लालक़िले की प्राचीर से आज मोदीजी का भाषण (Modi ji's speech from the ramparts of the Red Fort,) सुनकर यही लगा चलो देश निश्चिंत हुआ देश में मोदी शासन में बहुत तरक्की हुई है। देश बुलंदियों को छू रहा है। कोरोना से कोई तबाह नहीं हुआ, कोई बीमार नहीं पड़ा, कोई मरा नहीं। कोई संकट नहीं, मौतें नहीं, किसानों की आत्महत्या नहीं, दहेज हत्या और स्त्री उत्पीड़न नहीं, आईटी और औद्योगिक जगत में कोई संकट नहीं, बेकारी नहीं, साम्प्रदायिक हिंसाचार नहीं! सब कुछ अमन-चैन में बदल चुका है। देश को बस संकल्पों की जरूरत थी! संकल्पों का अभाव था, मोदीजी ने देश को संकल्पों से भर दिया।
लालकिले की प्राचीर पीएम का रोजनामचा बताने की जगह हो गई है। उनको कम से कम दिन और मंच का तो ख्याल रखना चाहिए। कोई नीतिगत नई घोषणा नहीं, कोई नए कार्यक्रम का एलान नहीं। सिर्फ समय खाना। यह तो टीवी दर्शकों के ऊपर जुल्म है।
१५ अगस्त का मतलब उन्माद नहीं लोकतंत्र है। राष्ट्रवाद नहीं, लोकतंत्र है। उन्माद और राष्ट्रवाद तो 15 अगस्त के शत्रु हैं। शत्रुओं को परास्त करो, लोकतंत्र का विस्तार करो।
सवाल उठता है पीएम नरेन्द्र मोदी उदात्त भाव से क्यों नहीं बोलते, वे हमेशा अहंकार और प्रतिस्पर्धा के भाव में बोलते हैं! यह लोकतंत्र विरोधी भाव है। कवि नागार्जुन की कविता सत्य उनके शासन पर पूरी तरह लागू होती है-
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
सत्य को लकवा मार गया है
गले से ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सोचना बंद
समझना बंद
याद करना बंद
याद रखना बंद
दिमाग की रगों में ज़रा भी हरकत नहीं होती
सत्य को लकवा मार गया है
कौर अंदर डालकर जबड़ों को झटका देना पड़ता है
तब जाकर खाना गले के अंदर उतरता है
ऊपरवाली मशीनरी पूरी तरह बेकार हो गई है
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
वह आपका हाथ थामे रहेगा देर तक
वह आपकी ओर देखता रहेगा देर तक
वह आपकी बातें सुनता रहेगा देर तक
लेकिन लगेगा नहीं कि उसने आपको पहचान लिया है
जी नहीं, सत्य आपको बिल्कुल नहीं पहचानेगा
पहचान की उसकी क्षमता हमेशा के लिए लुप्त हो चुकी है
जी हाँ, सत्य को लकवा मार गया है
उसे इमर्जेंसी का शाक लगा है
लगता है, अब वह किसी काम का न रहा
जी हाँ, सत्य अब पड़ा रहेगा
लोथ की तरह, स्पंदनशून्य मांसल देह की तरह!
नागार्जुन ने सत्ता के चरित्र बहुत सही लिखा था-
हम कुछ नहीं हैं
कुछ नहीं हैं हम
हाँ, हम ढोंगी हैं प्रथम श्रेणी के
आत्मवंचक... पर-प्रतारक... बगुला-धर्मी
यानी धोखेबाज़
जी हाँ, हम धोखेबाज़ हैं
जी हाँ, हम ठग हैं... झुट्ठे हैं
न अहिंसा में हमारा विश्वास है
मन, वचन, कर्म... हमारा कुछ भी स्वच्छ नहीं है
हम किसी की भी 'जय' बोल सकते हैं
हम किसी को भी धोखे में डाल सकते हैं।
जगदीश्वर चतुर्वेदी