नई दिल्ली, 08 दिसंबर 2020. पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज- People's Union for Civil Liberties, (पीयूसीएल) नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा और उसे सशक्त करने के लिए प्रतिबद्ध संगठन है। राजनीतिक और आर्थिक वैचारिक मतभेदों के बावजूद वे सभी लोग इसके सदस्य बन सकते हैं जो देश हित में नागरिक स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक अधिकारों के हिमायती हैं। पीयूसीएल ने किसान विरोधी कानून निरस्त करने की अपील करते हुए कहा है कि विरोध जाहिर करने के लोकतांत्रिक अधिकार का सम्मान किया जाए।
“पीयूसीएल का मकसद है, भारत में लोकतांत्रिक पद्धति की हिफाज़त और शांतिपूर्ण तरीके अपना करके इसका सशक्तिकरण। यह हमारे लिए आस्था और विश्वास का विषय है। यही कारण है, पीयूसीएल लाखों किसानों के अहिंसक और शांतिपूर्ण संघर्ष का समर्थन कर रहा है और उनके इस संघर्ष में उनके साथ है। ये किसान ठंड में ठिठुरते, खुले आसमान के नीचे दिल्ली की सरहदों पर धरना दिए डटे हैं। देश में जारी कृषि संकट के इस दौर में, जिस समय देश के किसानों को सरकार का भरपूर समर्थन मियना चाहिए, भारत सरकार बड़ी कंपनियों की हिमायत और किसानों को कमजोर कर रही है। इससे अधिक दुखद स्थिति और क्या हो सकती है!
पीयूसीएल किसानों का उनके इस संघर्ष में पूरी तरह से समर्थन करती है।
पीयूसीएल का मत है, भारत सरकार को प्रदर्शनकारी किसानों की मांगों को पूरा करना चाहिए और लोकतांत्रिक मानदंडों की धज्जियां उड़ाते हुए संसद में सितंबर, 2020
आज किसानों का यह संघर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की हिफाजत और कृषि संबंधित दो नए कानूनों तथा एक संशोधित कानून को निरस्त करने की मांग से काफी आगे निकल चुका है। ये तीन कानून हैं - 1) मंडियों (एपीएमसी) के बाहर फसल बेचने से संबंधित ''कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020''); निजी कंपनियों के बीच में संविदा खेती से संबंधित "कृषि (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य अश्वासन और कृषि सेवा करार विधेयक, 2020''. और 3) ''आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020'', जिसके जरिए उपज की जमाखोरी पर से प्रतिबंध खतम करके निजी निवेश के लिए छूट प्रदान की गई है।
हम समझते हैं, इन कानूनों के खिलाफ किसानों का जारी संघर्ष देश की आधी आबादी के लिए अस्तित्व की रक्षा का संधर्ष है। यह संघर्ष कृषि में उत्पादन, उचित मूल्य निर्धारण, भंङारण (जमाखोरी), बाजारों और खुदरा विपणन पर कापनियों (कॉर्पोरेट पूंजी) के चंहुमुखी नियंत्रण के खिलाफ है। अगर इन कानूनों को बरकरार रखा गया तो किसानों से उनकी जमीन छिन जाने और उनके भूमीहीन, बंधुआ स्थिति में आ जाने का खतरा है। किसानों की इस बरबादी को हल्के ढंग से अलग नहीं लिया जा सकता है। वैसे भी इन दो वर्षों से कृषि क्षेत्र जबरदस्त संकट के दौर से गुजर रहा है।
संविधान के अनुसार कृषि राज्य सरकार का विषय है। ये कानून किसानों या राज्य सरकारों से सलाह मशविरा किए बगैर बनाए गए हैं। इस संघर्ष के साथ यह भी जाहिर हुआ है, किस तरह विधायिका और न्यायिक प्रक्रिया को कमजोर करके विधि निर्माण में कार्यपकयिका के माध्यम से कानून बनाए जा रहे हैं।
कुल मिलाकार यह संघर्ष जनता के संगठित होने, विरोध प्रदर्शित करने और अपनी बात कहने-सुने जाने के मूल लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों की हिफाजत का संघर्ष है।
