यह तो नहीं हो सकता है कि राहुल गांधी दिल्ली में ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ की निशानदेही करें और उनके एक मुख्यमंत्री क्रोनी कैपिटलिस्ट की सेवा में आतुर दिखें।
एक प्रखर छात्र नेता रहे और अब कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के करीबी सलाहकार संदीप सिंह ने आज एक ट्वीट में राहुल गांधी और देश के मूड के बारे में बहुत आश्वस्ति जताई। उन्हें एहसास हो रहा है कि देश अब राहुल की तरफ देख रहा है। आगामी चुनाव में कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापिसी करेगी। उनके एहसास और एतबार के साथ देश का संविधान और लोकतन्त्र का हिमायती हर व्यक्ति अपनी हामी देना चाहेगा। कम से कम वो लोग भी जो फिलहाल किसी और विकल्प के बारे में सोच नहीं पा रहे हैं।
संदीप ऐसे अकेले व्यक्ति या नेता नहीं हैं जो ऐसा सोचते हैं और उम्मीद करते हैं। देश के तमाम उदार- बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग भी इसी तरह की कामना कर रहे हैं। सोशल मीडिया के मार्फत ‘इन्फ़्लुएन्सर’ बन चुके कई नामी पत्रकार इसी अभिव्यक्ति के साथ मुखर हैं। इस मनोकामना में उन्होंने ‘कॉर्पोरेट मीडिया’ या ‘गोदी मीडिया’ के बरक्स ‘पप्पू मीडिया’ का तमगा हासिल कर लिया है।
इन उदार बुद्धिजीवी पत्रकारों का संकट यह है कि एक तरफ वो राहुल गांधी के हर बयान को एम्प्लीफाई करने की बेइंतिहा कोशिश तो करते हैं लेकिन राहुल गांधी की कथनी के खिलाफ उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री और सरकारें अपने -अपने राज्यों में क्या कर रही हैं इससे सतर्कता
अगर उन्हें यह लगता है कि और ऐसा ही वो देश को बताना चाहते हैं कि वो वो देश के हितैषी हैं, संविधान के हितैषी हैं और लोकतन्त्र, धर्मनिरपेक्षता और तमाम सांवैधानिक मूल्यों के हितैषी हैं और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ही इन संकटों का निदान है तो यह उनका पहला दायित्व होना चाहिए कि वो राहुल गांधी और कांग्रेस को बताएं कि उनकी बातें, उनकी सोच, उनका स्वप्न केवल ट्विटर तक पहुँच रहा है। इन ट्वीट्स का असर कांग्रेस शासित राज्यों की नीतियों या निर्णयों में दिखलाई नहीं देता।
छत्तीसगढ़ में राज्य सरकार यह तय कर चुकी है कि ‘मध्य भारत के फेफड़े’ कहे जाने वाले ‘हसदेव अरण्य’ के सघन, जैव विविधतता से भरपूर, वन्य जीवों के नैसर्गिक पर्यावास और आदिवासियों के सदियों से बसे गांवों को अब उजाड़ दिया जाएगा। घोषित तौर पर यह अपरिवर्तनीय नुकसान ‘हम दो हमारे दो’ के नारे में ‘हमारे दो’ में निहित एक यानी अडानी के मुनाफे के लिए किया जा रहा है। इस अभियान में कांग्रेस नीत राजस्थान सरकार भी मुस्तैदी से शामिल है। अंतत: राजस्थान राज्य विद्युत निगम के लिए आबंटित ये कोयला खदानें अडानी के मुनाफे को बढ़ाने लिए ही हैं।
ऐसा कहने का ठोस आधार यह है कि हसदेव जैसे जंगलों को उजाड़ने का अन्य कोई औचित्य बतलाया ही नहीं जा सकता। खुद कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने राहुल गांधी के दिए इस नारे से बहुत पहले इस जंगल को ‘नो -गो एरिया’ घोषित किया था। यानी इस जंगल के बने रहने का औचित्य किसी भी अन्य कारण से ज़्यादा महत्वपूर्ण था।
‘नो- गो एरिया’ घोषित करार दिये जाने का मतलब यह था कि यहाँ अन्य कोई ऐसी गतिविधियों को इजाजत नहीं दी जाएगी जिनकी वजह से इस जंगल को कोई नुकसान पहुंचे।
यह कहने का एक ठोस आधार यह भी है कि इस विशाल वन क्षेत्र में खनन की इजाजत न केवल तमाम क़ानूनों को ताक पर रखकर दी जा रही है बल्कि उसी संविधान की धज्जियां तार-तार करके दी जा रही है जिसकी रक्षा के लिए राहुल गांधी हर रोज़ अपनी प्रतिबद्ध्त्ता दोहराते हैं। हसदेव अरण्य और इसके बहाने संविधान की रक्षा का वचन पहली दफा उन्होंने इसी जंगल में बसे एक गाँव में स्थानीय आदिवासियों के बीच बैठकर दिया था। तारीख थी 15 जून 2015। इस छोटी सी सभा में उन्होंने तीन बातें कहीं थीं जो अब तक स्थानीय आदिवासी समुदायों को याद हैं। पहली, मोदी मॉडल के बरक्स कांग्रेस सरकार आदिवासियों को ताक पर रखकर विकास के लिए प्रतिबद्ध है। दूसरी, ग्राम सभाओं के संवैधानिक अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध है और तीसरी बात, पूरी कांग्रेस हसदेव अरण्य को बचाने के संघर्ष के साथ खड़ी है और खड़ी रहेगी। आज उनकी इन प्रतिबद्धताओं को निभाने का अवसर इन आदिवासियों ने राहुल को दिया है।
