(कल जन सांस्कृतिक मंच मथुरा द्वारा आयोजित संगोष्ठी में अध्यक्षता करते हुए संक्षेप में जो बातें कही थीं, उनको यहां पेश किया गया है। संगोष्ठी में मेलबोर्न यूनीवर्सिटी में चीनी भाषा-साहित्य-राजनीति के विशेषज्ञ प्रोफेसर प्रदीप तनेजा (Professor Pradeep Taneja, an expert in Chinese language-literature-politics at the University of Melbourne) ने शानदार व्याख्यान दिया और रूस-यूक्रेन युद्ध के साथ जुड़े विभिन्न पहलुओं (Various aspects associated with the Ukraine-Russia war) पर विस्तार से रोशनी डाली।गोष्ठी का विषय था – “युद्ध की विभीषिका और वैश्विक संकट”।
रूस-यूक्रेन युद्ध एक ऐसे चरण में दाखिल हो गया है, जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। इस युद्ध की अपनी जटिलताएँ हैं।
यह सच है कि यूक्रेन में जनता पर वहाँ के मौजूदा शासकों ने अकथनीय ज़ुल्म किए हैं, वहाँ नाजीपंथी राजनीतिक शक्ति का उदय और विकास हुआ है और यूक्रेन ने पुराने अंतर्राष्ट्रीय समझौतों का उल्लंघन करते हुए नाटो में शामिल होने की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। वहाँ के शासक और नाजियों को अमेरिका और नाटो पूरी तरह सैन्य मदद दे रहे हैं। नाजीपंथी हथियारबंद गिरोहों ने यूक्रेन में रहने वाले रुसियों पर बेशुमार ज़ुल्म किए हैं। इसके कारण रुस को यूक्रेन में हस्तक्षेप करना पड़ा।
लेकिन आज यह स्थिति है कि यूक्रेन पूरी तरह तबाह हो चुका है, फिर भी युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा। दोनों ओर भारी सैन्य क्षति हुई है। यह एक पहलू है।
पुतिन में जो राजनीतिक लक्षण हैं वैसे ही लक्षण हैं जो कमोबेश सभी पूर्व सोवियत संघ में शामिल और बाद में स्वतंत्र हुए नेताओं में हैं। ये लक्षण वहाँ के पन्द्रह राष्ट्रों की केन्द्रीय विशेषता हैं।
आमतौर पर जब भी रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में बातें होती हैं तो आमतौर पर हम मानकर चलते हैं अमेरिकी युद्ध नीति समस्या की जड़ है।
यह सही है अमेरिकी युद्ध नीति एक महत्वपूर्ण पहलू है, परन्तु, रूस के नेता पुतिन का नज़रिया लोकतांत्रिक नहीं है। व्लादिमीर पुतिन का आचरण लोकतंत्र विरोधी और अधिनायकवादी है। वे वर्चस्ववादी राजनीति को विदेश नीति में ढालकर विभिन्न कारणों से विभिन्न देशों पर रुसी हमले संचालित करते रहे हैं।
पुतिन ने यूक्रेन के नाटो में शामिल होने और वहाँ रुसियों पर किए गए अकथनीय ज़ुल्मों का अपने वर्चस्ववादी-तानाशाही नज़रिए को छिपाने के लिए आवरण के तौर पर इस्तेमाल किया है।
सन् 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद सबसे दुखद बात यह रही कि जो पन्द्रह राष्ट्र स्वतंत्र-संप्रभु रूप में सामने आए, उनमें सभी नेता कहने के लिए लोकतंत्र के नाम पर सामने आए और लोकतंत्र के लिए सोवियत संघ का विघटन किया गया, लेकिन किसी भी नेता ने लोकतांत्रिक आचरण नहीं किया। अपने देश में लोकतंत्र का विकास नहीं किया, उलटे विपक्ष के दमन और लोकतंत्र की हत्या के अभियान को विभिन्न रुपों में जारी रखा। इससे एक बात स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आई कि लोकतंत्र के नाम पर सामने आए नए राजनीतिक दलों और नेताओं में लोकतांत्रिक मूल्यबोध और लोकतांत्रिक आचरण दूर दूर तक नहीं है।
यह भी कह सकते हैं कि नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में जन्मे तथाकथित लोकतांत्रिक नेताओं की जो नई फसल रुस से लेकर भारत तक पैदा हुई वह स्वभाव और आचरण में अधिनायकवादी रही है।
