सोशल मीडिया से लेकर टीवी और अखबारों तक यह बात बहुत तेजी से प्रचारित की जा रही है कि दिल्ली के लोग नस्लीय टिप्पणी करते रहे हैं। दिल्ली में नस्लीय हिंसा आए दिन की बात है। अरुणाचल प्रदेश के छात्र नीडो की हत्या (Daylight attack with iron rods killed college student Nido Tania) के बाद यह बहस तेज होती दिख रही है। बहस में अब बिहार और पूर्वांचल के लोग भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं।
ऐसा होना लाजिमी ही था- दशकों से रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आ गये बिहार-यूपी के लोगों के साथ जिस तरीके का भेदभाव होता रहा है वो अपने चरम पर है। दिल्ली में बिहारी मानसिकता लगभग गाली सा ही कोई मुहावरा बन गया है। दिल्ली वाले पहनावे-रहन-सहन को देखकर बिहारी टाइप या "चिंकी" कहकर चिढ़ाने का मौका नहीं छोड़ते। लेकिन मीडिया में जिस तरह दिल्ली वालों को नस्लीय घोषित किया जा रहा है मामला इतना भी सीधा नहीं है।
दिल्ली में एक बस्ती है- मुनिरका। यहाँ ज्यादातर नॉर्थ ईस्ट के लोग रहते हैं या फिर बिहार-यूपी से आये छात्र। बाकी मकान मालिक दिल्ली के बशिंदे जाट। वहाँ जाटों द्वारा नॉर्थ ईस्ट या बिहार की महिलाओं और लड़कों पर टीका-टिप्पणी आम दिनचर्या का हिस्सा बन गया है लेकिन आश्चर्य तब होता है जब खुद इस नस्लीय टिप्पणी से जूझते रहने वाला कोई बिहारी खुद नॉर्थ ईस्ट की लड़कियों पर नस्लीय कमेंट पास करते दिखते हैं।
बिहारियों ने इन लड़कियों के बारे में सहज प्राप्य की आम धारणा बना रखी है। ठीक ऐसे ही आए दिन नॉर्थ ईस्ट के राज्यों से बिहारियों-हिन्दी भाषियों पर हमले की खबर आती रहती हैं। बिहार के गाँवों में नागाओं के बारे में कई तरह की अफवाहें प्रचलित
दरअसल नस्लीय भेदभाव सिर्फ दिल्ली वालों की समस्या नहीं है। यह हम सबके खून में है, हम सबके बचपन में है, हम सबकी जिन्दगी के हर पन्ने पर है। बचपन से गोरे रंग के प्रति जिस तरीके का श्रद्धा भाव हमारे मन में बैठाया जाता है, टीवी विज्ञापनों में गोरे होने को जिस तरीके से महिमामण्डित किया जाता है, हमारी सुन्दरता को गोरे-काले रंग की कसौटी में तौला जाता है- नस्लीय भेदभाव के बीज वहीं पड़ते हैं।
अकारण नहीं है कि आज मानवाधिकारों के लिये काम करने वाला एक तबका इन फेय़रनेस क्रीम्स के विज्ञापनों पर प्रतिबंध की माँग कर रहा है। टीवी से भी पहले जाते हैं तो इस देश में बच्चे के पैदा होते ही उसे उसकी जाति मिल जाती है। सही पोषण, स्कूली शिक्षा, भरपेट भोजन मिले न मिले लेकिन जाति आधारित शोषण जरूर मिलने लगता है। रंगों के आधार पर ही दलितों-आदिवासियों के साथ दशकों से अन्याय होता आ रहा है।
यह नस्लीय भेदभाव कोई छिपी-छिपायी बात नहीं है। यह तो हमारे आम दैनिक जिन्दगी के हिस्सा हैं। आज तक किसी देवी को काले रंग में नहीं देखा है। काले रंग के मूल वाले भारतीय मूल के लोगों के देवी-देवता गोरे दर्शाये जाते हैं। भले ही देश काली को पूजता हो लेकिन सच यह भी है कि काले रंग की लड़कियों को काली माई कहकर मजाक भी उड़ाया जाता है।
हमें समझने की जरूरत है कि सिखों को लेकर संता-बंता और सरदारजी वाले जोक्स फॉरवर्ड करते वक्त भी हम नस्लीय भेदभाव को बढ़ावा दे रहे होते हैं और पंजाब में बिहारियों को गाली देते वक्त भी।
मीडिया में अक्सर दिखाया जाता है कि पश्चिमी देशों में किस तरह नस्लीय भेदभाव किये जाते हैं और एक भारतीय के रूप में किस तरह हम इनसे प्रताड़ित हैं लेकिन हमें यह मानने में गुरेज नहीं करना चाहिए कि हम भारतीय भी उतने ही नस्लीय हैं।
Against racial violence
दरअसल यह एक सही वक्त है जब हम सब नस्लीय हिंसा पर व्यापक विचार-विमर्श करें। उस नस्लीय हिंसा के खिलाफ जो हर रोज हम करते हैं, जिसे हर रोज हमारे खिलाफ किया जाता है। यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है एक ऐसे वक्त में जब हमें राष्ट्र-क्षेत्र-रंग-भाषा-जाति-धर्म के आड़ में एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा हो।
अविनाश कुमार चंचल
Notes - Nido Tania, a college student, died of severe lung and brain injuries from an attack inflicted upon him in a South Delhi market. The murder of the 20-year-old, who was from Arunachal Pradesh, has led to a national debate on discrimination against Indians from the North East.