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Reality of Manmohan era America's game!

सिर्फ सोनिया गांधी ही नहीं, अब अमेरिकी आकाओं को भी नापसंद है प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह। पर इससे युवराज राहुल गांधी का प्रधानमंत्रित्व सुनिश्चित है, यह मामना गलत होगा। भारतीय बाजार अमेरिकी पूंजी और हथियार उद्योग के लिए अभी पूरी तरह खुला नहीं है। 1991 में मनमोहन के वित्तमंत्री बतौर अवतरण की पृष्ठभूमि में वैश्विक समीकरण में आये बदलाव को नजरअंदाज करना बेवकूफी होगी। खाड़ी युद्ध के बाद दक्षिण एशिया में युद्ध क्षेत्र का स्थानातंरण (War Zone Transfer to South Asia after the Gulf War) होना ही था। पहले खाड़ी युद्ध के तुरंत बाद लिखे गये उपन्यास अमेरिका से सावधान में अमेरिकी वर्चस्व की ही चेतावनी दी गयी थी।

सत्तर के दशक में वसंत के वज्रनिर्घोष से सत्तावर्ग को अंतिम चेतावनी मिल चुकी थी। 1971 के भारत बांग्लादेश युद्ध (Indo Bangladesh War of 1971) के दरम्यान अमेरिका का सातवां नौसैनिक बेड़ा (America's Seventh Navy Fleet) भले ही पाकिस्तान का विभाजन और बांग्लादेश की आजादी (Partition of Pakistan and Independence of Bangladesh) रोक नहीं पाया हो, इस उपमहाद्वीप में अमेरिकी विदेश नीति की यह पहली सार्वजनिक आक्रामक अभिव्यक्ति थी, जिसकी अभिव्यक्ति आपातकाल और जेपी आंदोलन की वजह से इंदिरा के पराभव उपरांत सत्ता के बदलते नीति निर्धारण कर्मकांड के रुप में होती रही, पर इस पर कोई ज्यादा चर्चा नहीं हो सकी। समाजवाद जवाहर लाल नेहरु और इंदिरा गांधी की प्रतिबद्धता का पर्याय नहीं, राजनीतिक समीकरण साधने का औजार मात्र था।

वित्तमंत्री बतौर प्रणव मुखर्जी के साथ 1980 में सत्ता में वापसी के बाद से ही संक्रमण काल शुरू हो चुका था। 1982 की

रीगन इंदिरा शिखर वार्ता से पहले और बाद में भारतीय उपमहाद्वीप के बाजार के प्रति अमेरिकी पूंजी की बढ़ती दिलचस्पी की अभिव्यक्ति (An expression of the growing interest of American capital in the market of the Indian subcontinent) होती रही।

पहले से हरित क्रांति के जरिये विदेशी पूंजी का रास्ता खोलने वाली इंदिरा गांधी ने दूरदर्शन के प्रसार के साथ सूचनातंत्र पर काबिज होने के साथ इस परिवर्तन की शुरुआत की।

राजीव गांधी ने तकनीकी क्रांति लाने की हरसंभव कोशिश की। सिख नरसंहार, ऑपरेशन ब्लू स्टार और इंदिरा के अवसान के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह बुनियादी परिवर्तन था।

सिख नरसंहार से पहले और बाद कांग्रेस की ऱणनीति ने हिंदुत्व के पुनरूत्थान की जमीन तैयार की।

देवरस की एकात्म रथ यात्रा का स्वागत करने वाली इंदिरा ने सिख राष्ट्रवाद के विरुद्ध आक्रामक रवैया अख्तियार करके संघ परिवार का समर्थन हासिल करने में कामयाबी के साथ देवी दुर्गा की उपाधि पायी तो राम जन्म भूमि का ताला खोलकर इस्लाम विरोधी घृणा अभियान प्रारंभ करके हिंदुत्व के पुनरूत्थान और इस उपमहाद्वीप में अमेरिकी वर्चस्व के सारे दरवाजे खोल दिये। मनमोहन सिंह की नियत तो इस पूरे कालखंड की तार्किक परिणति थी।

आर्थिक सुधार क्यों लागू नहीं हो पा रहे? Why are economic reforms not being implemented?

