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शेष नारायण सिंह

आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर की कोशिश को शुरू से ही ग्रहण लग गया है। वे शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी से बातचीत कर रहे हैं। लेकिन इस मुकदमे के जो असली मुद्दई और मुद्दालेह हैं उन्होंने वसीम रिजवी और श्री श्री रविशंकर की मुलाकात को बकवास करार दिया है। शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी और आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद दावा किया कि विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है और 2018 में अयोध्या में मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा। वसीम रिजवी के अयोध्या मसले को लेकर चल रही मुलाकातों व दावों को लेकर इससे जुड़े मुकदमे के पक्षकारों से जब बात की गई तो दोनों पक्षों के लोगों ने एक सुर से समझौते के मसौदे को बकवास बताया।

अयोध्या का राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद फिर सुर्खयों में है। 2019 का चुनाव भी करीब है और राज्य में एक ऐसी सरकार है जिसके मुखिया के पूर्वज अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़कर उसकी जगह पर राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के सबसे बड़े पक्षधर रहते आये हैं। योगी आदित्यनाथ स्वयं भी वहां रामजन्म भूमि बनाने के बड़े समर्थक हैं लेकिन अब संवैधानिक पद पर हैं और उनकी भूमिका सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने भर की है। जो मामला सुप्रीम कोर्ट में है उसमें उत्तर प्रदेश सरकार पार्टी नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार ने साफ कर दिया है कि बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही अंतिम सत्य होगा और सरकार उसको लागू करेगी। राज्यपाल राम नाइक ने इस आशय का बयान भी दे दिया है।

उन्होंने कहा कि, 'इस तरह की कोशिशें उन लोगों द्वारा की जा रही हैं जिनको लगता है कि इससे मामले को जल्दी सुलझाया जा सकता है। मेरी शुभकामना

उन लोगों के साथ है लेकिन सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही अंतिम होगा और वाह बाध्यकारी होगा।' इस बीच धार्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने अयोध्या विवाद को अदालत से बाहर सुलझाने की कोशिश शुरू कर दिया है। वे अयोध्या भी गए, उत्तर प्रदेश में राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मिले। उनकी बैठक चालीस मिनट तक चली और उनकी तरफ से यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि उनके प्रयासों को सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है, लेकिन कुछ देर बाद ही सरकार की तरफ से बयान आ गया कि श्री श्री की मुख्यमंत्री से हुई मुलाकात केवल शिष्टाचारवश की गई है। इसका भावार्थ यह हुआ कि उनके अयोध्या जाने न जाने से सरकार को कुछ भी लेना-देना नहीं है। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने भी किसी सुनवाई के दौरान कह दिया है कि सभी सम्बंधित लोगों को विश्वास में लेकर इस मामले में सुलह की संभावना की तलाश की जा सकती है।

आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर की कोशिश को शुरू से ही ग्रहण लग गया है। वे शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी से बातचीत कर रहे हैं। लेकिन इस मुकदमे के जो असली मुद्दई और मुद्दालेह हैं उन्होंने वसीम रिजवी और श्री श्री रविशंकर की मुलाकात को बकवास करार दिया है। शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी और अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद दावा किया कि विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत काफी आगे बढ़ चुकी है और 2018 में अयोध्या में मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा। वसीम रिजवी के अयोध्या मसले को लेकर चल रही मुलाकातों व दावों को लेकर इससे जुड़े मुकदमे के पक्षकारों से जब बात की गई तो दोनों पक्षों के लोगों ने एक सुर से समझौते के मसौदे को बकवास बताया।

अयोध्या मसले के मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी ने वसीम रिजवी के फार्मूले को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा, 'राजनीतिक फायदा उठाने के लिए इस तरीके के फार्मूले पेश किए जा रहे हैं। सुन्नी इसको मानने को तैयार नहीं है। उन्होंने कहा कि वसीम रिजवी ने शिया वक्फ बोर्ड में इतना घोटाला किया है और अपने को फंसता देख भगवान राम की याद आने लगी है।' वहीं दूसरी तरफ हाजी महबूब ने भी रिजवी को पहचानने से मना कर दिया और कहा, 'बीजेपी सरकार ने वक्फ बोर्ड का चेयरमैन बना दिया इसका मतलब यह नहीं यह मुसलमानों के चेयरमैन हैं वह जो कुछ भी कह रहे हैं केवल सुर्खयों में आने के लिए है।'

श्री श्री रविशंकर के इस मामले में शामिल होने को लेकर सभी पक्षकारों में खासी नाराजगी है। मुस्लिम नेताओं ने कहा है कि श्री श्री रविशंकर को सबसे पहले अपनी मंशा को साफ तौर पर बताना चाहिए। आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी मौलाना वली रहमानी ने कहा कि श्री श्री रविशंकर कह रहे हैं कि वे सभी पक्षकारों से बात कर रहे हैं लेकिन अभी उन्होंने आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड से कोई संपर्क नहीं किया है। 12 साल पहले भी श्री श्री रविशंकर ने इस तरह की कोशिश की थी और कहा था कि विवादित स्थल हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए। आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के महासचिव ने वसीम रि•ावी की दखलन्दाजी का भी बहुत बुरा माना है। उन्होंने कहा कि किसी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष के पास इस तरह के अख्तियारात नहीं हैं कि वह किसी भी विवादित जगह को किसी एक पार्टी को सौंप दे। वसीम रि•ावी कई बार कह चुके हैं कि विवादित ढांचा हिन्दुओं को दे दिया जाय और उनको कोई एतराज नहीं है। वसीम रिजवी उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार के $खास थे लेकिन आजकल नई सरकार के करीबी बताये जा रहे हैं। कुछ दिन पहले उन्होंने बाबरी मस्जिद को लेकर कई विवादित बयान दिए और एक हलफनामा दाखिल करके अपने संगठन, शिया वक्फ बोर्ड को मुकदमे में पार्टी बनाने की मांग की।

