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पलाश विश्वास

आज यूपी (उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2017- Uttar Pradesh Assembly Elections 2017) में दूसरे चरण का मतदान था। उत्तराखंड में भी आज जनादेश की कवायद है। इससे एक दिन पहले तमिलनाडु में दिवंगत जयललिता को चार साल की कैद के अलावा सौ करोड़ के जुर्माने की सजा सुप्रीम कोर्ट ने सुना दी है तो बंगाल में कल ही लव जिहाद के खिलाफ हिंदुत्व का घनघोर अभियान गायपट्टी की तर्ज पर चला है।

शशिकला की जेलयात्रा के साथ साथ तमिलनाडु और तमिल राजनीति पूरी तरह संघ परिवार के शिकंजे में है। अन्नाद्रमुक द्रमुक आंदोलन की तरह दो फाड़ है और द्रमुक भी इस जुगत में है कि या तो सत्ता उसे किसी समीकरण के साथ मिल जाये या फिर मध्यावधि चुनाव हो जाये।

जाहिर है कि जो भी सरकार बनेगी, वह केंद्र सरकार के रहमोकरम पर होगी। तमिल राष्ट्रीयता तीन धड़ों में बंट गयी है और सत्ता समीकरण जो भी हो,  तमिलनाडु में संघ परिवार की सेंधमारी चाकचौबंद है।

जो भी नई सरकार बनेगी, वह जाहिर है कि केंद्र सरकार से नत्थी हो जायेगी और उस धड़े के सांसद केसरिया अवतार में होंगे। जो भूमिका बंगाल के तृणमूल की संसद में रही है।

भारत संविधान के मुताबिक लोक गणतंत्र है।

संविधान के मुताबिक संसदीय लोकतंत्र है।

विविधता और बहुलता में एकता के मकसद से राष्ट्र का ढांचा संसदीय है और भाषावार राज्यों का भूगोल बना है।

अमेरिका में पचास राज्य है। वहां संघीय ढांचे में राज्यों को ज्यादा स्वतंत्रता और स्वायत्ता है। हर राज्य का अपना कानून है। संघीय कानून सर्वत्र लागू होता नहीं है। वहां भी राष्ट्रीयताओं को स्वयात्तता है। इसी तरह सोवियत संघ में स्टालिन ने सभी राष्ट्रीयताओं को को समाहित

करने के बवाजूद उनकी स्वायत्ता को खत्म नहीं किया था। इसके विपरीत भारत में केंद्रीयकृत सत्ता है।

तमाम राष्ट्रीयताएं और राज्य केंद्र की सत्ता के आधीन बंधुआ हैं, जिनकी अपनी कोई स्वायत्तता या स्वतंत्रता नहीं है।

राष्ट्र की सैन्यशक्ति राष्ट्रीयताओं के दमन में लगी है।

मध्यभारत का आदिवासी भूगोल हो या मणिपुर और समूचा पूर्वोत्तर या फिर कश्मीर सर्वत्र यही कहानी है।

बाकी हिमालयी क्षेत्र में गोरखालैंड आंदोलन के जरिये गोरखा राष्ट्रीयता के उभार के अलावा बाकी जगह फिलहाल केंद्र सरकार और उनके सूबेदारों की तानाशाही के बावजूद, घनघोर अस्पृश्यता के बावजूद, पलायन और विस्थापन के बावजूद अमन चैन है। अमन चैन इसलिए है कि न हिमाचल और उत्तराखंड में कोई आंदोलन है। राष्ट्र के दमन के बीभत्स चेहरे से वे फिलहाल मुखातिब वैसे नहीं है, जैसे कश्मीर,  मणिपुर,  छत्तीसगढ़ , झारखंड या पंजाब की राष्ट्रीयताओं की अभिज्ञता है।

यह अमन चैन कैसा है, उदाहरण के लिए हिमाचल और उत्तराखंड हैं, जहां बारी बारी से कांग्रेस और भाजपा में सत्ता हस्तांतरण है और जन पक्षधर ताकतों का कोई प्रतिनिधित्व राजनीति और सत्ता में नहीं है। आम जनता के जनादेश से एक से बढ़कर एक भ्रष्ट नेता केंद्र या राज्य में सत्ता के दम पर पूरा प्रदेश और उसके संसाधनों का खुल्ला दोहन कर रहे हैं। जनहित, जन सुनवाई हाशिये पर है।

उत्तराखंड के साथ पहले झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य बनाकर इन राष्ट्रीयताओं के केसरियाकरण में संघ परिवारको नायाब कामयाबी मिल गयी है। बाद में तेलंगना अलग राज्य बनाकर तेलुगु राष्ट्रीयता दो फाड़ करके दोनों धड़ों का केसरियाकरण हुआ है।

झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल हैं। गोंड भाषा का भूगोल किसी भी भाषा के मुकाबले कम नहीं है। ब्रिटिश हुकूमत के समय गोंडवाना नाम से परिचित आदिवासी भूगोल कई राज्यों में बांट दिया गया है। संथाल, हो, मुंडा, भील, गोंड, कुड़मी जैसे आदिवासी समुदायों का दमन का सिलसिला आबाध है।

