वॉल स्ट्रीट जर्नल के रहस्योद्घाटन के बाद भी अगर किसी को फेसबुक और भाजपा के रिश्ते की मजबूती (Facebook and BJP's relationship strengthened) में कोई शक रह गया हो, तो इस रहस्योद्घाटन के बाद से भाजपा के व्यवहार ने ऐसे हरेक शक-संदेह को दूर कर दिया होगा। भाजपा इस मामले में अपने आधिकारिक प्रवक्ताओं के हमलावर खंडनों से लेकर, सोशल मीडिया में अपने अनौपचारिक हमलों तक ही नहीं रुकी है। इससे आगे बढ़कर, भाजपा के सांसदगण संसदीय संस्थाओं की छानबीन से फेसबुक को बचाने के लिए पूरे जोर-शोर से भिड़ गए हैं। यह बताता है कि यह सिर्फ फेसबुक के या उसकी भारत की सर्वेसर्वा के, इकतरफा भाजपा प्रेम का मामला नहीं है--दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई।
भाजपायी सांसदों की यह सक्रियता खासतौर पर सूचना व प्रौद्योगिकी संबंधी संसदीय स्थायी कमेटी के संदर्भ में सामने आयी है। संसदीय स्थायी समिति के अध्यक्ष के नाते, कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने पहल कर फेसबुक को वॉल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों का जवाब देने के लिए नोटिस भिजवा दिया था।
बहरहाल, फेसबुक को भेजे गए इस नोटिस से भाजपा इस कदर बौखला उठी कि उक्त संसदीय समिति में शामिल उसके सांसदों ने, ऐसी जुर्रत करने के लिए संसदीय समिति के अध्यक्ष, शशि थरूर के खिलाफ ही बाकायदा जंग छेड़ दी है। भाजपा सांसद, निशिकांत दुबे ने थरूर के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस देते हुए, लोकसभा अध्यक्ष से नियम संख्या-283 के तहत अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर, उन्हें स्थायी समिति के अध्यक्ष पद से ही हटाने की मांग की है, जबकि भाजपा के ही एक और सांसद, राज्यवर्द्धन सिंह राठौर ने स्पीकर को पत्र लिखकर उनसे, समिति के अध्यक्ष के नाते थरूर द्वारा ‘नियमों का उल्लंघन’ किए जाने की शिकायत की है।
दोनों भाजपा सांसदों की शिकायत बुनियादी तौर पर
जाहिर है कि यह संसदीय समितियों को सत्ताधारी पार्टी के स्वार्थों के लिए नाकारा बनाए जाने का ही मामला है। लेकिन, मोदी राज में जब समूची संसदीय व्यवस्था को ही बधिया बनाकर रख दिया गया है, इस या उस संसदीय निकाय के हाथ बांधने की मौजूदा शासन की कोशिशों में अचरज की बात ही क्या है?
