श्रीलंका के आर्थिक संकट पर इतना कुछ लिखा जा चुका है कि उससे संबंधित तथ्य काफी हद तक आम जानकारी में आ चुके हैं। मिसाल के तौर पर 22 अप्रैल के फ्रंटलाइन में प्रकाशित, सी पी चंद्रशेखर के लेख को देखा जा सकता है। श्रीलंका पर विदेशी कर्ज (Foreign debt on Sri Lanka) का बहुत भारी बोझ चढ़ गया था। वहां वैल्यू एडेड टैक्स में बहुत भारी रियायतें दी गयी थीं, जिससे राजकोषीय घाटा बहुत बहुत बढ़ गया था और घरेलू खर्चों के लिए भी सरकार को बाहर से कर्जे लेने पड़ रहे थे। उधर महामारी के चलते, खासतौर पर पर्यटकों के प्रवाह में भारी कमी आयी थी तथा इसके चलते विदेशी मुद्रा आय में गिरावट आयी थी। श्रीलंका की मुद्रा की विनिमय दर (sri lanka currency exchange rate) पर गिरावट का दबाव पड़ रहा था और इसके चलते दूसरे देशों में काम कर रहे श्रीलंकाई मेहनत-मजदूरी करने वालों में से अनेक ने, अपनी कमाई स्वदेश भेजने के लिए सरकारी रास्ते का सहारा लेने के बजाए, हवाला आदि के गैर-सरकारी रास्तों का सहारा लेना शुरू कर दिया था।
कुल मिलाकर श्रीलंका के सुरक्षित विदेशी मुद्रा भंडार में सत्यानाशी गिरावट हुई थी। और सरकार ने विदेशी मुद्रा बचाने के लिए, रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में तेजी से कटौती करने के जो निर्देश दिए, उनसे श्रीलंका के खाद्यान्न उत्पादन में वास्तव में भारी गिरावट आयी थी, आदि, आदि।
बहरहाल, इस सवाल के जवाब पर सहमति कम ही मिलेगी कि श्रीलंका की
अमेरिकी सत्ता अधिष्ठान तथा अमेरिका के नये शीतयुद्ध के योद्धा इसके लिए श्रीलंका सरकार के चीन के साथ घनिष्ठ आर्थिक रिश्ते विकसित करने को जिम्मेदार ठहराते हैं। आगे आने वाले दिनों में हमें इसी तरह का प्रचार खासतौर पर ज्यादा सुनाई देने वाला है।
दूसरे बहुत से लोग इस संकट का दोष सीधे-सीधे सरकार की ‘गैर-जिम्मेदारी’ पर डालते हैं और कहते हैं कि श्रीलंका के सिर पर विदेशी ऋणों का पहाड़ जब ऊंचा से ऊंचा होता जा रहा था, सरकार तो जैसे ‘सो’ ही रही थी।
कुछ भारतीय टिप्पणीकारों ने तो इसका भी एलान कर दिया है कि भारत में भी कई राज्य सरकारें श्रीलंका वाले ही रास्ते पर चल रही हैं और उन पर अंकुश नहीं लगाया गया तो, यहां भी संकट आ जाएगा।
बहरहाल, श्रीलंका के संकट की सारी की सारी व्याख्याओं की समस्या यह है कि उनमें, श्रीलंका के संकट को भड़काने में नवउदारवाद की भूमिका (Role of neoliberalism in fueling Sri Lanka's crisis) को पूरी तरह से अनदेखा ही कर दिया जाता है। यह बात कहकर हम किसी मंत्र का जाप नहीं कर रहे हैं। नवउदारवाद के तहत, सबसे अच्छे वक्त में भी मेहनतकशों को संकट झेलना पड़ रहा होता है। इसी प्रकार, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत, हरेक अर्थव्यवस्था में तथा विश्व अर्थव्यवस्था में, आर्थिक अधिशेष या सरप्लस का हिस्सा बढऩे के चलते, ढांचागत संकट पैदा हो रहा होता है। लेकिन, इन दोनों से अलग, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत एक तीसरे प्रकार का संकट भी होता है, जिसकी मार खासतौर पर ऐसी छोटी अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ती है, जिनकी किस्मत पलक झपकते ही पलट सकती है। इसे मैं नवउदारवाद द्वारा छेड़ा जाने वाला ‘आपात संकट’ कहना चाहूंगा। ‘ढांचागत’ संकट से भिन्न, यह ‘आपात’ संकट है क्योंकि इसकी चपेट में कोई समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था नहीं आती है। इसकी चपेट में विश्व अर्थव्यवस्था का कोई ज्यादा बड़ा हिस्सा भी नहीं आता है बल्कि इसकी चपेट में कोई इक्का-दुक्का देश आ जाता है, जो किसी खास समय पर इस संकट में फंस जाता है।
