80 के दशक में सरदूल सिकंदर की आवाज और गीत पंजाब की फिजाओं में जोश और खुशियों के रंगों से लबरेज थे। अंताकवाद के दौर के बाद पंजाब का माहौल ज़ख्मों को भुलाने की कोशिश में नयी उमीदों को तलाशने की ओर बढ़ रहा था।
शायद ये 86 की बात है, दहशत की काली परछाईयों को मिटा कर पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में माहौल को फिर से पुराने तसव्वुर में लाने के फलसफे तैयार किये जाने लगे थे।
एक तरह की मायूसी से सभी गुजर रहे थे। पंजाब की ज़िन्दगी के रंगों की खुशनुमा हौसले जाने किन वीरानों में खो से गये थे।
ज़िन्दगी की ज़िन्दादिली की मुस्कुराहटें खुद को खोज रही थीं।
पंजाब यूनिवर्सिटी जो हमेशा ही नयी ईबारतों की ख्वाबगाह रही, के दरखत, जिनकी छांवों में जाने कितने ही ख्यालों ने मुकद्दर तराशे, कितनी ही मोहबत्तें परवांन चढ़ीं, मायूसियों में ही जी रहे थे।
एक खलिश सी, कोफत सी होती थी।
उसी दौर में पंजाबी सभ्याचार समिति ने पहल की और पंजाबी विरसे को पुनर्स्थापित करने के लिये पंजाब के कुछ गायकों के कार्यक्रम करवाये गये।
उसी दौर मे हरदीप सिंह भी यूनीवर्सिटी स्टूड़ेंट सेंटर, जो कैम्पस के बीचों बीच स्थित था, पे कभी कभार आ जाया करते। शंकर सहनी उन दिनों यूनीवर्सिटी के छात्र थे।
फलगुनी फिजाओं के दिनों में सर्दूल सिकंदर का कार्यक्रम ओपन एयर थिएटर में हुआ था।
उस दिन यूनीवर्सिटी जैसे एक बार फिर
आसपास के कुछ कालेज यूनीवर्सिटी के युवा भी वहां सर्दूल सिकंदर को सुनने आये।
गीतों के सिलसिले के साथ ही युवा लड़के लडकियों के बीच सर्दूल की गायकी में जैसे कोई रूह नुमायां हो गयी और माहौल में कशिश।
उसकी तीखी दिलकश आवाज में "मेरे नच्चदी दे खुल वाल, भाबी मेरी गुत कर दे" ने यूनीवर्सिटी की लड़कियों को जीवंत कर दिया।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद सर्दूल से मुलाकात हुयी, बड़ी संजीदगी और अपनेपन के अधिकार से बोले कि चौधरी साहब ( हरिय़ाणा के लोगों को पंजाब में अदब से यूं ही संबोधित किया जाता है ) असी हरियाणा विच नहीं गये हजे तक, हुन साडा कोई प्रोग्राम तूसी हरियाणा विच वी कारवाओ।
ज़िन्दगी की उलझनों में ऐसा कोई अवसर कभी हो नहीं पाया मुझसे।
जगदीप सिंधु