अब वहां अकूत खनिज संपदा, वन संपदा और जल संपदा के खुल्ला लूट का सलवा जुड़ुम है और सहहदों के बजायभारत के सैन्यबल और अर्द्ध सैन्यबल वहां केसिरया राजकाज के संरक्षण में निजी कारपोरेट पूंजी के हित में राष्ट्रीयताओं का दमन कर रहे हैं। आदिवासी भूगोल की रोजमर्रे की जिंदगी लहूलुहान है और बाकी देश की सेहत पर कोई असर नहीं है।

इसके बावजूद अमेरिका या सोवियत संघ की तरह भारत में किसी नागरिक को राष्ट्रीयता पर बोलना निषेध है। संसदीय राजनीति में भी यह निषिद्ध विषय है।

इसके विपरीत केंद्र सरकार, कारपोरेट कंपनियों और राजनीतिक दलों को इन राष्ट्रीयताओं के साथ खतरनाक खेल खेलने की खुली छूट है।

इस खतरनाक खेल के दो ज्वलंत उदाहरण पंजाब और असम हैं।

कश्मीर तो बाकायदा निषिद्ध विषय है और वहां की जनता के नागरिक और मानवाधिकारों पर सबकी जुबान बंद है।

बाकी देश से अलग थलग होने के साथ सात भारत पाक  युद्ध का रणक्षेत्र बने रहने की वजह से कश्मीर से बाकी देश के संवाद की कोई गुंजाइश नहीं है।

कश्मीर और मणिपुर में दोनों जगह सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून आफ्सा  लागू है। हम मणिपुर की जनता के हकहकूक को लेकर कमोबेश बोलते लिखते रहे हैं। कश्मीर के मामले में वह गुंजाइश भी नहीं है।

नागरिकों का बोलना लिखना मना है, लेकिन वहां सत्ता की राजनीति चाहे तो कुछ भी कर सकती है। इसका कुल नतीजा इस महादेश में परमाणु हथियारों की दौड़ है। आजादी के बाद कश्मीर को लेकर युद्ध की आड़ में देशभक्ति और अंध राष्ट्रवाद के रक्षा कवच से लैस सत्तावर्ग ने रक्षा सौदों में अरबों अरबों कमाया है और विदेशों में जमा कालाधन का सबसे बड़ा हिस्सा कश्मीर संकट की वजह से हथियारों की होड़ में अंधाधुंध रक्षा व्यय है, जो वित्तीय घाटा और लगातार बढ़ते विदेशी कर्ज के सबसे बड़े कारण हैं, लेकिन वित्तीय प्रबंधकों और अर्थशास्त्रियों के लिए भी रक्षा व्यय शत प्रतिशत विनिवेश के बावजूद निषिद्ध विषय है।

तमिल राष्ट्रीयता, सिख और पंजाबी राष्ट्रीयता, असमिया, मणिपुरी  और बंगाली राष्ट्रीयताएं आदिवासी भूगोल की राष्ट्रीयताओं और कश्मीरियत से कहीं कम संवेदनशील और विस्फोटक नहीं है, जहां भाषा, संस्कृति और मानसिकता केसरियाकरण और हिंदुत्वकरण की धूम के बावजूद वैदिकी संस्कृति से अलग है।

तमिल शासकों ने दक्षिण पूर्व एशिया में फिलीपींस से लेकर कंबोडिया तक अपना साम्राज्य विस्तार किया है और तमिल इतिहास का आर्यवर्त के भूगोल और इतिहास से कोई लेना देना नहीं है।

हिंदुत्व के सबसे भव्य और धनी हिंदू धर्मस्थल होने के बावजूद तमिलनाडु में द्रविड़ संस्कृति है। तमिल संस्कृत से भी प्राचीन भाषा है और तमिलनाडु के लोग तमिल के अलावा अंग्रेजी से भी कोई प्रेम नहीं करते। उनका इतिहास सात हजार साल तक निरंतर धाराप्रवाह है जहां कोई अंधायुग नहीं है।

अस्सी के दशक में तमिल ईलम विद्रोह को दबाने के लिए भारतीय शांति सेना पंजाब और असम में राष्ट्र के लहूलुहान हो जाने के बाद, बावजूद भेजी गयी थी। उसका अंजाम आपरेशन ब्लू स्टार जैसा भयंकर हुआ।

इसका अलग ब्यौरा दोहराने की जरूरत नहीं है।

बहरहाल पंजाब, असम और त्रिपुरा में राष्ट्रीयता के सवाल पर जो खतरनाक खेल खेला गया है, उसीकी पुनरावृत्ति अब बंगाल और तमिलनाडु में फिर हो रही है।

सरकारें आती जाती हैं लेकिन कश्मीर और असम की समस्याएं अभी अनसुलझी हैं, पंजाब के मसले सुलझे नहीं है। गोरखालैंड बारूद के ढेर पर है।

