कोविड-19 की दूसरी लहर इतनी ऊंची होगी इसका ठीक-ठीक अनुमान भारत सरकार को नहीं रहा होगा और इसलिए, इस लहर के धक्के से जांच से लेकर उपचार तथा टीकाकरण तक, सारी की सारी व्यवस्थाओं के पिछले एक पखवाड़े में चरमरा जाने की बात, फिर भी समझी जा सकती है। यह इसके बावजूद है कि इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक के वैज्ञानिक ज्ञान के स्तर और कोविड-19 के संक्रमण के एक साल के पूरी दुनिया के अनुभव के बाद, शासन का दूसरी लहर का पूर्वानुमान ही नहीं कर पाना भी अपने आप में गंभीर चूक का ही मामला माना जाएगा।
... और दूसरी लहर की विकरालता का ठीक-ठीक अनुमान न लगा पाना एक बात है, लेकिन उस समय जब कम से कम दूसरी लहर की संभावना से इंकार किसी भी अंतर्राष्ट्रीय या वैज्ञानिक एजेंसी ने नहीं किया था, बचाव के उपाय के तौर पर ही सही, इसकी रत्तीभर तैयारी नहीं किया जाना तो अक्षम्य ही है। लेकिन, अगर पहले से तैयारियां नहीं कर पाना अक्षम्य है तो, महामारी की ऊंची लहर के हमले के बीचौ-बीच भी, जब अस्पताल में बैड, आक्सीजन, कोरोना पर असर रखने वाली दवाओं व वेंटिलेटर के अभाव में बढ़ती संख्या में लोग दम तोड़ रहे हैं और श्मशानों/ कब्रिस्तानों के बाहर लाइनें लग गयी हैं, सत्ता के शीर्ष पर बैठे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री आदि का ध्यान कहीं और ही होने को क्या कहा जाएगा?
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री समेत, सरकार के शीर्ष नेतृत्व का ध्यान इस महाआपदा की ओर न होकर कहीं और होने के सबूतों के लिए कहीं दूर जाने
इसके अलावा, संभवत: अपनी उप-चुनाव की अपील तथा बंगाल की चुनावी सभाओं के बीच किसी समय फुर्सत निकालकर प्रधानमंत्री ने जूना अखाड़े के महामंडलेश्वर, अवधेशानंद गिरि को फोन कर, उनसे दो शाही स्नान हो चुके होने के बाद, अब बाकी स्नान सांकेतिक ही रखने तथा भीड़-भाड़ के लिहाज से कुंभ को संक्षिप्त करने का अनुरोध भी किया था।
याद दिला दें कि कुंभ में जमा हो रही भारी भीड़ के चलते बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलने की आशंकाओं तथा एक अखाड़े के महामंडलेश्वर की मृत्यु समेत खासी संख्या में साधुओं व आम तीर्थयात्रियों के संक्रमित हो जाने के बाद, देशी-विदेशी जनमत के भारी दबाव में कुछेक अखाड़ों ने इस बार कुंभ को दो स्नानों के बाद संक्षिप्त ही कर लेने का एलान किया था। लेकिन, जूना अखाड़े ने जो कि कुंभ में सबसे बड़ा अखाड़ा होता है, इस विचार को खारिज कर दिया था।
जैसे महामारी के बेकाबू होते संकट के बीच सरकार की औंधी प्राथमिकताओं का इतना बेपर्दा होना ही काफी नहीं हो, उसी रोज महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के मुख्यमंत्री, उद्धव ठाकरे का चिंताजनक बयान सामने आ गया। अस्पतालों में आक्सीजन तथा कोविड के लिए कारगर मानी जा रही रेमडेसिविर जैसी दवा की भारी कमी के संकट से जूझ रहे, देश में सबसे ज्यादा कोविड प्रभावित इस राज्य के मुख्यमंत्री ने, केंद्र से सहायता मांगने के लिए, प्रधानमंत्री से बात करने का प्रयास किया था।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह तत्काल मदद मांगने का मामला था, लेकिन, प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें बताया गया कि प्रधानमंत्री से उनकी बात नहीं हो सकती थी क्योंकि प्रधानमंत्री प. बंगाल में चुनाव प्रचार में व्यस्त थे! महामारी के संकट से निपटने के कदमों को प्रतीक्षा करना होगा--प्रधानमंत्री चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं।