और वॉल स्ट्रीट जर्नल का रहस्योद्घाटन है क्या? बेशक, वॉल स्ट्रीट जर्नल ने जो कुछ बताया है, उसमें ऐसा कुछ नहीं है जो पहले से लोगों की जानकारी में ही नहीं था। उल्टे सांप्रदायिक/नस्लवादी सामग्री तथा फेक न्यूज के प्रति फेसबुक के ढीले-ढाले और जाहिर है कि अक्सर अपने कारोबारी स्वार्थों से संचालित रुख पर, लगातार सवाल उठते रहे हैं। इन सवालों की शृंखला में कैंब्रिज एनेलिटिका के सिलसिले में, पिछले ब्रिटिश आम चुनावों (ब्रेक्जिट से पहले) को अनुचित तरीके से प्रभावित करने की कोशिश के लिए तो उसे, चौतरफा हमलों का ही सामना नहीं करना पड़ा था, अपनी गलती माननी भी पड़ी थी। भारत में भी फेसबुक के मंच पर सक्रिय बहुत से लोग, सांप्रदायिक/कट्टरपंथी संदेशों के प्रति फेसबुक प्रशासन के पक्षपातपूर्ण रुख पर और उससे भी बढक़र व्हाट्सएप की भडक़ाऊ भमिका पर, लगातार सवाल भी उठाते रहे हैं। फिर भी वॉल स्ट्रीट जर्नल ने ठोस उदाहरणों के साथ यह दिखाया है कि, फेसबुक की उक्त आलोचनाएं न सिर्फ सही थीं बल्कि उनमें जरा सी भी अतिरंजना नहीं थी। इस सोशल मीडिया मंच के लिए, अपना कारोबारी मुनाफा ही सबसे ऊपर है।
जर्नल ने फेसबुक के भारत में काम-काज के सिलसिले में कम से कम चार उदाहरणों के साथ यह बताया है कि भाजपा से जुड़े व्यक्तियों तथा ग्रुपों के फेसबुक एकाउंटों से सांप्रदायिक रूप से भड़काऊ, आपत्तिजनक तथा फर्जी सामग्री के लगातार प्रसारित किए जाने को, खुद फेसबुक की अपनी इस तरह के उल्लंघनों की छनाई की व्यवस्था ने पकड़ा था और संबंधित एकाउंटों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाइयों की सिफारिश की थी। इनमें भाजपा के हैदराबाद के कुख्यात विधायक, राजा सिंह से लेकर उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगों के बारूद में पलीता लगाने वाले, कपिल मिश्र तक के नाम शामिल हैं। ऐसा ही एक और बदनाम नाम, कर्नाटक से भाजपा सांसद अनंत कुमार हेगड़े का है, जिसकी कोरोना वाइरस फैलाने में मुसलमानों की भूमिका और लव जेहाद से संबंधित पोस्टें, खासतौर पर फेसबुक की संहिता का उल्लंघन मानी गयी थीं।
याद रहे कि इन्हें कोई मामूली अतिक्रमणों का मामला नहीं माना गया था बल्कि खतरनाक तथा हिंसा भडक़ा सकने वाली श्रेणी के उल्लंघनों का दोषी माना गया था, जिसके लिए फेसबुक के प्लेटफार्म पर स्थायी रूप से प्रतिबंधित करने जैसे कड़े दंड की व्यवस्था है।
लेकिन, भारत में फेसबुक के कारोबार (Facebook business in India) की और इसलिए उसके नीति-निर्धारण की सर्वेसर्वा, आंखी दास ने यह कहकर इन मामलों में कार्रवाई का रास्ता रोक दिया कि, ऐसी किसी भी कार्रवाई से भारत में फेसबुक के कारोबार की मुश्किलें बढ़ जाएंगी। जाहिर है कि कारोबारी हितों का तर्क, फेसबुक के लिए सर्वोपरि साबित हुआ। वैसे इसे सिर्फ कारोबारी हितों की चिंता का मामला मानना भी मुश्किल है। इसकी वजह यह है कि वॉल स्ट्रीट जनरल ने आंखी दास के खुद, एक और खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक संदेश को अपनी अनुमोदनात्मक टिप्पणी के साथ फारवर्ड करने से लेकर, उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद, मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा करने वाले संदेशों तक की ओर भी, ध्यान खींचा है।