नवउदारवादी संकट की खास निशानी
इस संकट की खास निशानी यह है कि अपरिहार्य रूप से इस मामले में सब की अक्ल तभी जागती है, जब संकट फूट चुका होता है। इस अर्थ में ग्रीस का संकट (Greece's crisis) एक ‘आपात’ संकट था। जब ग्रीस पर भारी विदेशी ऋण चढ़ता जा रहा था, तब तो किसी को भी नहीं लगा था कि इस बोझ को संभाला नहीं जा सकेगा। और अंतत: जब यह दिखाई देना शुरू हुआ कि कर्ज का इतना बोझ संभाला नहीं जाएगा, तब तक अर्थव्यवस्था उस मुकाम पर पहुंच चुकी थी, जहां फौरी तौर पर ऋण की माफी के बिना अर्थव्यवस्था को उबारा ही नहीं जा सकता था। इसका अर्थ यह है कि ये ‘आपात’ संकट, कोई अचानक आ पड़ने वाली परिघटना नहीं होते हैं। ये संकट घनिष्ठ रूप से तथा आवयविक रूप से, नवउदारवादी निजाम के साथ जुड़े होते हैं।
ये संकट इसलिए पैदा होते हैं कि पहले से यह जानने का कोई तरीका होता ही नहीं है कि कर्ज का कितना बोझ, ‘हद से ज्यादा’ बोझ हो जाएगा। इसका पता तो, अचानक संकट के फूट पडऩे पर ही चलता है। यह संकट, जिसे नवउदारवाद किसी अर्थव्यवस्था में करीब-करीब इस तरह से उतार देता है, जैसे बिजली का कोई स्विच दबा दिया गया हो, इसी को मैं ‘आपात संकट’ कहता हूं।
कुछ लोग मेरी इस बात से इस आधार पर असहमति जताएंगे कि उन्होंने तो पहले ही भांप लिया था कि यह संकट आ रहा था। लेकिन, एक चुनावी जनतंत्र में किसी भी सरकार को, चाहे वह प्रतिक्रियावादी सरकार ही क्यों नहीं हो, कुछ सीमाओं के अंदर काम करना पड़ता है। मिसाल के तौर पर सिर्फ इसलिए कि कुछ प्रलय के भविष्यवक्ता, अनिष्ट होने की भविष्यवाणी कर रहे हों, कोई भी सरकार अपने खर्चों को समेट नहीं सकती है, अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों में, फिर वे चाहे कितने ही सीमित ही क्यों न हों, ज्यादा कटौतियां नहीं कर सकती है, पेंशनों के भुगतान में कटौती नहीं कर सकती है या सरकारी कॉलेजों के शिक्षकों समेत सरकारी कर्मचारियों के तथा सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों के वेतन तो रोक नहीं सकती है।
राजपक्षे सरकार की सीमित भूमिका
अब मान लीजिए कि किसी अर्थव्यवस्था को भुगतान संतुलन की अस्थायी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। वह बाहर से ऋण लेकर इस कठिनाई को दूर कर सकती है और बाहर ये यह ऋण उसे आसानी से मिल भी सकते हैं, क्योंकि इससे पहले तो उसे ऐसे किसी संकट का सामना करना नहीं पड़ा होता है। भुगतान संतुलन की अस्थायी कठिनाई को संभालने की कोशिश में अपने सार्वजनिक खर्चों में कटौतियां करने तथा इसके चलते जनता पर मुश्किलें थोपने और उसके ऊपर से अर्थव्यवस्था में मंदी पैदा करने के बजाए, बाहर से कर्जा लेकर इस असंतुलन को दूर करना, किसी भी सरकार को बेहतर विकल्प लग सकता है। लेकिन, अगर भुगतान संतुलन की कठिनाई, शुरूआत में जितना अनुमान था उससे लंबी खिंचती है, तो जाहिर है कि ऋणों के भुगतान को कहीं ज्यादा कड़ी शर्तों पर आगे खिसकवाना होता है और कुछ ही समय में ऋण की शर्तें इतनी ज्यादा प्रतिकूल हो जाती हैं कि संबंधित देश के सिर पर संकट आ चुका होता है।
