गत 28 मई, 2020 को विष्णु दामोदर सावरकर फिर चर्चा में थे. उस दिन जहां कर्नाटक में विपक्षी दलों ने येलाहांका फ्लाईओवर का नाम सावरकर के नाम पर रखने का विरोध किया, वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा कि सावरकर ने अनेक व्यक्तियों को स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लेने की प्रेरणा दी थी.
सावरकर को मृत्योपरांत सम्मानित किये जाने के विरोधियों का कहना है कि सावरकर एक संप्रदायवादी नेता और हिन्दू राष्ट्रवादी चिन्तक थे, जिन्होंने हिंदुत्व शब्द को लोकप्रिय बनाया, ‘हिन्दू’ को परिभाषित किया और द्विराष्ट्र सिद्धांत की वैचारिक नींव रखी. इसी सिद्धांत ने सन 1940 में मुस्लिम लीग को पाकिस्तान के गठन की मांग करने का वैचारिक आधार दिया.
सावरकर की सोच शुरू से ही सांप्रदायिक थी यह इससे जाहिर है कि उन्होंने बचपन में ही एक मस्जिद पर हमला किया था. सावरकर की दो चीज़ों के लिए प्रशंसा की जाती है. पहली, 1857 के घटनाक्रम पर उनकी पुस्तक जिसका शीर्षक था ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ और दूसरा, अंडमान जेल से रिहा होने से पहले तक की उनकी ब्रिटिश विरोधी गतिविधियाँ. उन्होंने लॉ की डिग्री पाने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफ़ादारी की शपथ लेने से इंकार कर दिया था. उनकी ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियों के चलते उन्हें अंडमान में स्थित सेल्युलर जेल में डाल दिया गया. उन्हें 50 साल के कारावास की सजा सुनायी गई. सावरकर वहां अकेले नहीं थे. उस जेल में सैकड़ों कैदियों पर भयावह अत्याचार किया जाते थे.
सावरकर ने जेल से ब्रिटिश सरकार को अनेक याचिकाएं भेजीं जिनमें उन्होंने न केवल अपने किए के लिए माफ़ी माँगी बल्कि यह वायदा भी किया कि जेल से रिहा किए जाने पर
सावरकर ने हिन्दू राष्ट्रवाद का अपने सिद्धांत प्रतिपादित कर स्वाधीनता आन्दोलन को क्षति पहुंचाई. उनके अनुसार भारत में दो राष्ट्र थे - हिन्दू और मुस्लिम. उनका कहना था कि केवल वही हिन्दू है जिसकी पितृभूमि और पवित्र भूमि दोनों भारत में हैं. सावरकर ने ही हिंदुत्व शब्द को लोकप्रिय बनाया. आज यह शब्द हिन्दू धर्म का पर्यायवाची बन गया है. सावरकर का हिंदुत्व, दरअसल, राजनीति है जिसका जोर आर्य नस्ल और ब्राह्मणवादी संस्कृति पर है.
उनके अनुयायी भूल जाते हैं कि सावरकर ने कभी किसी बड़े ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन में भाग नहीं लिया.
मोदी कहते हैं कि सावरकर ने लोगों को स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया. सच यह है कि सन 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय सावरकर ने हिन्दू महासभा के अपने समर्थकों का आव्हान किया था कि वे अपने-अपने काम-धंधे करते रहें और ऐसा कुछ भी न करें जिससे अंग्रेज़ सरकार को परेशानी हो. उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन की मदद करने के लिए लाखों हिन्दुओं को ब्रिटिश सेना में भर्ती करवाया था. इस मामले में सावरकर और सुभाषचंद्र बोस के बीच अंतर स्पष्ट है.
मज़े की बात यह है कि ऐसा दावा किया जाता है कि सावरकर ने बोस से कहा था कि वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए सेना बनाएं! तथ्य यह है कि जहां बोस ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए आजाद हिन्द फौज़ का गठन किया वहीं सावरकर ने ब्रिटिश सेना में भारतीयों को भर्ती करवाकर अंग्रेजों के हाथ मज़बूत किये.
सावरकर ने ब्रिटिश सरकार से माफ़ी मांगते हुए कहा कि वे सरकार के साथ पूरा सहयोग करने को तत्पर हैं. भगत सिंह ने सरकार को लिखा कि चूंकि वे सरकार के विरोधी हैं, विद्रोही हैं इसलिए उन्हें फांसी देकर नहीं बल्कि फायरिंग स्क्वाड के द्वारा मारा जाना चाहिए.