केंद्र में काबिज कांग्रेस का राज्यों में कोई नियंत्रण नहीं है। उत्तर भारत के दोनों निर्मायक राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में वह लंबे अरसे से हाशिये पर है। उत्तर प्रदेश के रायबरेली और अमेठी में तो राहुल गांधी और प्रियंका का जादू भी नहीं चला। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चहुं दिशाओं में क्षत्रपों का राज है। आर्थिक सुधार इसलिए लागू नहीं हो पा रहे क्योंकि कोई ममता बनर्जी इसके विरोध में हैं, जिन्हें पटाने में हिलेरिया भी नाकाम रही। संकट में फंसी अर्थ व्यव्स्था को उबारने के लिए कुछ भी करने को तैयार अमेरिकी नीति निर्धारकों को मनमोहन राज कब तक आखिर रास आ सकता है? और मनमोहन के बदले राहुल नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री बतौर पेश करने में हिंदुत्व लाबी की दिलचस्पी जितनी है, उससे कहीं ज्यादा कारपोरेट इंडिया और भारत अमेरिकी मीडिया की है। टाइम की ताजा रपट इसी सिलसिले में है और इसमें कोई शक नहीं है।

अमेरिका की प्रसिद्ध टाइम पत्रिका ने अपने ताजा अंक के कवर पृष्ठ पर स्थान देते हुए सिंह को नाकाम नेता की संज्ञा दी है। गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को 'चतुर राजनेता' करार देने वाली मैग्जीन 'टाइम' ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 'underachiever' (उम्मीद से कम कामयाबी हासिल करने वाला शख्स) कहा है।

मार्च में 'टाइम' ने अपने कवर पर मोदी की तस्वीर प्रकाशित की और कहा कि वे भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार (BJP's prime ministerial candidate) के तौर पर 2014 लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पीएम पद के सम्भावित उम्मीदवार और पार्टी महासचिव राहुल गांधी के सामने कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं।

तीन साल पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का गुणगान (Manmohan Singh praises) करने वाली अमेरिका की टाइम मैगजीन (America's Time Magazine) का रुख बदल गया है।

पत्रिका का कहना है कि बीते तीन वर्ष के दौरान उनका आत्मविश्वास भी डांवाडोल होता दिखाई दिया है।

टाइम मैगजीन ने मनमोहन सिंह की तस्वीर के नीचे लिखा अंडरअचीवर (फिसड्डी)

पत्रिका ने 16 जुलाई, 2012 के अपने एशिया संस्करण के अंक में प्रधानमंत्री की तस्वीर प्रकाशित की है। 79 वर्षीय मनमोहन सिंह की तस्वीर के नीचे लिखा है, "अंडरअचीवर (फिसड्डी)। कवर पर अंडरअचीवर के साथ लिखा है, भारत को रीबूट (फिर से शुरू करने) की जरूरत है। मैगजीन ने कवर पर यह सवाल भी पूछा है कि क्या मनमोहन यह करने के काबिल हैं?

गौरतलब है कि इसी बीच गुजरात दंगों को लेकर भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का जमकर बचाव किया है। अपने ब्लॉग में आडवाणी ने कहा है कि भारत के राजनैतिक इतिहास में मोदी के अलावा किसी भी नेता को नियोजित तरीके से लगातार बदनाम करने की कोशिश नहीं हुई है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के किताब के हवाले से आडवाणी ने लिखा है कि मोदी ने दंगा के बाद कलाम के गुजरात दौरे के वक्त उनको पूरा सहयोग किया था।

आर्थिक मोर्चे पर बढ़ रही भारत की नाकामियों से दुनिया भर में चिंता है। मशहूर टाइम पत्रिका ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सवाल (Question on Prime Minister Manmohan Singh) उठाए हैं। आर्थिक सुधार के जिस रास्ते पर दौड़ लगा कर भारत ने भारत ने विकास की बयार बहाई है, मनमोहन सिंह कभी उसके केंद्र में रहे थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद वही मनमोहन अपने ही बनाए रास्तों को पर चलने में असमर्थ हो गए हैं। ऐसे में मोदी के हक में आडवाणी जैसे प्रधानमंत्रित्व के दावेदार के खुलकर उतरने का मतलब संघ परिवार में तेजी से बन रही सहमति के अलावा और भी बहुत कुछ है। देश भर में सामाजिक कार्यकर्ताओं, प्रतिरोध और धर्मनिरपेक्ष ताकतों पर बढ़ रहे हमले के बाद भी अगर हम निहितार्थ नहीं समझते तो अमेरिका का खेल क्या खाक समझेंगे?

वामपंथ, अंबेडकरवादी, गांधीवादी और लोहियावादी भी हिंदू राष्ट्रवाद के शिकार (Left, Ambedkarites, Gandhians and Lohiaists are also victims of Hindu nationalism.)