भारत में मोदी, ममता, केजरीवाल, जगनमोहन रे़ड्डी, केसीआर आदि पैदा हुए तो रूस में येल्तसिन-पुतिन आदि पैदा हुए। इन सभी नेताओं की राजनीतिक प्रकृति अधिनायकवादी है। घरेलू राजनीति में यदि कोई नेता अधिनायकवादी और वर्चस्ववादी है तो उसकी विदेश नीति इससे प्रभावित होगी। यह परिप्रेक्ष्य मोदी पर जितना लागू होता है, उतना ही पुतिन पर लागू होता है।
आमतौर रूसी वर्चस्ववाद की चर्चा नहीं होती, जबकि हक़ीक़त यह है कि नव्य आर्थिक उदारीकरण में जन्मे राजनेता वर्चस्व की राजनीति करते रहे हैं। एक जातीयता का दूसरी जातीयता पर वर्चस्व स्थापित करने, एक धर्म का दूसरे धर्म के लोगों पर वर्चस्व स्थापित करने, दमन करने, उनको नागरिक अधिकारों से वंचित करने का काम करते रहे हैं। पहले यह वर्चस्व का फिनोमिना सिर्फ़ अमेरिकी विदेश नीति का अंग था, इन दिनों यह ज़मीनी स्तर पर विभिन्न देशों में फैल गया है। हर चीज को वर्चस्व के नज़रिए से देखना, वर्चस्व के मातहत बनाकर रखना और लोकतंत्र, शांति और समानता को अस्वीकार करना इसकी प्रमुख विशेषता है।
वर्चस्व और अधिनायकवादी राजनीति ये दो बड़े फिनोमिना हैं, जिनको भूमंडलीकरण की राजनीति ने नए रूपों में विकसित किया। इससे लोकतंत्र क्षत-विक्षत हुआ और राष्ट्र-राज्य की संप्रभुता को नष्ट हुई। इस परिप्रेक्ष्य में यूक्रेन-रूस युद्ध को देखें तो संतुलित नज़रिया बनाने में मदद मिलेगी।
चूँकि नव्य आर्थिक उदारीकरण बुरी तरह असफल रहा है, इसलिए इन दिनों कोई उसकी असफलता की चर्चा नहीं कर रहा। असल में नव्य आर्थिक उदारीकरण के पराभव का चरमोत्कर्ष है यूक्रेन-रुस युद्ध, यह विश्व जनमत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। इस युद्ध में तृतीय विश्वयुद्ध या परमाणु युद्ध की संभावनाएँ पैदा कर दी हैं।
इसी प्रसंग में पंडित जवाहरलालव नेहरु याद आते हैं। उन्होंने सन् 1947 में भारत के स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र के जन्म के साथ पहली चीज यह सिखायी कि लोकतंत्र का विकास वर्चस्व की राजनीति के ज़रिए संभव नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के लिए समानता पर मुख्य रूप से ज़ोर दें और विवादों को बातचीत से हल करें। हर स्थिति में शांति बनाए रखें।
भारत विभाजन इसलिए नहीं हुआ कि जिन्ना नेहरू चाहते थे, भारत विभाजन इसलिए हुआ कि ब्रिटिश शासक वर्चस्व की राजनीति कर रहे थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद की वर्चस्ववादी राजनीति के कारण भारत विभाजन हुआ और यही फिनोमिना अन्य देशों में देखनें को मिला।
पुतिन के सत्ता में आने के बाद से अनेक देशों पर रूस के हमले हुए हैं। उन देशों की राष्ट्रीय संप्रभुता क्षतिग्रस्त हुई है। रूस में लोकतंत्र नष्ट हुआ है, उसकी जगह माफिया तंत्र विकसित हुआ है। सामान्य लोगों को बोलने की आज़ादी नहीं है। हम चाहते हैं कि यूक्रेन-रूस युद्ध तुरंत बंद हो। इसे राजनीतिक अहंकार और जय पराजय के रुप में न देखें।
युद्ध सबके लिए विनाशकारी होता है। हम हर हालत में शांति, समानता, लोकतंत्र और राष्ट्रीय संभुता की रक्षा करना चाहते हैं। इसके लिए जरूरी है कि वर्चस्व की राजनीति का हर स्तर पर विरोध किया जाए।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
Russo-Ukraine War: Threats of Vladimir Putin's Authoritarianism