आंदोलन पर सरकार के दमन की पीयूसीएल निंदा करता है। किसानों की मांगों के पर लोकतांत्रिक तरीके से विचार करने की जगह सरकार ने आंदोलन का इस तरीके से दमन करने की कोशिश की है, गोया कि शत्रु देश के साथ कोई जंग छिङ़ी हो। पहले तो सरकार ने ये कानून अलोकतांत्रिक तरीके से पारित किए, फिर किसानों को अपनी मांगे लेकर दिल्ली पहुचने से रोकने के लिए पुलिस और अर्द्ध सैन्य बलों का इस्तेमाल किया, उनके खिलाफ सैकङ़ों मुकदमें थोप दिए, नाकाबंदी की, बेरकेड लगाकर अवरोध खड़े किए, सड़कों को खोद करके खाइयां बनाईं, तेज धार के साथ पानी की बौछार की, भारी संख्या में पुलिस व अद्ध सैन्य बल तैनात किया। शुरुआत में हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सीमा पर, फिर दिल्ली की सीमा की नाकाबंदी करके आंदोलित किसानों को रोकने की कोशिश की गई। इतना ही नहीं, किसानों की मांगों को तिरस्कृत और बदनाम करने के खातिर भाजपा के कुछ सदस्यों, मंत्रियों, सोशल मीडिया और मीडिया के एक वर्ग ने प्रदर्शनकारियों को देशद्रोही, खालिस्तानी और आतंकवादी करार देते हुए दुष्प्रचार अभियान शुरू कर दिया। राज्य और उसके समर्थकों द्वारा किसानों की मांगों को खारिज, तिरस्कृत करने और उसका उपहास करने के इस अभियान के तहत महिला प्रदर्शनकारियों को भाड़े पर लाई गई बता करके संघर्ष की अहमियत कम करने की कोशिश की। सरकार और आंदोलनकारियों के बीच वार्ता के अनेक दौर चले परंतु बेनतीजा रहे। इनसे जाहिर हो गया, सरकार का मकसद आंदोलन को थकाना, कुचलना, अधिकाधिक दुष्प्रचार करके बदनाम करना भर है, समस्या का समाधान करना नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय में "भोजन के अधिकार" के लिए पीयूसीएल ने 16 साल से अधिक समय में लगातार जनहित याचिकाएं दायर करके लाखों गरीब और हाशिए पर जीवन यापन के लिए मजबूरों के लिए भोजन, पोषण और आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले कई आदेश पारित कराने में सफलता पायी है।
"भोजन का अधिकार अभियान" के संदर्भ में हमारा कहना है, ये नए कानून और संशोधन एक बड़ी योजना का हिस्सा हैं, सरकार खाद्य सुरक्षा के दायित्व से मुक्त होना चाहती है। आंदोलित किसानों का कहना है, कृषि उपज विपणन समिति (मंडियों) व्यवस्था को कमजोर करने से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की सम्पूर्ण व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। इस प्रकार खरीद की सार्वजनिक व्यवस्था को कमजोर करने के बाद, सरकार नकद भुगतान करके सार्वजनिक वितरण प्रणाली (राशन व्यवस्था) से हाथ खींच लेगी, हालांकि यह गरीबों के जीवन के लिए बहुत बङ़ा संबल है। खाद्यान्नों में निर्यात रोकने के लिए देश में कानून नहीं हैं, ऐसे में कामकाजी गरीबों की क्रय शक्ति में गिरावट के साथ खाद्यान्नों में निर्यात बढ़ेगा और देश में लोग भूख से मर रहे होंगे।
भारत पहले भी विश्व व्यापार संगठन (WTO) और अन्य विकसित देशों के दबाव का विरुद्ध विकासशील और अल्प विकसित देशों के हितों की रक्षा के संघर्ष की अगुआई करता रहा है। सामाजिक शांति-व्यवस्था कायम रखने के आधार को बल देते हुए इस संघर्ष में भारत ने सदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के लिए खाद्यान्न की खरीद और भंडारण करने की हिमायत की है। आज जरूरी तो यह है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का विस्तार किया जाए। बाजरा, दाल और तिलहन सहित सभी फसलों की समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद की व्यवस्था प्रभावी तरीके से लागू की जाए। इन खाद्यानों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में शामिल करने से पोषण में सुधार होगा, साथ ही छोटे किसानों का भला होगा।
पीयूसीएल विधि निर्माण प्रक्रिया में विधिक और न्यायिक अधिकार से वंचित करने वाली जारी खतरनाक प्रवृत्ति की ओर भी ध्यान आकर्षित करना चाहता है। इस सिलसिले में किसानों का यह कहना दुरुस्त नज़र आता है कि इन कानूनों को संशोधित करने की जगह इन्हें खतम करने की जरूरत है। ये कानून बनाए गए ही बदनियत के साथ हैं।