भारत में और समूचे दक्षिण एशिया में अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व और हिंदू राष्ट्रवाद का चोली दामन का साथ है, अगर आप देशभक्त हैं तो आपको आक्रामक कॉरपोरेट बिल्डर माफिया राज के खिलाफ प्रतिरोध के लिए सबसे पहले इस अंध राष्ट्रवाद का विरोध (protest against blind nationalism) करना होगा। हिंदुत्व में निष्णात देश की राजनीति ने लोकतंत्र और प्रतिरोध की भाषा खो दी है। ऩ केवल मध्य भारत, पूर्वोत्तर और कश्मीर में सैनिक शासन की निरंतरता के साथ नरसंहार संस्कृति चालू है, बल्कि वामपंथ और अंबेडकरवादी, गांधीवादी और लोहियावादी भी इस हिंदू राष्ट्रवाद के शिकार है।

भारत में नवउदारवाद के असली सेनापति हैं प्रणव मुखर्जी

वामपंथ ने जिस बेशर्मी से प्रणव मुखर्जी का समर्थन हिंदुत्व के प्रतिरोध के बहाने किया है, वह हकीकत के विपरीत महापाखंड है क्योंकि संघ परिवार के नेताओं के बनिस्बत देश को प्रणव मुखर्जी से सबसे बड़ा खतरा है क्योंकि वह हिदुत्व सत्तावर्ग के सर्वाधिनायक है और भारत में नवउदारवाद के असली सेनापति भी।

नवउदारवाद का जनक बताते हुए मनमोहन को सामने रखकर सत्तावर्ग जानबूझकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और प्रणव मुखर्जी की भूमिकाओं पर पर्दा डालना चाहता है ताकि जनमत उसके पक्ष में बना रहे।

अमेरिका के पास मनमोहन सिंह के विकल्प रहे हैं और उस विकल्प का उसने बखूबी इस्तेमाल भी किया।

ग्लोबल हिंदुत्व के साथ जिओनिज्म की वैश्विक पारमाणविक गठजोड़ के काऱण मनमोहन को एकमात्र विकल्प समझना गलत है। इंदिरा जमाने में जिस औद्योगिक घराने का सबसे तेज चमत्कारिक उत्थान हुआ, आज भी उसका विकास चरमोत्कर्ष पर है और प्रभाव इतना ज्यादा कि उसने समूचे सत्ता वर्ग को जनाधार विहीन प्रणव मुखर्जी के हक में गोलबंद करके राष्ट्रपति भवन पर भी कब्जा कर लेने की पूरी तैयारी कर ली है।

अगर पीए संगमा तमाम समीकरण के विपरीत प्रणव को चुनाव में शिकस्त दे दें तो कम से कम मुझे ताज्जुब नहीं होगा। प्रणव के खिलाफ भी कारपोरेट प्रतिद्वंदी सक्रिय हैं और आखिरी मौके पर पांसा पलटने की ताकत रखते हैं। हो सकता है कि यह राष्ट्रपति चुनाव राजनीतिक और अर्थव्यवस्था में भारी फेरबदल का सबब बन जाये, पर इससे अमेरिकी वर्चस्व कम होने के आसार नहीं है। कॉरपोरेट इंडिया (Corporate India) को इसकी भनक पहले ही लग चुकी है और वह भी विकल्प की संधान में है। आर्थिक सुधार के लिए दबाव के बहाने कॉरपोरेट इंडिया इसी परिवर्तन की ओर संकेत करने में लगा है और वह जाहिरन गुपचुप संघ परिवार के संपर्क में है।

यूपीए के राष्ट्रपति पद के कैंडिडेट प्रणव मुखर्जी को विपक्षी कैंडिडेट पी. ए. संगमा और उनका खेमा छोड़ने के मूड में दिखाई नहीं दे रहा।

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि संगमा ने प्रणव के लाभ का पद मामले में शनिवार को ताजा आरोप लगाया और कहा कि प्रणव अभी भी लाभ के दो पद पर काबिज हैं। संगमा खेमे ने इस मामले में चुनाव आयोग के पास लिखित शिकायत की है।

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि संगमा की ओर से तीन सदस्यों की एक टीम आयोग के पास गई थी। आयोग ने इस टीम से सोमवार तक अपनी दलील को साबित करने संबंधी सारे दस्तावेज पेश करने को कहा है। आयोग दस्तावेजों को देखने के बाद ही आगे की कार्रवाई करेगा। टीम में शामिल जनता पार्टी अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने दावा किया कि प्रणव अभी भी लाभ के दो पद पर बने हुए हैं। पहला, वीरभूम इंस्टिट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलजी के वाइस प्रेजिडेंट के पद पर और दूसरा, रवींद्र भारती सोसायटी के चेयरमैन पद पर। हालांकि, दोनों संस्थानों ने संगमा के दावों के उलट कहा है कि प्रणव वहां से इस्तीफा दे चुके हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि रवींद्र भारती सोसायटी के सेक्रेटरी नबाकुमार सिल ने शनिवार को कहा कि प्रणव 20 जून को ही सोसायटी के चेयरमैन पद से इस्तीफा दे चुके हैं। दूसरी तरफ इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट के सेके्रटरी रामचंद्र ने कहा कि प्रणव 2004 में ही पद से इस्तीफा दे चुके हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि राष्ट्रपति पद के लिए विपक्ष के उम्मीदवार पीए संगमा ने रविवार को भोपाल में कहा कि उन्हें विश्वास है कि उन्हें 'आत्मा की आवाज' पर मत मिलेंगे और वह राष्ट्रपति चुनाव में विजय प्राप्त करेंगे।