ऐसे में समूचे असम और पूर्वोत्तर से लेकर बंगाल तमिलनाडु तक हिंदुत्व की प्रयोगशाला में तब्दील है, इससे हिंदुत्व का पुनरुत्थान हो या न हो, इन राष्ट्रीयताओं के उग्रवादी से लेकर आतंकवादी विकल्प देश के भविष्य और वर्तमान के लिए भयंकर संकट में तब्दील हो जाने का अंदेशा है।

असम में साठ के दशक से संघ परिवार उल्फाई राजनीति के हिंदुत्व एजंडा को अंजाम दे रहा है तो अब असम में उल्फाई राजकाज संघ परिवार का है और अब संघ परिवार के कारपोरेट हिंदुत्व के निशाने पर न सिर्फ बंगाल, समूचा पूर्वोत्तर से लेकर तमिलनाडु तक हैं। ये बेहद खतरनाक हालात हैं।

बहरहाल, यूपी में जिन इलाकों में आज वोट गिरे हैं, वहां बाकी यूपी से मुसलमानों के वोट ज्यादा हैं। जो 26 फीसद के करीब बताया जाता है।  

पश्चिम यूपी में मुसलमानों के हिचक तोड़कर फिर दलित मुसलिम एकता के तहत भाजपा खेमे में आ जाने से संघियों के मंसूबे पर पानी फिर गया है।

मायावती ने सौ मुसलमान प्रत्याशियों को टिकट दिये हैं तो समरसता के संघ परिवार ने अमेरिकी राष्ट्रपति डान डोनोल्ड ट्रंप को यूपी जैसे राज्य में कोई टिकट नहीं दिया है, यह कल एच एल दुसाध ने डंके की चोट पर लिखा है।

इसका असर हुआ तो दूसरे चरण में ही छप्पन इंच का सीना कितना चौड़ा और हो जाता है, यह नजारा देखना दिलचस्प होगा।

जबकि हिंदू ह्रदय सम्राट और उनके गुजराती अश्वमेध विशेषज्ञ सिपाहसालार ने उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य को जीतने के लिए एढ़ी चोटी का जोर लगा दिया है और वहां भी इस चुनाव में मणिपुर की महिलाओं की तरह केंद्र की फासिस्ट सत्ता के खिलाफ महिलाएं मजबूती से लामबंद हो गयी है।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन की शहादतें मुखर होने लगी हैं और महिला आंदोलनकारियों के समर्थन से खड़े निर्दलीय उम्मीदवार कुमायूं और गढ़वाल में भाजपाइयों कांग्रेसियों के सत्ता समीकरण बिगड़ने में लगे हैं।

अलग राज्य बनने के बाद पलायन और विस्थापन में तेजी के अलावा उत्तराखंड को कुछ हासिल नहीं हुआ है, यह शिकायत आम है।

अब तय है कि जो भी हो, यूपी में संघ परिवार का वनवास खत्म नहीं होने जा रहा है। पंजाब में भी खास उम्मीद नहीं है।

गोवा में फिलहाल कांग्रेस बढ़त पर नजर आ रही है।

असम के बाद समूचा पूरब और पूर्वोत्तर को केसरिया बनाने की मुहिम तेज होने के मध्य उत्तराखंड में जीत हासिल करके साख बचाने की बची खुची उम्मीद के सहारे रामराज्य के कारपोरेट हिंदुत्व के ग्लोबल एजंडा पर अमल करने में भारी रुकावटें पैदा हो रही है।

दूसरी तरफ बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना नजारा है। मीडिया रिलायंस हवाले है तो देश रिलायंस है और इसलिए सुप्रीम कोर्ट की निषेधाज्ञा के बावजूद निजी चैनलों में केसरिया सुनामी है और अखबारी कागज भी अब सिरे से केसरिया है।

मालिकान के सत्ता समीकरण के मुताबिक एक श्रमजीवी पत्रकार संपादक ने चुनाव आयोग की निषेधाज्ञा के बावजूद एक्जिट पोल छाप दिया तो उसे गिरफ्तार कर लिया, उससे उस अखबार के या बाकी रिलायंस मीडिया के केसरिया एजंडा में फर्क नहीं पड़ा है। मसलन बंगाल में एक बड़े अंग्रेजी अखबार के बांग्ला संस्करण में दावा किया गया है कि नोटबंदी से यूपी और उत्तराखंड में संघ परिवार के वोट दो फीसद बढ़ गये हैं और भाजपा को बढ़त है।

इसी तरह तमाम रेटिंग एजंसियों, अर्थशास्त्रियों की भारतीय अर्थव्यवस्था की डगमगाती नैय्या पर खुली राय के विपरीत सर्वव्यापी,  सर्वज्ञ,  सर्वशक्तिमान मीडिया केसरिया रंगभेदी फासिस्ट हिंदुत्व के राजकाज में भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। इन्हीं झूठे ख्वाबों में गरीबी दूर करने और सुनहले दिनों का सच है।

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