इसीलिए, हमने शुरू में ही कहा कि यह सिर्फ महामारी की दूसरी लहर का पूर्वानुमान नहीं कर पाने का ही मामला नहीं है। यह तो महामारी के विस्फोट के बीच भी मोदी सरकार के अपने साम्राज्य की रक्षा तथा विस्तार को ही सर्वोच्च प्राथमिकता बनाए रखने का मामला है।
मोदी राज के अपने राजनीतिक स्वार्थों को सर्वोच्च रखने का ही सबूत है कि वही संघ-भाजपा जोड़ी, जो भीड़ से कोरोना के ज्यादा फैलने के खतरे को देखते हुए, दो शाही स्नानों के बाद कुंभ को संक्षिप्त कराने की प्रधानमंत्री की अपील का समर्थन कर रही थी, जैसा कि प्रधानमंत्री की पूर्व-बर्द्धमान की चुनाव सभा से साफ है, प. बंगाल में चुनाव सभाओं में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाने में लगी हुई है।
प्रधानमंत्री की उक्त सभा से एक रोज पहले, देश के गृहमंत्री अमित शाह ने दो स्थानों पर जन सभाएं और दो स्थानों पर रोड शो आयोजित कर बड़ी भीड़ें जुटायी थीं। पहले वाम मोर्चा द्वारा तथा बाद में कांग्रेस द्वारा भी कोविड के संकट को देखते हुए, बड़ी चुनाव सभाएं न किए जाने की घोषणा किए जाने की पृष्ठभूमि में, सीधे प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री के नेतृत्व में चुनाव सभाओं के जरिए भीड़ें जुटाए जाने पर पूछे जा रहे सवालों के सामने, देश के गृहमंत्री को आधिकारिक रूप से यह सरासर बेतुका दावा करने में भी कोई हिचक नहीं हुई कि चुनाव सभाओं में जमा हो रही भीड़ों का, कोविड के फैलने से कोई संबंध नहीं है। कोविड तो उन राज्यों में ज्यादा फैल रहा है, जहां चुनाव नहीं हो रहे हैं!
अचरज की बात नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के बंगाल में चुनाव के आखिरी चार चरणों का मतदान एक साथ कराए जाने के सुझाव को भाजपा द्वारा अनदेखा कर दिए जाने को देखते हुए, चुनाव आयोग ने भी हाथ के हाथ खारिज कर दिया है।
सभी जानते हैं कि बंगाल में चुनाव का अभूतपूर्व तरीके से आठ चरणों और पूरे 33 दिनों में फैलाया जाना, साफ तौर पर मोदी और शाह को अधिकतम चुनाव सभाएं करने का मौका देता है। साफ है कि संघ-भाजपा चुनाव आयोग की मदद से हासिल हुए, इस संभावित अतिरिक्त चुनावी लाभ को, संक्रमण बढऩे के खतरों को कम करने के लिए छोडऩे के लिए तैयार नहीं हैं।
बहरहाल, मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में संघ-भाजपा की स्वार्थपरता, सिर्फ महामारी की चुनौती के बीच अपने राजनीतिक-चुनावी स्वार्थों को साधने की उनकी कोशिशें जारी रहने तक सीमित नहीं रही है। उनकी यह अंधी स्वार्थपरता इससे आगे, महामारी से पैदा हुए संकट को सीधे अपने राजनीतिक स्वार्थों को आगे बढ़ाने का अवसर बनाने तक भी जा रही है। इसका एक इशारा तो तभी मिल गया था, जब प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के नेताओं तथा कार्यकर्ताओं से टीकाकरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने का आग्रह किया था। इसी को आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री ने ‘‘टीका उत्सव’’ के नारे के तौर पर ‘ईच वन वैक्सीनेट वन’ का नारा भी दिया था। फिर भी टीकाकरण की पूरी प्रक्रिया इतनी ज्यादा संस्थानिक तथा विशेषज्ञ संचालित है कि उसमें राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। बहरहाल, महामारी का प्रकोप तेजी से बढऩे के साथ, अस्पतालों में बैड से लेकर आक्सीजन तथा वेंटीलेटर तक पहुंच हासिल कराने में, सत्ताधारी पार्टी का इजारेदाराना हस्तक्षेप शुरू हो गया।
