठिन हो गया है। सार्वजनिक बैंक वाणिज्यिक बैंकों की तरह व्यवसाय क्यों नहीं करती हैं?
सरकारी बैंकों की परिचालन व्यवस्था में अभी सुधार की आवश्यकता है। बैंकिंग उद्योग में शीर्ष स्तर पर पेशेवरों की ही नियुक्ति होनी चाहिए। सरकारी बैंकों के बोर्ड में पेशेवर निदेशक होने चाहिए और इन निदेशकों को स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए जिससे इनकी जवाबदेही सुनिश्चित की जा सकें। व्यावहारिक रूप से बैंकों में शीर्ष प्रबंधन स्तर पर कोई जवाबदेही प्रणाली मौजूद नहीं है, जिसकी वजह से गैर निष्पादित आस्तियों की समस्या और अधिक बढती जा रही है।
नरसिम्हन समिति की सिफारिश थी कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रमुख और कार्यकारी निदेशकों का कार्यकाल कम से कम पांच वर्ष का होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर भी सरकार ने ध्यान देना होगा। वित्त मंत्रालय और सम्बंधित मंत्रालयों में अधिकारियों की नियुक्तियां और उन्हें बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं में प्रशिक्षण प्रदान करने की एक व्यवस्थित प्रणाली होनी चाहिए। सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर ध्यान देना होगा।
विकसित देशों में मानव संसाधन पर ही अधिक निवेश किया जाता है। आरबीआई ने साइबर सिक्योरिटी और आईटी सिस्टम को मजबूत करने के लिए बैंकों से पर्याप्त संख्या में आईटी एक्सपर्ट की भर्तियाँ करने को कहा है। सरकारी बैंकों में मानव संसाधन विकास पर अधिक निवेश किया जाए। इसके अंतर्गत नये स्टाफ की भर्ती की जानी चाहिए क्योंकि वर्तमान में बैंकर्स अधिक काम के बोझ से लदे हुए है। बैंकों में कंप्यूटर, वित्त, वित्त विश्लेषक, क़ानूनी, औद्योगिक विशेषज्ञ की नियुक्तियां होनी आवश्यक है। सरकारी बैंक आकर्षक सैलरी पैकेज और अन्य विशेष सुविधाओं का प्रोत्साहन देकर प्रतिभावान बैंकिंग प्रोफेशनल्स को आकर्षित कर सकते हैं। सरकार का वित्त मंत्रालय रिजर्व बैंक को निर्देशित करें कि वह सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के बैंक कर्मचारियों के एक समान नियम-कायदे बनाए।
नरसिम्हन समिति ने 20 साल पहले ही इसकी सिफारिश की थी कि बैंकों पर दोहरा नियंत्रण समाप्त होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में इस पर ध्यान नहीं दिया गया। दोहरे नियंत्रण से बहुत बार विकट परिस्थिति निर्मित हो जाती है। बहुत बार सरकार और आरबीआई दोनों ही बैंकों पर नियंत्रण नहीं करती है। केंद्रीय बैंक का स्वतंत्र होना ज़रूरी है। उसकी स्वायत्तता सुनिश्चित की जानी चाहिए। सरकारी बैंकों के प्रबंधन में कसावट लानी होगी। अग्रिमों की निगरानी के लिए केंद्रीय स्तर पर एक विशेष मजबूत निगरानी तंत्र विकसित करने की जरूरत है। बैंकों के सतर्कता विभाग को सुदृढ़ करने की जरूरत है।
बैंकिंग सतर्कता आयोग के गठन पर देश के नीति निर्माताओं ने विचार करना चाहिए। वित्तीय धोखाधड़ी और घोटालों की जांच ऐसी एजेंसी को दे दी जाती है, जिसके पास विशिष्ट कौशल का अभाव है और इस प्रकार की वित्तीय धोखाधड़ी की जांच करने की क्षमता भी नहीं है। गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (एसएफआईओ) में ही अन्य जांच एजेंसियों के समान मानव संसाधन की कमी है। कुछ कॉर्पोरेट्स द्वारा कई डिफॉल्ट किये गए लेकिन क्रेडिट ब्यूरो द्वारा ये डिफॉल्ट उनके क्रेडिट इतिहास में पंजीकृत नहीं किये गए है। संबंधित एजेंसियों की निष्क्रियताओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए। फंसे कर्ज के प्रकरणों की संख्या को देखते हुए सरकार को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) की और शाखाएं खोलनी चाहिए तथा ट्रिब्यूनल की क्षमता बढ़ाई जानी चाहिए। जोखिम प्रबंधन में आमूलचूल परिवर्तन की ज़रूरत है। देश में एक स्वतंत्र ऋण प्रबंधन एजेंसी की आवश्यकता है। सरकार को बैंकों के आतंरिक प्रशासन में सुधार तथा विधिक प्रणाली को और बेहतर बनाने की दिशा में अतिशीघ्र काम करना होगा। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के क्षेत्र में निजीकरण के बजाए अनुशासन के साथ व्यापक सुधारों की दरकरार है।
दीपक गिरकर