हिन्दी पट्टी को लेकर एक खास सवाल समय- समय पर उठते रहा है, वह यह कि हिंदी पट्टी की बहाली के लिए जिम्मेदार कौन? वर्तमान में यह सवाल एक बार फिर बिहार विधानसभा चुनाव-2020 में उठा है और उठाने वाले हैं खुद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
नरेंद्र मोदी ने बिहार चुनाव प्रचार के दौरान एक रैली को संबोधित करते हुए बिना किसी का नाम लिए कहा कि जंगलराज की वापसी के बाद बिहार फिर बीमारू राज्य बनने की दिशा में चल पड़ेगा. जाहिर है उन्होंने बिहार को बीमारू प्रदेश बनाने के लिए लालू प्रसाद यादव को जिम्मेदार बता दिया. उनके ऐसा करने के बाद बिहार की बदहाली के लिए लालू यादव को जिम्मेदार ठहराने की होड़ शुरू हो गयी. संभवतः इस होड़ में उतरते हुए ही बिहार के जाने – माने पत्रकार सुरेंद्र किशोर, जो नीतीश कुमार के पक्ष में इकतरफा लेखन के लिए भी चर्चित हैं, ने देश के सबसे बड़े अखबार में ‘बिहार के पिछड़ेपन का जिम्मेदार‘ शीर्षक से, आज 30 अक्टूबर को एक लेख लिखकर, एक तरह से प्रधानमंत्री की ही बातों को आगे बढ़ाने बढ़ाने का प्रयास किया है.
ऐसे में आज उस पुराने सवाल से टकराना फिर जरूरी है कि हिंदी पट्टी की बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन ?
बहरहाल यदि इस सवाल का सही जवाब ढूंढना है तो अतीत में जाना पड़ेगा : बिलकुल आज़ादी के काल में. और जब ऐसा किया जाय तो साफ दिखेगा कि इसके लिए पूर्ण
जी हाँ, आज़ाद भारत में केंद्र की सत्ता पर वर्चस्व हिन्दी पट्टी के सवर्णों का ही रहा. आजादी से लेकर अभी कल तक उत्तर भारतीय, विशेषकर बिहार के पड़ोसी राज्य यूपी के लोग ही देश के प्रधानमंत्री बनते रहे. देश के वर्तमान प्रधानमंत्री भले ही अ-हिंदी भाषी हों, किन्तु यूपी से ही चुनकर प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हुये हैं. देश की बागडोर किनके हाथ में रहेगी, यह मुख्य रूप से हिन्दी पट्टी, खासकर यूपी-बिहार के सवर्ण नेता ही तय करते रहे.
कहा जा सकता है कि यूपी-बिहार के सवर्ण ही स्वाधीनोत्तर भारत की सत्ता परिचालित करते रहे हैं. इन इलाकों के सवर्णों का वर्चस्व तब टूटा, जब मण्डल उत्तरकाल में कांशीराम फुल फॉर्म में आए. उन्होंने बहुजनों की जाति चेतना का राजनीतिकरण कर हिन्दी पट्टी की राजनीतिक शक्ल ही बदल दिया. किन्तु मण्डल के रास्ते सवर्णों का वर्चस्व टूटते–टूटते चार दशक लग गए. इन चार दशकों में देश किधर जाएगा, राष्ट्र के संपदा-संसाधनों और अवसरों का बंटवारा कैसे होगा, इसे तय करने का इकतरफा फैसला सवर्ण नेतृत्व ने किया। अर्थात देश की भावी रूपरेखा की मनमाफिक बुनियादी डिजायन सवर्णों ने शुरू के चार दशकों में ही पूरा कर लिया. उसी का परिणाम है उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और खासकर बिहार की मौजूदा तस्वीर.
जिन सवर्णों के हाथ में केंद्र की सत्ता की बागडोर रही, वे मुख्यतः उस अंचल से रहे हैं, जहां वर्ण-व्यवस्था सुदीर्घकाल से अपने क्लासिकल फॉर्म में रही है. वर्ण-व्यवस्था के कारण ही यहां सवर्णों का ही आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक वर्चस्व कायम हुआ. वर्ण-व्यवस्था मुख्यतः शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक – के बँटवारे की व्यवस्था रही तथा इसका प्रवर्तन सवर्णों के हित मे हुआ था.
चूंकि वर्ण-व्यवस्था हिन्दी पट्टी मे ही सर्वाधिक प्रभावी रही,इसलिए इस इलाके के सवर्ण जहां इससे पूरी तरह शक्तिसम्पन्न हुये वही, शूद्रातिशूद्र अत्यंत अशक्त व लाचार रहने के लिए अभिशप्त हुये.
अंग्रेजी सत्ता भी सवर्णों के इस प्रभाव को म्लान करने में समर्थ नहीं हुई. कारण, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह क्षेत्र बहुत बाद में आया. इसलिए जिस तरह बंगाल, महाराष्ट्र, मद्रास प्रांत अंग्रेजों के सौजन्य से आधुनिक ज्ञान- विज्ञान, उद्योग-धंधों के संसर्ग में आकर विकसित हुये, वैसा सौभाग्य हिन्दी पट्टी को नहीं मिला. ऐसे आज़ाद भारत में डॉ. अंबेडकर का संविधान प्रभावी होने के बावजूद परोक्ष रूप में हिन्दी पट्टी में मनु का विधान ही प्रभावी रहा.
जिन दिनों जीडीपी में कृषि का अवदान 50 प्रतिशत के आसपास रहा, उन दिनों इस इलाके की अधिकाधिक भूमि पर सवर्णों का ही कब्जा रहा. कृषि के साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी इनका ही एकाधिकार रहा.