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कोविड मरीजों के लिए अस्पताल में बैड के लिए, चीफ मैडीकल ऑफीसर की पर्ची अनिवार्य हो गयी और उसके दरवाजे सत्ताधारियों तथा उनकी पार्टी के नेताओं की सिफारिशों से खुलने लगे। रोगियों का अधिकार अब, सत्ताधारियों की कृपा का मामला बन गया। और जैसे इतना भी काफी नहीं हो, मोदी-शाह और हिंदुत्व के मॉडल राज्य, गुजरात में भाजपा नेताओं ने, कोविड-19 संक्रमण के खिलाफ कारगर मानी जाने वाली लगभग इकलौती दवा, रेमडेसिविर के इंजैक्शनों की जमाखोरी और ऐलानिया पार्टी दफ्तरों से उनका वितरण शुरू कर दिया।
दूसरी ओर, गुजरात और केंद्र सरकार के हस्तक्षेप ने यह सुनिश्चित किया कि गुजरात में बन रही यह दवा, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश जैसे भाजपा-शासित राज्यों में ही पहुंच रही थी, जबकि महाराष्ट्र जैसे विपक्ष शासित राज्यों को अपनी सारी कोशिशों के बावजूद यह दवा नहीं मिल पा रही थी।
और हद्द तो तब हो गयी, मुंबई पुलिस ने रेमडेसिविर के दसियों हजार इंजैक्शनों की अवैध रूप से जमा की गयी एक विशाल खेप पकड़ी तो, भाजपा के पूर्व-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस पुलिस के सामने यह दावा करने पहुंच गए कि यह दवा भाजपा ने खरीदी थी, जरूरतमंदों को बांटने के लिए। जो दवा महाराष्ट्र सरकार के खरीदने के रास्ते बंद थे, वह भाजपा के खरीदने के लिए उपलब्ध थी और वह भी तब जबकि कानून यह है कि यह दवा अस्पताल में भर्ती मरीजों को ही दी जा सकती है और कोई भी व्यक्ति या संगठन उन्हें खरीद कर जमा नहीं कर सकता है। लेकिन, सत्ताधारी संघ-भाजपा को तो मोदी राज में कब का देश के कानूनों से ऊपर उठाया जा चुका है!
कोविड के संक्रमण की घातकता घटाने में रेमडेसिविर की कारगरता, कोविड की पहली लहर के शुरूआती महीनों में ही सामने आ चुकी थी और हमारे देश में उसका एक हद तक उपयोग भी हो रहा था। इसे देखते हुए, रेमडेसिविर की उपलब्धता न बढ़ाए जाने को, घोर अदूरदर्शिता तथा लापरवाही का ही मामला कहा जाएगा। जाहिर है कि मौजूदा सरकार की ऐसी ही मुजरिमाना लापरवाही के नतीजे आज आक्सीजन से लेकर अस्पतालों में बैडों, वेंटीलेटरों आदि की भारी कमी के रूप में भी देखे जा सकते हैं। और तो और टीके के नाम पर मोदी सरकार के हर मंच से अपनी पीठ ठोकने के बावजूद, सचाई यही है कि टीके के विकास, उत्पादन तथा टीकाकरण की इस सरकार की नीतियों का नतीजा यह हुआ है कि भारत के दुनिया का सबसे बड़ा टीका उत्पादक होने के बावजूद, न सिर्फ भारत में अब तक आबादी के बहुत छोटे हिस्से को ही टीके लगाए जा सके हैं बल्कि देश में टीके की भारी तंगी भी पैदा हो गयी है। और यह तंगी विपक्ष-शासित राज्यों के साथ भेदभाव की शिकायतें भी पैदा कर रही हैं। और मोदी सरकार के पास इस बस का एक ही जवाब है--हैडलाइन मैनेजमेंट।
दुर्भाग्य से बढ़ते संकट का यह ध्यान बंटाऊ प्रत्युत्तर, हालात को और बिगाड़ने का ही काम करता है क्योंकि संकट की मौजूदगी की सचाई को पहचाने बिना, उससे निपटने की शुरूआत तक नहीं हो सकती है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। पेंतालीस साल तक की उम्र वालों के टीकाकरण से बाहर रखे जाने के बावजूद, टीके की तंगी के बढ़ते शोर के जवाब में नरेंद्र मोदी ने, देश भर में चार दिन के ‘‘टीका उत्सव’’ का एलान किया था। इसे टीकाकरण की मुहिम बताया गया था। लेकिन, नतीजा? इन चार दिनों में कुल टीकाकरण, उससे पहले के चार दिनों से भी कम रहा। चार दिन के टीका उत्सव में कुल 1.25 करोड़ टीके लगाए गए, जबकि इससे पहले के चार दिनों में ही, 1.49 करोड़ टीके लगाए गए थे!
राजेंद्र शर्मा