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Shaheen Bagh forgot Nehru, even if we forget, the RSS has not forgotten, nor will it forget.

शाहीन बाग़ के धरने में नेहरू की तस्वीर न होने पर कुछ ही देर पहले ट्वीटर पर Ritambhara Agrawal और फेसबुक पर Ashok Kumar Pandey की चिंता देखी, कुछ कमेंट्स भी।

बहुत पहले से कहता आया हूँ कि स्मृति एक नैतिक जिम्मेवारी है, आप अतीत में से क्या याद करते हैं, क्या भूलते हैं यह इस पर निर्भर करता है कि आप भविष्य कैसा बनाना चाहते हैं।

जान कर, अनजाने में, या इस वजह से कि नेहरू की तस्वीर लगाने के मानी यह निकाले जा सकते हैं कि धरने वाले कांग्रेस के करीब हैं, या किसी भी वजह से नेहरू को याद करने से इंकार करने वालों को सोचना चाहिए कि नेहरू की याद को अलग करके वे कैसी भविष्य-कल्पना का परिचय दे रहे हैं।

बैंगलोर लिटफेस्ट के दौरान कर्नाटक कांग्रेस के एक बड़े नेता ने 'हू इज भारत माता...' की तारीफ करते हुए एक बात कही थी, जौ मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। उन्होंने कहा था, 'Purushottam ji, we have forgotten Nehru, RSS has not and never will' ( नेहरू को हम भले ही भूल जाएं, आरएसएस न भूला है, न भूलेगा।)

कांग्रेसी ही नहीं, नेहरू को और भी बहुत से लोग भूल से गये हैं, शाहीन बाग़ में उनकी तस्वीर न होना अचंभा नहीं, प्रचलित स्मृतिलोप का ही उदाहरण है। "हम" क्यों भूल गये हैं नेहरू को, इस पर फिर कभी बात करूंगा ( वैसे इस पोस्ट के अलावा तो करता ही रहता हूँ ) , लेकिन आरएसएस क्यों नहीं भूला है इसकी वजह तो फौरन समझी जा सकती है। नेहरू ने ही तो लिखा था, बारंबार याद दिलाया था कि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता को पहचानना आसान है क्योंकि वह अलगाव के मुहावरे में बात करती है, बहुसंख्यक सांंप्रदायिकता राष्ट्रवाद का मुखौटा पहन कर काम करती है।

सन पचपन में कुछ बड़े अफसरों को यह भी नेहरू ने ही याद दिलाया था कि 'स्वाधीन , डेमोक्रेटिक भारत को दूरगामी खतरा कम्युनिस्टों से नहीं कम्युनलिस्टों से है।'

आज पैंसठ साल बाद, यह बात सही लग रही है या ग़लत?

बहुत से लोग नेहरू पर भारतीय सोच से कटे होने का आरोप भी लगाते हैं, और गांधी को कोसते हैं कि उन्होंने नेहरू को उत्तराधिकारी क्यों घोषित किया, पटेल को क्यों नहीं। इस तथा ऐसे अन्य सवालों पर मैंने हू इज भारत माता...की भूमिका में विचार किया है, यहाँ बस दो-एक बातें मुख्तसर में।

सबसे पहले तो पटेल के अपने वे शब्द, जो उन्होंने नवंबर, 1948 में कहे थे। मैं राजमोहन गांधी की पुस्तक दि गुड बोटमैन से उद्धृत कर रहा हूँ--

" गांधीजी ने नेहरू को उत्तराधिकारी चुना, और उनके निधन के बाद यह हमारे सामने स्पष्ट है कि उनका फैसला बिल्कुल सही था।"

कम्युनिस्टों के विपरीत नेहरू राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रवाद का महत्व पहचानते थे, और कम्युनलिस्टों के विपरीते वे यह जानते थे कि राष्ट्रवाद कोई सदा से चली आ रही, नहीं ऐतिहासिक क्रम में विकसित हुई भावना है, लेकिन यह भी कि 'जब कोई संकट आया है, राष्ट्रीयता उठ खड़ी हुई है...लोगों ने पुरानी परंपराओं में ही ताकत और आराम को ढूंढा है'। उन्होंने अपने समकालीन साम्यवादी विचारकों को यह ऐतिहासिक तथ्य याद दिलाया कि, ' राष़्ट्रीय परंपराओं में वापस लौटने की बात मजदूरों की जमात में और मेहनत का काम करनेवालों में खासतौर से दिखाई देती है।' ( हिन्दुस्तान की कहानी, सस्ता साहित्य मंडल, पृ. 710)

भारत की सांस्कृतिक स्मृतियों की निरंतरता का कितना गहरा बोध नेहरू को था, यह उनकी वसीयत में गंगा की काव्यात्मक स्तुति से जाहिर होता है। डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसी निरंतरता के सूत्रों और चुनौतियों की खोज है। निरंतरता के इसी बोध और खोज के कारण पंकज मिश्रा जैसे खोखले लिबरल टिप्पणीकार नेहरू को मोदी सरीखों की पाँत में बैठा देते हैं।

नेहरू वैज्ञानिक मनोवृत्ति के हामी थे, वे शब्द के सार्थक अर्थों में आधुनिक, विवेकवादी थे, और उनका विवेक जानता था कि " सत्य के कई पहलू हैं, उस पर किसी एक आदमी या राष्ट्र का ही एकमात्र अधिकार नहीं है"। ( वही, पृ. 771)

नेहरू धर्म के संगठित रूपों से प्रभावित नहीं हो पाते थे। जिन श्रीश्री और तथाकथित सद्गुरु को श्री शशि थरूर श्रेष्ठ धर्मनेता मानते हैं, उन्हें तो नेहरू शायद एक पल भी न झेल पाते; लेकिन वे मानव जीवन और इतिहास में धर्म की भूमिका को नकारते नहीं थे। जहाँ तक उनके अपने मानस का सवाल था, वे स्वयं को स्पष्ट रूप से अद्वैत वेदांत के निकट पाते थे। उनका मानस भारत माता त्यागी, अमरीकपंथी हिन्दुओं के लिए कितना भी अजनबी हो, आम आस्थावान हिन्दू या किसी अन्य धर्म को मानने वाले संवेदनशील व्यक्ति के लिए नेहरू से संवाद करना बहुत ही सहज था , बावजूद इस तथ्य के कि नेहरू धार्मिक मुहावरे में बात नहीं करते थे।

यही तो कारण है कि 'हम' भले ही उन्हें भूल जाएँ, सांप्रदायिक ताकतें नेहरू को न भूली हैं न भूलेंगी।

यह लिखते समय बार-बार याद आता रहा कि कितने लोग हू इज भारत माता के हिन्दी अनुवाद की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

लगे हाथ, खुशखबरी दे दूँ कि कन्नड़ में इस किताब का अनुवाद हो चुका है, जल्द ही लोकार्पित होगा।

हिन्दी अनुवाद जल्द से जल्द आ जाए, चाहता तो मैं भी यही हूँ—

पुरुषोत्तम अग्रवाल

(प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की फेसबुक टिप्पणी साभार )

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