‘1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आन्दोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परंतु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं, ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’
(‘श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)
1942 के आन्दोलन के समय गोलवलकर संघ संचालक थे। जब देश की जनता का देशप्रेम, आजादी के संघर्ष में अपना सबकुछ बलिदान करने की तीव्र इच्छा थी। लोग गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद होने के लिए लड़ रहे थे तो संघ ने क्या किया?
‘संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया’। क्योंकि अंग्रेज भक्ति ही उनकी देशभक्ति थी। 9 मार्च 1960 को इंदौर, मध्यप्रदेश में आरएसएस के कार्यकर्ताओं की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए गोलवलकर ने कहा -
“नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थितियों के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आन्दोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी (हेडगेवार) के पास गये थे। इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आन्दोलन से स्वातंत्र्य मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना
(श्री गुरूजी समग्र दर्शन’, खंड-4, पृष्ठ 39-40, भारतीय विचार साधना, नागपुर, 1981)
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"1942 में बहुत सारे संघ कार्यकर्ताओं के दिल में भावनायें उछाल मार रही थी। फिर भी, उस समय, संघ का काम निर्बाध चलता रहा। संघ ने कसम खाई थी कि वो सीधे (आंदोलन में) हिस्सा नहीं लेगा। इसके बावजूद संघ स्वयंसेवकों के दिमाग में भारी उथल-पुथल मची रही।"
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गोलवलकर कहते हैं-
"निश्चित तौर पर संघर्ष का गलत नतीजा निकलेगा। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़के उच्छृंखल हो गये। मेरा मतलब नेताओं पर कीचड़ उछालना नहीं है। ऐसा होना स्वाभाविक है। 1942 के बाद लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि कानून पालन करने का कोई मतलब नहीं है।"
संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिश: कुछ अवश्य किया। ब्रिटिश सरकार भी संघ की गतिविधियों पर पूरी तरह नजर रखे हुए थी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिंसक घटनाओं पर अपनी रिपोर्ट में बंबई के होम डिपार्टमेंट ने कहा कि ‘संघ ने अपने को पूरी तरह कानून की सीमाओं में रखा है और अगस्त, 1942 में जो दंगे और हिंसक घटनाएं जगह-जगह पर हुईं, उनसे अपने को पूरी तरह अलग रखा है।’
रिपोर्ट में कहा गया कि ”यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से शान्ति और व्यवस्था को तत्काल कोई खतरा है।”
उस फाइल क्र. 28/3/1943 में अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की लंबी बहस का निष्कर्ष निकला कि गुरुजी गोलवलकर अभी हमसे टकराव की मुद्रा में नहीं हैं। अत: उन्हें अकारण ही गिरफ्तार करके हम टकराव की स्थिति क्यों पैदा करें?
“संघ किसी भी व्यक्ति को समाज के वर्तमान संकट के लिये ज़िम्मेदार नहीं ठहराना चाहता। जब लोग दूसरों पर दोष मढ़ते हैं तो असल में यह उनके अन्दर की कमज़ोरी होती है। शक्तिहीन पर होने वाले अन्याय के लिये शक्तिशाली को ज़िम्मेदार ठहराना व्यर्थ है।…जब हम यह जानते हैं कि छोटी मछलियाँ बड़ी मछलियों का भोजन बनती हैं तो बड़ी मछली को ज़िम्मेदार ठहराना सरासर बेवकूफ़ी है। प्रकृति का नियम चाहे अच्छा हो या बुरा सभी के लिये सदा सत्य होता है। केवल इस नियम को अन्यायपूर्ण कह देने से यह बदल नहीं जाएगा।”
पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार हैं, उनकी फेसबुक टाइमलाइन से साभार