किसानों के उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020 की धारा 13 में साफ कहा गया है,
“इस अधिनियम के तहत किसी भी नियम या आदेश के तहत सद्भावना से किए गए किसी भी कृत्य के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकार या किसी भी अधिकारी या अन्य किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई मुकदमा, अभियोजन या अन्य कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।“
धारा 15 में यह भी कहा गया है,
“इस अधिनियम या उसके तहत अधिकार प्राप्त किसी भी प्राधिकारी द्वारा जिस मामले में संज्ञान लिया जा सकता है या मामले का निपटान किया जा सकता है, ऐसे किसी भी मामले पर विचार करने का दीवानी अदालत का क्षेत्राधिकार नहीं होगा। वह ऐसे मामलों में दीवानी अदालत में कोई मुकदमा, कार्यवाही या किसी मामले का निबटारा नहीं किया जा सकेगा।”
इस तरह के मामले परगना अधिकारी (SDM) के स्तर पर निपटाए जाएंगे।
इसी प्रकार, किसानों के उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकारण) अधिनियम, 2020 की धारा 18 में कहा गया है कि “केंद्र सरकार, राज्य सरकार, पंजीकरण प्राधिकरण, उप- प्रखंङीय प्राधिकरण, अपीलीय प्राधिकरण या किसी भी इस अधिनियम के प्रावधानों या उसके नियमों के तहत अन्य किसी व्यक्ति द्वारा सद्भावना से किए गए किसी भी कार्य के खिलाफ कोई मुकदमा, अभियोजन या अन्य कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकेगी। इसके साथ धारा 19 में कहा गया है, "दीवानी अदालत का क्षेत्राधिकार ऐसे किसी मुकदमे या विवाद में कार्यवाही के लिए नहीं होगा, जिसके लिए इस अधिनियम या उसके अंतर्गत किसी भी नियम के तहत उप-प्रखंङीय प्राधिकरण या अपीलीय प्राधिकरण निर्णय करने के लिए सक्षम है। इस अधिनियम या इसके तहत नियम द्वारा प्रदत्त किसी भी शक्ति के अनुसरण में की गई किसी भी कार्रवाई के संबंध में किसी भी अदालत या अन्य प्राधिकारण द्वारा फैसला या निषेधाज्ञा जारी करने का अक्तियार नहीं होगा।
दीवानी अदालतों के जरिए समाधान के विकल्प को बाधित क्यों किया गया है, जबकि भविष्य में व्यापारियों, ठेकेदार और अन्य पक्षों के बीच विवादों की संभावना, जिंदा हकीकत है। राजस्व अधिकारियों का सीमित क्षेत्राधिकार राजस्व अभिलेखों से संबंधित होता है। न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण के स्पष्ट सिद्धांत के बावजूद निहित स्वार्थों की रोकथाम से ताल्लुक रखने वाले इस कदर बेतहाशा अधिकार कार्यपालिका से संबंधित अधेदकरियों को देने का क्या मतयब है।
भारत सरकार से हमारी मांग है:
1. सबसे पहले इन कानूनों को रद्द एवं शून्य घोषित किया जाए।
2. किसानों के विरुद्ध कायम सभी मुकदमे वापस लिए जाएं।
3. विरोध प्रदर्शन के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार का भारत सरकार को सम्मान करना चाहिए और किसानों को विश्वास में लेकर उनके साथ बात करना चाहिए।
4. भारत सरकार को देश के संविधान में निहित संधात्मक व्यवस्था के सिद्धांतों का सम्मान और कृषि क्षेत्र को सशक्त करने के लिए इससे संबंधित सभी पहलुओं और व्यवस्थापन में राज्य सरकारों को समान भागीदार बनाना चाहिए, ताकि यह आत्मनिर्भर, स्वाधीन और टिकाऊ बन सके।
5. विधि निर्माण प्रक्रिया में कार्यपकलिका की शक्तियों को इस तरह प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए कि विधायिका और न्यायपालिका के जरिए समाधान के अवसर बाधित हो। विधि निर्माण क्षेत्र में पनप रही इस प्रकार प्रवृति और तौर-तरीके बंद होने चाहिए।
5 दिसंबर, 2020”