यह कहने का अर्थ यह नहीं है कि राजपक्षे सरकार को इस मामले में पूरी तरह से दोषमुक्त माना जा सकता है। अप्रत्यक्ष करों में कटौती (indirect tax cuts) जैसे राजपक्षे सरकार के कदमों ने बहुत भारी राजकोषीय घाटा पैदा कर दिया था क्योंकि इन कटौतियों की भरपाई, प्रत्यक्ष करों में किसी तरह की बढ़ोतरियों से नहीं की जा रही थी। संपत्ति कर में बढ़ोतरी तो बाद में ही जाकर आयी और वह भी इतनी थोड़ी थी कि उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला था। जाहिर है कि इस सब ने संकट को बढ़ाया था। श्रीलंका के सत्ता प्रतिष्ठान की अकरणीय करने तथा करणीय न करने की तरह-तरह की हरकतों की ओर से भी आंखें नहीं मूंद सकते हैं। लेकिन, इन कारकों पर ही सारा ध्यान केंद्रित करना और नवउदारवादी व्यवस्था के रूप में उस बुनियादी संदर्भ को अनदेखा करना, जिस संदर्भ में श्रीलंका का संकट फूटा है तथा जो अब जनता पर इतना भारी बोझ डाल रहा है कि बड़ी संख्या में लोग विरोध करने के लिए सडक़ों पर उतर आए हैं, पूरी तरह से विचारहीन ही कहा जाएगा।
श्रीलंका के अनुभव से हम दो स्पष्ट सबक सीख सकते हैं। पहला यह कि कल्याणकारी राज्य का, किसी नवउदारवादी निजाम से किसी तरह से मेल ही नहीं बैठता है। एक जमाने में श्रीलंका ने एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण किया था, जो तीसरी दुनिया के संदर्भ में काफी रश्क करने लायक था। किसी भी गैर-नवउदारवादी निजाम में तो इस तरह का कल्याणकारी राज्य, विदेशी मुद्रा आय में अचानक आयी गिरावट को भी, देश पर कर्जे का बोझ बढ़ाए बिना, गैर-जरूरी किस्म के आयातों पर अंकुश लगाने के जरिए भी संभाला सकता है। लेकिन, नवउदारवादी व्यवस्था में तो ऐसी किसी सूरत में संबंधित सरकार को या तो अपने खर्चों में कटौती करनी होती है तथा इस तरह कल्याणकारी राज्य के रूप में अपने कदमों को कमजोर करना पड़ता है ताकि सकल मांग को तथा इसलिए आयातों को भी नीचे ला सके या फिर अपने खर्चे बनाए रखने के लिए, जिसमें कल्याणकारी खर्चे भी शामिल हैं, उसे अपने सिर पर विदेशी ऋणों का बोझ बढ़ाना होता है। लेकिन, बाद वाला रास्ता अपनाए जाने की सूरत में, अगर विदेशी मुद्रा आय में कोई देरी होती है, तो थोड़े से ही अर्से में कर्जे की शर्तें बहुत ही भारी हो जाती हैं और देश कर्जे के जाल में फंस जाता है। उस सूरत में कल्याणकारी राज्य के कदमों को बनाए रखना तो पूरी तरह से असंभव ही हो जाता है।
दूसरे शब्दों में, भले ही कुछ समय तक ऐसा नजर आए कि ऐसा कोई देश, नवउदारवादी निजाम के साथ, कल्याणकारी राज्य के कदमों का योग कर के चल सकता है, इन दोनों का बेमेलपन, संबंधित व्यवस्था को पहला धक्का लगने पर ही निकलकर सामने आ जाता है। संक्षेप में इन दोनों के बीच का बेमेलपन, चाहे कुछ अर्से तक सामान्य हालात में छुपा हुआ ही क्यों न रहे, धक्का लगते ही उजागर हो ही जाता है।
अनेक अर्थशास्त्रियों द्वारा जो दलील दी जाती है, यह उसके खिलाफ जाता है। वे यह मानते हैं कि नवउदारवादी निजाम, ‘निवेशक-अनुकूल’ वातावरण बनाने के जरिए, विदेशी निवेश को आकर्षित करता है और घरेलू निवेश को उत्प्रेरित करता है, जिससे कल्याणकारी कदमों का अपनाया जाना
(न्यूजक्लिक में प्रकाशित राजेंद्र शर्मा द्वारा अनूदित वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक के लेख का किंचित् संपादन के साथ प्रकाशन साभार)