Hastakshep.com-आपकी नज़र-Republic Day-republic-day-आत्मनिर्भर भारत-aatmnirbhr-bhaart-गणतंत्र दिवस-gnntntr-divs-नेट ज़ीरो-nett-jiiro-स्त्री उत्पीड़न-strii-utpiiddn

Republic Day is a day of introspection

गणतंत्र दिवस आत्मालोचना का दिन है। आसपास देखें, देश में देखें क्या छूट गया है हमारी आँखों से, कौन सी चीज है जो हमारे हाथ से निकल गयी है !

Think what have we lost?

सबसे बड़ी त्रासदी यह हुई है कि सम-सामयिक सामाजिक वास्तविकता हमारे हाथ से निकल गयी है, हमने उसे पाने के लिए बेचैन होना बंद कर दिया है। जब आप समसामयिक यथार्थ (Contemporary reality) को देखकर बेचैन नहीं होते तो इंसानियत के सबसे निचले स्तर पर पहुँच जाते हैं। कायदे से हमें इंसानियत के सबसे ऊँचे स्तर पर होना चाहिए। सेना और उसका तंत्र हमारी इंसानियत की निशानी नहीं हैं, सोचो हमने क्या खोया है ?

सारी दुनिया के देश अपने आजादी के दिन को सैन्य शक्ति के प्रदर्शन के रूप में जब दिखाते हैं तो जाने-अनजाने मानवता की नहीं सत्ता की ताकत का प्रदर्शन कर रहते हैं। लोकतंत्र की ताकत (Power of democracy) सैन्य शक्ति प्रदर्शन में नहीं लोकतांत्रिक मनुष्य की क्षमता के प्रदर्शन में दिखनी चाहिए।

The weakness of democracy is the lack of democratic man.

26 जनवरी के मौके पर शक्ति का गुणगान करने की बजाय लोकतंत्र का गुणगान किया जाता तो अच्छा होता। लोकतंत्र की कमजोरी है लोकतांत्रिक मनुष्य का अभाव। लोकतंत्र की उपलब्धि (Achievement of democracy) है विशालकाय लोकतांत्रिक संरचनाओं का विकास। इस मौके पर दिनकर की कविता नील कुसुम याद आ रही है।

जनतन्त्र का जन्म / रामधारी सिंह "दिनकर"

नील कुसुम

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे

तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली।

जनता? हां, लंबी - बड़ी जीभ की वही कसम,

"जनता, सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"

'है

प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार

बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

(26जनवरी,1950ई.)

Democracy was developed even in the fields and in the gardens.

लोकतंत्र का विकास खेतों -खलिहानों तक हुआ। पंचायतें गांवों तक पहुँची लेकिन किसान की दुर्दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। खेती में उत्पादन बढ़ा, लेकिन गांवों में भुखमरी कम नहीं हुई। भारत के गांवों में किसानों के पास संचित संपदा में कमी आई। हताशा और आत्महत्या में इजाफा हुआ। बड़े किसानों की अमीरी बढ़ी। कॉरपोरेट किसानी का जन्म हुआ। दो किस्म के भारत का जन्म हुआ। इस पहलू को ध्यान में रखकर काका हाथरसी ने "सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा" नामक कविता लिखी, पढ़ें -

सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा

हम भेड़-बकरी इसके यह ग्वारिया हमारा

सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है

हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है

लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा

सारे जहाँ से अच्छा .......

चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं

ईमान के मुसाफिर राशन को तरसते हैं

वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा

सारे जहाँ से अच्छा .......

जब अंतरात्मा का मिलता है हुक्म काका

तब राष्ट्रीय पूँजी पर वे डालते हैं डाका

इनकम बहुत ही कम है होता नहीं गुज़ारा

सारे जहाँ से अच्छा .......

हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते

लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते

बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा

सारे जहाँ से अच्छा .......

फ़िल्मों पे फिदा लड़के, फैशन पे फिदा लड़की

मज़बूर मम्मी-पापा, पॉकिट में भारी कड़की

बॉबी को देखा जबसे बाबू हुए अवारा

सारे जहाँ से अच्छा .......

जेवर उड़ा के बेटा, मुम्बई को भागता है

ज़ीरो है किंतु खुद को हीरो से नापता है

स्टूडियो में घुसने पर गोरखा ने मारा

सारे जहाँ से अच्छा .......

लोकतंत्र के विकास के साथ स्त्री संरक्षण और विकास के लिए सैंकड़ों कानून बने। लेकिन स्त्री उत्पीड़न कम नहीं हुआ। लोकतंत्र की समूची प्रकृति स्त्री को आत्मनिर्भर कम और पर निर्भर ज्यादा बनाती है।

आज जितनी औरतें स्वतंत्र और आत्मनिर्भर हैं उससे कई गुना ज्यादा औरतें घरों में गुलामों से भी बदतर अवस्था में जी रही हैं। सच यह है कि लोकतंत्र ने परिवार में दस्तक नहीं दी है। परिवार को लोकतात्रिक बनाए बगैर स्त्री के लिए लोकतंत्र अभी भी दुर्लभतंत्र है। सामाजिक राजनीतिक जीवन में बेईमानी का बडी तेजी से विकास हुआ है। बेईमानी को हर स्तर पर अधिकांश लोग मानने को मजबूर हैं। इसी प्रसंग काका हाथरसी की "जय बोल बेईमान की" कविता उल्लेखनीय है -

मन, मैला, तन ऊजरा, भाषण लच्छेदार,

ऊपर सत्याचार है, भीतर भ्रष्टाचार।

झूठों के घर पंडित बाँचें, कथा सत्य भगवान की,

जय बोलो बेईमान की !