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ऐसा लगता है कि अति उत्साह में वसीम रिजवी रविशंकर के साथ घूम रहे हैं क्योंकि शिया मुसलमानों के प्रमुख संगठन शिया पर्सनल ला बोर्ड के प्रवक्ता मौलाना यासूब अब्बास ने वसीम रिजवी के बयान पर कोई टिप्पणी करना जरूरी नहीं समझा। उन्होंने साफ किया कि उनका संगठन आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के साथ है। बाबरी मस्जिद मामले से बहुत समय से जुड़े जफरयाब जिलानी ने कहा है कि सितम्बर 2010 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले में शिया वक्फ बोर्ड का कोई नहीं है इसलिए वसीम रिजवी के बयानों का कोई मतलब नहीं है, उनका इस मुकदमे से कोई लेना-देना नहीं है।

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बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद मूलरूप से जमीन की मिलकियत का एक विवाद था लेकिन आजादी के बाद फैजाबाद के एक कलेक्टर ने मामले को तूल दे दिया। दिसंबर 1949 में तत्कालीन कलेक्टर केके नायर की साजाश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां रख दी गई थीं। शायद केके नायर हिन्दू भावनाओं पर सवार होकर अपनी भावी राजनीतिक शमशीर चमकाना चाहते थे। उनको फायदा हुआ भी। जब चुनाव हुए तो वे लोकसभा चुनाव भी फैजाबाद से लड़ कर लोकसभा पंहुचे। लेकिन जो काम उन्होंने किये उससे भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल को उन्होंने बहुत चिंतित कर दिया।

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9 जनवरी 1950 के दिन देश के गृहमंत्री ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था। पत्र में साफ लिखा है कि 'मैं समझता हूं कि इस मामले को दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए। इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता... मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्तिपूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए।' लेकिन विवाद तो गंभीर बन चुका था और सरकार ने मामले को शांत रखना ही ठीक समझा। सरदार पटेल के बाद गोविन्द वल्लभ पन्त भी केन्द्रीय गृहमंत्री बने लेकिन उन्होंने भी इस विवाद को छेड़ना ठीक नहीं समझा। बात चलती रही। लेकिन जब 1984 के चुनाव में आरएसएस की अपनी पार्टी, बीजेपी केवल दो सीटों पर सीमित रह गई, पार्टी के बड़े-बड़े नेता चुनाव हार गए तो बात बदल गई। इसको समझने के लिए समकालीन इतिहास की एक झलक देखनी पड़ेगी।

1980 में तत्कालीन जनता पार्टी इसलिए टूटी थी कि पार्टी के बड़े समाजवादी नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें। मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है। जबकि आरएसएस अपने को राजनीतिक नहीं सांस्कृतिक संगठन मानता है। इस विवाद के बाद आरएसएस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया। शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की। दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की। लेकिन जब 1984 के लोकसभा चुनाव में 542 सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए त्याग दिया गया।

जनवरी 1985 में कलकत्ता में आरएसएस के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई जिसमें भाजपा के बड़े नेताओं, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी को भी बुलाया गया और साफ बता दिया गया कि अब गांधीवादी समाजवाद को भूल जाइए। आगे से पार्टी की राजनीति के स्थायी भाव के रूप में हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा। वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या में रामजन्म भूमि के निर्माण के नाम पर राजनीतिक मोबिलाइजेशन किया जाएगा।

आरएसएस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया। विहिप की स्थापना अगस्त 1964 में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था। 1985 के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आरएसएस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वीएचपी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा। 1985 से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है।

वीएचपी आज भी अयोध्या विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है। श्री श्री रविशंकर की मध्यस्थता को वीएचपी वाले कोई महत्व नहीं देते। उसके प्रवक्ता, शरद शर्मा ने कहा है कि, 'रामजन्मभूमि हिन्दुओं की है। पुरातत्व के साक्ष्य यही कहते हैं कि वहां एक मंदिर था और अब एक भव्य मंदिर बनाया जाना चाहिए। जो लोग मध्यस्थता आदि कर रहे हैं उन पर नजर रखी जा रही है लेकिन समझौते की कोई उम्मीद नहीं है। अब इस काम को संसद के जरिये किया जाएगा।'

समझ में नहीं आता कि श्री श्री रविशंकर किस तरह की मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं जब रामजन्म भूमि-बाबरी मज्सिद विवाद के दोनों की पक्ष उनकी किसी भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। हां, इस बात में दो राय नहीं है कि जब तक वे इस विवाद को सुलझाने की कोशिश करते रहेंगे तब तक उनको खूब मीडिया स्पेस मिलता रहेगा।

 

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