अब तक राष्ट्रीय स्तर पर ही डॉ. मनमोहन सिंह को कमजोर नेता कहा जाता था। अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें उम्मीदों पर खरा नहीं उतरने वाला प्रधानमंत्री बताया जाने लगा है। मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि अमेरिका की प्रसिद्ध टाइम पत्रिका ने अपने ताजा अंक के कवर पृष्ठ पर स्थान देते हुए सिंह को नाकाम नेता की संज्ञा दी है। पत्रिका का कहना है कि बीते तीन वर्ष के दौरान उनका आत्मविश्वास भी डांवाडोल होता दिखाई दिया है। साथ ही सिंह देश को आर्थिक वृद्धि की राह पर लौटाने वाले सुधारों को लागू करने के इच्छुक भी नजर नहीं आ रहे हैं। मुख्तार अब्बास नकवी, प्रवक्ता, भाजपा ने इस पर प्रतिक्रिया दी है,'प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दुनिया को देश के बारे में भ्रामक, भ्रष्टाचार और नेतृत्वहीन आर्थिकी का संदेश दिया है। निश्चित तौर पर उन्होंने बड़ी उपलब्धियां हासिल नहीं की हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार, घोटाले और खराब शासन प्रणाली जैसी उपलब्धियां ही जुटाई हैं।'

भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बताने वाली भाजपा को अमेरिकापरस्त नीति निर्धारण या कारपोरेट राज से कोई परहेज नहीं है और न अन्ना ब्रिगेड को।

सुब्रमण्यम स्वामी, अध्यक्ष, जनता पार्टी, जो पीए संगमा के सिपाहसालार हैं, का दावा है, `जहां तक प्रधानमंत्री की व्यावसायिक योग्यता का सवाल है, तो भारत में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। चंद्रशेखर सरकार के दौरान मैंने आर्थिक सुधारों का खाका तैयार किया था और नरसिम्हा राव ने बतौर पीएम उस पर अमल कराया था।'

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने ‘टाइम’ पत्रिका द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना पर रविवार को कहा कि इससे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार को लेकर लोगों की भावनाएं पुष्ट हो गई हैं।

‘टाइम’ पत्रिका द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रदर्शन को उम्मीद से कम बताने पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए भाजपा के प्रवक्ता तरुण विजय ने कहा कि इससे आम भारतीयों की भावना पुष्ट हो गई है। पार्टी उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि प्रधानमंत्री ने केवल भ्रष्टाचार, घोटाले तथा कुशासन के क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल की है।

मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि प्रधानमंत्री पर हमला करते हुए नकवी ने कहा, ‘पत्रिका को उन्हें (मनमोहन को) दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में बताना चाहिए था, क्योंकि उनके जैसा प्रधानमंत्री कोई नहीं है, जो सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार में सबसे अधिक विश्वासपात्र हैं। स्वयं को ईमानदार व विश्वासपात्र के रूप में पेश करने वाले प्रधानमंत्री भ्रष्ट तथा घोटालों से घिरी सरकार का नेतृत्व करते हैं। निश्चित रूप से उन्होंने भ्रष्टाचार, घोटाला तथा कुशासन के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नहीं किया है।’

वहीं, भाजपा के सहयोगी जनता दल (युनाइटेड) के अध्यक्ष शरद यादव ने इस पर बिल्कुल अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की है। मीडिया रिपोर्ट्स में बताया गया है कि उन्होंने कहा, ‘टाइम पत्रिका क्या है? इसका हमसे क्या लेना-देना है? ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरह उनका उद्देश्य भी हमें लूटना है।’

मनमोहन सिंह के पतन का जिक्र करते हुए टाइम ने लिखा है, 'पिछले तीन वर्ष में उनके चेहरे से शात आत्मविश्वास वाली चमक गायब हो गई है। वह अपने मंत्रियों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे और उनका नया मंत्रालय

टाइम ने लिखा है कि ऐसे समय जब भारत आर्थिक विकास में धीमेपन को सहन नहीं कर सकता, विकास और नौकरियों को बढ़ाने में मददगार विधेयक संसद में अटके पड़े हैं। इससे चिंता पैदा होती है कि राजनेताओं ने वोट की खातिर उठाए गए कम अवधि वाले और लोकप्रिय उपायों के चक्कर में असल मुद्दे को भुला दिया है।

पलाश विश्वास

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