प्रजातंत्र के पेड़ पर, कौआ करें किलोल,

टेप-रिकार्डर में भरे, चमगादड़ के बोल।

नित्य नई योजना बन रहीं, जन-जन के कल्याण की,

जय बोल बेईमान की !

महँगाई ने कर दिए, राशन-कारड फेस

पंख लगाकर उड़ गए, चीनी-मिट्टी तेल।

‘क्यू’ में धक्का मार किवाड़ें बंद हुई दूकान की,

जय बोल बेईमान की !

डाक-तार संचार का ‘प्रगति’ कर रहा काम,

कछुआ की गति चल रहे, लैटर-टेलीग्राम।

धीरे काम करो, तब होगी उन्नति हिंदुस्तान की,

जय बोलो बेईमान की !

दिन-दिन बढ़ता जा रहा काले घन का जोर,

डार-डार सरकार है, पात-पात करचोर।

नहीं सफल होने दें कोई युक्ति चचा ईमान की,

जय बोलो बेईमान की !

चैक केश कर बैंक से, लाया ठेकेदार,

आज बनाया पुल नया, कल पड़ गई दरार।

बाँकी झाँकी कर लो काकी, फाइव ईयर प्लान की,

जय बोलो बईमान की !

वेतन लेने को खड़े प्रोफेसर जगदीश,

छह सौ पर दस्तखत किए, मिले चार सौ बीस।

मन ही मन कर रहे कल्पना शेष रकम के दान की,

जय बोलो बईमान की !

खड़े ट्रेन में चल रहे, कक्का धक्का खायँ,

दस रुपए की भेंट में, थ्री टायर मिल जायँ।

हर स्टेशन पर हो पूजा श्री टी.टी. भगवान की,

जय बोलो बईमान की !

बेकारी औ’ भुखमरी, महँगाई घनघोर,

घिसे-पिटे ये शब्द हैं, बंद कीजिए शोर।

अभी जरूरत है जनता के त्याग और बलिदान की,

जय बोलो बईमान की !

मिल-मालिक से मिल गए नेता नमकहलाल,

मंत्र पढ़ दिया कान में, खत्म हुई हड़ताल।

पत्र-पुष्प से पाकिट भर दी, श्रमिकों के शैतान की,

जय बोलो बईमान की !

न्याय और अन्याय का, नोट करो जिफरेंस,

जिसकी लाठी बलवती, हाँक ले गया भैंस।

निर्बल धक्के खाएँ, तूती होल रही बलवान की,

जय बोलो बईमान की !

पर-उपकारी भावना, पेशकार से सीख,

दस रुपए के नोट में बदल गई तारीख।

खाल खिंच रही न्यायालय में, सत्य-धर्म-ईमान की,

जय बोलो बेईमान की !

नेता जी की कार से, कुचल गया मजदूर,

बीच सड़कर पर मर गया, हुई गरीबी दूर।

गाड़ी को ले गए भगाकर, जय हो कृपानिधान की,

जय बोलो बेईमान की !

Jagadishwar Chaturvedi जगदीश्वर चतुर्वेदी। लेखक कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। वे हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। लोकतंत्र के विकास के साथ बहुस्तरीय मीडियातंत्र का विशालकायतंत्र पैदा हुआ है। यह ऐसा तंत्र है जिसमें तांत्रिकों (प्रिफॉर्मरों) के लिए जगह है लेकिन लोकतांत्रिक संरचनाओं के लिए क्रिटिल स्पेस का अभाव है।

मीडिया ने मीडियाकर्मी ज्यादा पैदा किए हैं ओपिनियनमेकर कम पैदा किए हैं। हमारा मीडिया एकायामी है, अपनी कहता है, जनता की राय नहीं सुनता। यही वजह है मीडिया से जनता की ओर प्रवाह है जनता से मीडिया की ओर प्रवाह नहीं है।

आज गणतंत्र दिवस के मौके पर हमें नागरिकों और इंटरनेट यूजरों की प्राइवेसी की रक्षा करना सबसे महत्वपूर्ण मसला लगता है। भारत के नागरिकों की प्राइवेसी को खत्म करने के कई स्तरों पर प्रयास हो रहे हैं, इनमें सरकार से लेकर इंटरनेट सर्वर मालिक तक शामिल हैं। लोकतंत्र को सबल बनाने के लिए प्राइवेसी को बचाना बेहद जरूरी है।

जगदीश्वर चतुर्वेदी

Loading...