कहा जा सकता है आजाद भारत की सत्ता ऐसे सवर्णों के हाथ मे आई,जिनके स्व-वर्ग के लोग खुशहाल ऐसी स्थिति में शासन-प्रशासन पर हावी सवर्णों ने हिन्दी पट्टी को उद्योग-धंधों, शिक्षालयों इत्यादि से समृद्ध करने में कोई रुचि नहीं ली। कारण, अपनी वर्णवादी सोच के कारण वे दलित-पिछड़ों को पशुतुल्य मानते रहे. हिन्दू धर्म से निर्मित उनकी सोच यह रही कि चूंकि शूद्रातिशूद्र अपने पूर्व जन्मों के पापों के कारण भूखा, अधनंगा के लिए ही पृथ्वी पर भेजे गए हैं, इसलिए वे बदहाल जीवन जीने के ही पात्र हैं. दूसरी तरफ उनकी संतानों के सुखमय भविष्य के लिए अवसरों की खूब कमी नहीं थी, इसलिए अपनी संतानों के भविष्य से संतुष्ट और बहुजनों की समस्याओं से निर्लिप्त सवर्ण नेता सत्ता को लूट का मध्यम बनाकर अपनी स्थित राजे-महाराजाओं जैसी बनाने मे जुट गए. यही नहीं शाही ज़िंदगी जीने की ललक इनमें इतनी तीव्र रही कि इन्होंने राजनीति को मिशन से प्रोफेशन मे तब्दील कर दिया.
बहरहाल अपने-अपने क्षेत्र को विकसित करने के बजाय सवर्ण नेतृत्व का निज उन्नति में प्रवृत होने का परिणाम यह हुआ कि हिन्दी पट्टी बीमारू अंचल में तब्दील होने के लिए अभिशप्त हुई. फलतः इन इलाकों से झुण्ड के झुण्ड लोग उद्योग-धंधों से समृद्ध इलाकों की ओर पलायन करने के लिए बाध्य हुये। वैसे इलाकों की मिल-फैक्टरियों के ऐसे कामों मे लगे जो स्थानीय लोगों के सम्मान के खिलाफ था. वैसे इलाकों में उन्हे रहने की जगह मिली अस्वस्थ्यकर औद्योगिक बस्तियों में. इससे स्थानीय लोगों की नजरों में इनकी हैसियत दूसरे दर्जे के नागरिक की रही. फिर भी उत्तर भारत के सवर्ण नेतृत्व के निकम्मेपन के कारण जीविकोपार्जन का कोई अन्य विकल्प न होने के कारण ये दोयम दर्जे की जिंदगी जीते हुये भी कोलकाता, मुंबई, सूरत, दिल्ली, चंडीगढ़ इत्यादि को अपने श्रम से समृद्ध करते रहे.
यहाँ उल्लेखनीय है कि औद्योगिक इलाकों में सवर्णों की सन्तानें भी गईं, पर, जहां बहुजन श्रमिक कठोर श्रम पर निर्भर काम पकड़ने के लिए बाध्य रहे, वहीं सवर्ण बाबू, सुपरवाइजर, दरबान इत्यादि के रूप में नियुक्त हुये.
परवर्तीकाल में भारत के हुक्मरानों द्वारा मानव संसाधन का सदुपयोग न कर पाने के कारण जब औद्योगिक इलाकों में बेरोजगारी बढ़ी, वहाँ के स्थानीय लोग उन कामों तक को करने के लिए आगे बढ़े, जो उनके पुरुखों द्वारा ठुकराये जाने के बाद हिन्दी पट्टी वालों के हिस्से मे आ गए थे. ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर वहाँ के राज ठाकरे जैसे छुटभैये नेताओं को प्रांतवाद का गेम प्लान करने का अवसर मिलता रहा. राज ठाकरों की वजह से ही समय-समय पर हिन्दी पट्टी के प्रवासी मजदूरों का छिट-फुट पलायन होता रहा. किन्तु थोक पैमाने पर हिन्दी पट्टी के लाखों-लाखों प्रवासी मजदूरों का पलायन पहली बार हुआ मोदी द्वारा लॉकडाउन की घोषणा के बाद.
इससे इन अभागे लोगों के खिलाफ दो बातें गयी हैं। पहला, हिन्दी पट्टी के मजदूरों के बड़े पैमाने पर पलायन के लिए वर्षों से गिद्ध दृष्टि जमाये विभिन प्रान्तों के राज ठाकरों को बिना प्रयास के इन्हे हटाने मे सफलता मिल गयी है. दूसरा, हिन्दी पट्टी के सवर्णों के कारण महज अपना श्रम बेचकर गुजारा करने वाले ये प्रवासी मजदूर कल जिन निजी क्षेत्र वालों(सवर्णों) के हाथ में मोदी देश सौंपने जा रहे हैं, उन्हें ये प्रवासी मजदूर अपना श्रम और कम दामों मे बेचने के लिए विवश होगा.
भारी अफसोस की बात है कि लॉकडाउन के अविवेकपूर्ण फैसले से जो दो बड़ी बातें हिन्दी पट्टी, विशेषकर बिहार के बहुजन मजदूरों के खिलाफ गयीं, उसके लिए सिर झुकाकर माफी मांगने के बजाय मोदी आज लालू को जिम्मेदार ठहराकर लॉक डाउन की दुर्दशा से बिहार के लोगों का ध्यान भटकाने की कुत्सित साजिश कर रहे हैं.
एच एल दुसाध
30 अक्तूबर, 2020