आज कई हिन्दू राष्ट्रवादी भारत के विभाजन के लिए गांधीजी और मुसलमानों को दोषी बताते हैं. सच यह है कि जिस समय कांग्रेस भारत छोड़ो आन्दोलन चला रही थी उस समय हिन्दू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर बंगाल, सिंध और उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त में सरकारें बनाईं थीं. यह भी दिलचस्प है कि सिंध की हिन्दू महासभा-मुस्लिम लीग गठबंधन सरकार ने पाकिस्तान के निर्माण का समर्थन करते हुए प्रस्ताव पारित किया था. अंग्रेजों को भारत का विभाजन करने के लिए हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग से बेहतर सहयोगी नहीं मिल सकते थे.
जो लोग सावरकर का महिमामंडन करते हैं वे अंडमान जेल जाने के पहले के उनके जीवन पर फोकस करते हैं. परन्तु वे तब भी सांप्रदायिक थे. वे 1857 के विद्रोह को हिन्दुओं और मुसलमानों का ईसाईयों के विरुद्ध संयुक्त विद्रोह मानते थे ना कि किसानों और मजदूरों का औपोनिवेशिक शासन के विरुद्ध संघर्ष. आरएसएस, सावरकर के राष्ट्रवाद को तरजीह देता है और उन्हें ‘हिन्दू राष्ट्रवाद का पितामह’ बताता है परन्तु सावरकर और संघ की सोच में कुछ फर्क भी है. उदाहरण के लिए सावरकर गाय को पवित्र पशु का दर्जा देने के खिलाफ थे. वे गाय को केवल एक उपयोगी पशु मानते थे. इसके अतिरिक्त उनका राजनीति पर अधिक जोर था.
सावरकर जाति और लैंगिक पदक्रम पर आधारित हिन्दू धर्मग्रंथों के प्रशंसक और बौद्ध धर्म और अहिंसा के आलोचक थे. उनका मानना था कि अहिंसा के सिद्धांत ने ही भारत को कमज़ोर किया है. उनके लेखन से साफ़ है कि उनका दृष्टिकोण पितृसत्तामक था. पितृसत्तात्मकता ही सांप्रदायिक राजनीति की नींव है. शिवाजी द्वारा कल्याण के राजा की बहू, जो उन्हें युद्ध में विजय की भेंट स्वरुप प्राप्त हुई थी, को सुरक्षित उसके राज्य वापस भेज देने को सावरकर गलत मानते हैं. उनके अनुसार शिवाजी को मुसलमानों के हाथों हिन्दू औरतों की बेइज्जती का बदला लेना था.
गांधीजी की हत्या में सावरकर की भूमिका (Savarkar's role in Gandhi's assassination) का कई कोणों से अध्ययन किया गया है. उन पर गाँधीजी की हत्या के सिलसिले में मुकदमा भी चला था परन्तु पुष्टि करने वाले सबूतों के अभाव में उन्हें बरी कर दिया गया. सरदार पटेल की यह मान्यता थी कि गांधीजी की हत्या हिन्दू महासभा के उग्रवादी धड़े ने की थी.
पिछले कुछ दशकों से सावरकर का महिमामंडन करने का अभियान चल रहा है. उनका तैलचित्र संसद भवन में लगा दिया गया है. सवाल यह है कि क्या भारत को इस तरह के नायकों की ज़रुरत है? हिन्दू राष्ट्रवादियों की नज़रों में वे नायक है. जहाँ तक भारतीय राष्ट्रवादियों का सवाल है वे मानते हैं कि कालापानी भेजे जाने के पहले तक सावरकर ब्रिटिश-विरोधी थे परन्तु उनका भारतीय राष्ट्रवाद या धर्मनिरपेक्ष, प्रजातान्त्रिक भारत के निर्माण के संघर्ष से कोई वास्ता नहीं रहा.
हिन्दू राष्ट्रवादी का जोर जेल भेजे जाने के पूर्व सावरकर की भूमिका पर रहता है और वे उन्हें एक ऊंचे सिंहासन पर बिठाना चाहते है.
सावरकर विशुद्ध सम्प्रदायवादी थे. अपने जीवन के एक बड़े हिस्से में उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया और मुस्लिम लीग की राजनीति (Muslim League politics) को बढ़ावा दिया. उन्होंने ही देश के विभाजन को तार्किक आधार प्रस्तुत किया और अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति को पुष्ट किया.
-राम पुनियानी
(हिंदी रूपांतरणः अमरीश हरदेनिया)