ऐसे ही एक और महत्वपूर्ण उदाहरण में, जर्नल ने उजागर किया है कि किस तरह भारत में आम चुनाव की पूर्व-संध्या में फेसबुक ने जब बड़ी संख्या में फेक न्यूज आदि के प्रसार से जुड़े पेजों को हटाया था, इसका एलान करते हुए आंखी दास के हस्तक्षेप से, जिसके राजनीतिक-चुनावी स्वर एकदम स्पष्ट थे, इसका तो एलान किया गया था कि पाकिस्तानी सेना से जुड़े तथा कांग्रेस से जुड़े अनेक पेजों को हटाया गया है, लेकिन इस तथ्य को छुपा ही लिया गया था कि इस कार्रवाई की लपेट में काफी संख्या में भाजपा से जुड़े पेज भी आए थे। साफ है कि यह आंखी दास की अगुआई में फेसबुक के एक तटस्थ सोशल मीडिया मंच के बजाए, एक सक्रिय राजनीतिक-चुनावी भूमिका में आ जाने का मामला था।
मोदी के राज में संघ-भाजपा और फेसबुक के इस रिश्ते का नुकसानदेह असर तब और भी बढ़ जाता है, जब हम दो परस्पर जुड़े हुए तथ्यों पर गौर करते हैं। पहला तो यही कि फेसबुक जैसे सोशल मीडिया माध्यम, जो अब भीमकाय इजारेदारियों का रूप ले चुके हैं, अपने संबंध में लोगों की जो शुरूआती धारणाए थीं, उनसे बहुत दूर जा चुके हैं। सचाई यह है कि इन माध्यमों ने, न सिर्फ मीडिया के रूप में अपनी काफी जगह बना ली है बल्कि उन्होंने काफी हद तक न सिर्फ परंपरागत छापे के मीडिया को बल्कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया को भी, उसके आसन से अपदस्थ कर दिया है। विज्ञापनों के प्रवाह का, जो कि मीडिया की शिराओं में दौड़ने वाला खून है, तेजी से तथा ज्यादा से ज्यादा, फेसबुक जैसे माध्यमों की ओर मुडऩा, इसी सचाई का संकेतक है। यह वो जगह है, जो इन माध्यमों से किसी भी कीमत पर और किसी भी तरह से, कमाई को अधिकतम करने मांग करती है। यह वो जगह भी है, जहां इस इजारेदाराना हैसियत का, अपने अनुकूल शासनों की मदद करने के लिए इस्तेमाल कर, बदले में अपनी कमाई और बढ़वाई जा सकती है। यहां तक कि अपनी कमाई के स्रोतों का विस्तार भी किया जा सकता है। जियो में फेसबुक का पिछले ही दिनों, शेयरों के अपेक्षाकृत छोटे हिस्से के लिए किया गया अरबों रुपए का निवेश, इसी की ओर इशारे करता है।
फेक न्यूज, सांप्रदायिक/ जातिवादी/ नस्लवादी संदेश, इन माध्यमों को अपनी कमाई बढ़ाने में मददगार ही दिखाई देते हैं, न कि बाधक। आखिर, मीडिया में पुरानी कहावत है कि तथ्य चलता है और झूठ, उड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन सोशल मीडिया माध्यमों का इस तरह की सामग्री को प्रसारित करने में निहित स्वार्थ है। जाहिर है कि हमारे देश में इस स्वार्थ को साधना इसलिए और आसान है कि परंपरागत मीडिया के विपरीत, सोशल मीडिया और यहां तक कि इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर भी यहां कोई और किसी भी तरह का नियमन तो है ही नहीं। हां! अपने नफा-नुकसान के हिसाब से सरकार जरूर कभी-कभार आंखें दिखाने की कोशिश या अभिनय करती है। यहां आकर, संघ-भाजपा और फेसबुक/व्हाट्सएप के हित एक हो जाते हैं। इसलिए भी, फेसबुक और आंखी दास के बचाव में संघ-भाजपा खुलेआम कूद पड़े हैं। उन्हें पता है कि संसदीय समिति के फेसबुक से जवाब मांगने से शुरूआत हो गयी, तो बात दूर तक जा सकती है। आखिरकार, संसद ही है जो इस अवैध गठजोड़ पर अंकुश ही नहीं लगा सकती है, सोशल मीडिया को ऐसे सामाजिक नियमन के दायरे में भी ला सकती है, जिसे जनतांत्रिक वैधता हासिल हो। संघ-भाजपा और फेसबुक, दोनों इसी से तो डरते हैं।
0 राजेंद्र शर्मा
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