आज जब चुनावी राजनीति में कॉर्पोरेट के सहयोग के बिना चुनाव लड़ने की कल्पना नहीं की जा सकती तब एक दल का प्रमुख नेता इन कोरपोरेट्स से खुलेआम बगाबत करता है। इससे निसंदेह पार्टी को खामियाजा भी भुगतना भी पड़ता है। लेकिन यही कांग्रेस की अब दीर्घकालीन राजनीति का रास्ता भी है जो उसे सत्ता तक पहुंचाएगा। यही बात राहुल गांधी को अन्य राष्ट्रीय नेताओं से जुदा करती है और उन्हें एक संवेदनशील और जनोन्मुखी नेता का ओहदा देती है।
उदार पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को यह बात हल्के में नहीं लेना चाहिए और खासकर तब, जब वो यह जानते हैं कि संविधान का हनन केवल केंद्र में बैठी सरकार ही नहीं करती बल्कि एक गाँव में बैठा सरपंच भी कर सकता है। बात यहाँ राज्य सरकार की हो रही है तो जितना दायित्व संविधान के अनुसार सरकार और काम- काज चलाने का केंद्र का है उससे कहीं ज़्यादा दायित्व राज्य सरकारों का है। उन्हें यह तथ्य भी याद दिलाने की ज़रूरत है कि अंतत: संविधान की शक्ति का स्रोत यानी हम ‘भारत के लोग’ किसी न किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के तहत भू-भाग में रहते हैं। राज्य इस लिहाज से ज़्यादा महत्वपूर्ण इकाई है।
उन उदार शुभेच्छुओं को यह बात भी समझना चाहिए कि वो चाहकर भी राहुल की छवि नए सिरे से नहीं गढ़ सकते जब तक की खुद उनकी पार्टी के नेता उन्हें गंभीरता से न लें। यह तो नहीं हो सकता है कि राहुल गांधी यहाँ ‘क्रोनी कैपिटलिस्ट’ की निशानदेही करें और उनके एक मुख्यमंत्री उनकी सेवा में आतुर दिखें। इसका केवल एक और एक ही मतलब होगा कि भले ही उनकी पार्टी में उनके मुख्यमंत्री को किसी भी तरह से ‘व्यावहारिक’ कहकर स्वीकार भी कर लिया जाए लेकिन जनता इस व्यावहारिकता के पर्दे के पीछे एक ऐसे नेता को देख लेगी जिसके कहने और करने में एक लंबी गहरी खाई है। राहुल को एक उम्मीद की तरह देखने का आधार मौजूदा सत्तासीन नेता है जो बहुत बड़बोला है। हर रोज़ कुछ कहता है और उसके खिलाफ काम करता है। कहने और करने के बीच के अंतर को पाटने का काम राहुल और कांग्रेस को शिद्दत से करना होगा वरना विकल्प की ज़रूरत इस देश को नहीं है।
यह समझने के लिए ज़्यादा नहीं बस एक दशक पीछे की यात्रा करना चाहिए। इस एक दशक में हसदेव अरण्य क्षेत्र के रहवासी ग्रामसभाओं की सांवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए निरंतर इस जंगल को बचाने के कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
पर्यावरणविद कांची कोहली एक दशक से इस हसदेव अरण्य बचाने के संघर्ष से जुड़े अन्य साथी इसके महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं में बताते हैं कि-
कांग्रेस और राहुल गांधी से अपेक्षाएँ इसलिए भी हैं क्योंकि हसदेव अरण्य को ‘लोकसंरक्षित हाथी रिजर्व बनाने की दुनिया में अनोखी परिकल्पना खुद भूपेश बघेल जी ने प्रस्तावित की है जिसे लेमरू हाथी रिज़र्व कहा गया। यह एक ऐसी परिकल्पना है जो अगर वाकई ज़मीन पर उतरती है तो वैश्विक स्तर जलवायु परिवर्तन के विकट आसन्न संकट का एकमात्र समाधान प्रस्तुत कर सकती है।
इसके अलावा कांग्रेस और राहुल गांधी से हसदेव अरण्य को बचाने की ज़िम्मेदारी इसलिए भी है क्योंकि इसे उन्हीं क़ानूनों से रोका जा सकता है जो कांग्रेस की सरकार ने बनाए थे और जिन्हें कल्याणकारी राज्य की मंशा के अनुसार बनाया गया था। इन क़ानूनों में प्रमुख रूप से वन अधिकार कानून, 2006 और भूमि अधिग्रहण के लिए 2013 में लाया गया कानून है जिनकी समूल अवहेलना करके ही हसदेव अरण्य में अडानी के मुनाफे के लिए कोयला खदानें खोली जा रही हैं।
राहुल गांधी के शुभेच्छु उदार और प्रगतिशील पत्रकारों व बुद्धिजीवियों का सामयिक कर्तव्य है कि वो यह बातें भी उन्हें बताएं और जहां ज़रूरत हो वहाँ उनके नेतृत्व की दृढ़ता को परखें भी। अन्यथा उनकी छवि को बनाने -बिगाड़ने के खेल में फिर वो ताक़तें सफल हो जाएंगीं जो अब तक सफल हैं।
सत्यम श्रीवास्तव
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।