Hastakshep.com-Opinion-kink of theory and practice-kink-of-theory-and-practice-Maharashtra-maharashtra-NCP-ncp-Shiv Sena in Maharashtra-shiv-sena-in-maharashtra-Shiv Sena-shiv-sena-एनसीपी-ensiipii-महाराष्ट्र में शिवसेना-mhaaraassttr-men-shivsenaa-महाराष्‍ट्र-mhaaraassttr-शिवसेना-shivsenaa-सिद्धांत और व्यवहार की गुत्थी-siddhaant-aur-vyvhaar-kii-gutthii

महाराष्ट्र में शिवसेना एनसीपी की सरकार !

सिद्धांत और व्यवहार की इस अनोखी गुत्थी पर एक नोट A note on the unique kink of theory and practice

अभी जब हम यह लिख रहे हैं, कांग्रेस कार्यसमिति महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी की सरकार को समर्थन देने, न देने के सवाल पर किसी अंतिम नतीजे पर पहुंचने के लिये मगजपच्ची कर रही है। यह ‘मगजपच्ची’ शब्द ही इस बात का सूचक है कि जो भी समस्या है, उसे राजनीतिक व्यवहार की समस्या कहा जाए या एक सैद्धांतिक समस्या, कोशिश उसका एक भाषाई समाधान पाने की है।

व्यवहारिक समस्या यह है कि महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन ऐतिहासिक कारणों से ही अभी साथ-साथ आगे बढ़ने की स्थिति में नहीं रह गया है। इसके पीछे ऐतिहासिक कारण यही है कि ये दोनों अपने को हिंदुत्ववादी कहने पर भी अलग-अलग दल हैं और इनमें शिवसेना मराठा पहचान के प्रतिनिधित्व पर अपनी इजारेदारी कायम करना चाहती है। अर्थात् सिर्फ हिंदुत्व नहीं, मराठावाद, जय महाराष्ट्र, मराठा जातीयतावाद का इन्हें अलगाने वाला मुद्दा एक जीवित मुद्दा है। मोदी के हिंदू, हिंदी, हिंदुस्थान के दबाव की स्वाभाविक उत्पत्तियों का एक रूप।

पिछले लोकसभा चुनाव के समय जब बहादुर मोदी-शाह के दिल कांप रहे थे, उद्धव ठाकरे ने चाणक्य से राज्य में सत्ता की बराबर भागीदारी का करार लिया था। ‘कल की कल देखेंगे’ वाली चालाक बुद्धि ने तब जान बचाने के लिये हर कुछ के लिये हामी भर दी थी। लोक सभा चुनाव ने उनके अंदेशे को सही साबित किया और मोदी-शाह जोड़ी को फूल कर कुप्पा होने में क्षण भर का भी समय नहीं लगा। मीडिया तो गैस भरने का ही पैसा ले रहा था। मान लिया गया था कि हरियाणा और महाराष्ट्र में मोदी-शाह के घोड़े दौड़ेंगे। विपक्ष मैदान से गायब है, मीडिया रोज इसकी कहानियां सुना रहा था। लेकिन लोगों के दुखों से ही नित नई कहानी गढ़ी जाती है, इस साधारण

बात की ओर किसी का ध्यान नहीं था। जनतंत्र में पक्ष-विपक्ष अंततः जनता तय करती है, और देखते-देखते पार्टियों के बड़े-बड़े महल वीरान खंडहरों में बदल जाते हैं, इन सचाइयों को सब भूल चुके थे।

बहरहाल, हरियाणा और महाराष्ट्र दोनों जगह ही बीजेपी अपनी अपेक्षाओं के मानदंड पर बुरी तरह से पराजित हुई। हरियाणा में तो उसे अपनी मदद के लिये अमित शाह के जाल में फंसा दुखियारा अजय चौटाला मिल गया, लेकिन महाराष्ट्र में पहली बार शिव सेना के लिये अपने सपनों को पर देने के लिये जरूरी खुला आसमान मिल गया।

अहंकार में डूबे मोदी ने पहले से ही फडनवीस को मुख्यमंत्री घोषित करके शिव सेना से वार्ता के दरवाजे बंद कर दिये थे। अब आज शिव सेना एनसीपी और कांग्रेस के सहयोग से अपना मुख्यमंत्री बनाने जा रही है। इस प्रकार महाराष्ट्र में खास मराठा राजनीति का सूत्रपात होने जा रहा है।

एनसीपी खुद को इस मराठा राजनीति की हमेशा की एक स्वाभाविक मगर धर्म-निरपेक्ष संघटक शक्ति मानती रही है, इसलिये शिव सेना के साथ जाने के लिये उसे बहुत ज्यादा भाषाई मशक्कत करने की जरूरत नहीं है। इस मामले में थोड़ा सा पेचीदा मसला कांग्रेस के लिये जरूर है।

दरअसल, राजनीतिक कार्रवाई का सैद्धांतिक निरूपण एक बहुत दिलचस्प विषय हुआ करता है। सिद्धांतों का राजनीतिक व्यवहारिक निरूपण तो इसलिये साधारण बात होती है कि उसमें जो भी किया जा रहा है, उसे पहले से ही बता दिया गया है। उसमें छिपा हुआ या लाक्षणिक प्रकार का कुछ नहीं होता है। चमत्कारों की संभावना तो लक्षणों में हुआ करती है जो यथार्थ में उतरने के पहले तक हवा में कहीं छिपे होते हैं। राजनीति का सौन्दर्यशास्त्र इसी में है। इसीलिये एक समय में अपने एक लेख में हमने हरियाणा के ‘आया राम गया राम’, लालू और मायावती की भूमिकाओं के सिलसिले में राजनीति के सौन्दर्यशास्त्र की चर्चा की थी जो चमत्कारी ढंग से असंभव को संभव बना कर राजनीति के गतिरोधों को तोड़ने और आगे का रास्ता बनाने का काम किया करती है।

आज कांग्रेस के सामने मूलतः जितनी एक सैद्धांतिक समस्या है, उतनी व्यवहारिक नहीं। जब महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम आए थे, 24 अक्तूबर को ही फेसबुक पर इस लेखक की पहली प्रतिक्रिया थी —

“ हवा से फुलाए गए मोदी के डरावने रूप में सुई चुभाने का एक ऐतिहासिक काम कर सकती है शिव सेना। वह ऐसा कुछ करेगी, नहीं कहा जा सकता है !”

इसके साथ ही आगे अपने एक लेख में लिखा था कि “सचमुच, यथार्थ का विश्लेषण कभी बहुत साफ-साफ संभव नहीं होता है। यथार्थ के अन्तर्विरोध कई अन्य अन्तर्विरोधों के समुच्चयों से घटित होते हैं, जिनका अलग-अलग समुच्चयों के स्वरूप पर भी असर पड़ता हैं। जनता के बीच कोई रहेगा और शासन की छड़ी कोई और , दूर बैठा तानाशाह घुमायेगा, जनतंत्र के अंश मात्र के रहते भी इसमें दरार की संभावना बनी रहती है। लड़ाई यदि सांप्रदायिकता वनाम् धर्म-निरपेक्षता की है तो तानाशाही वनाम् जनतंत्र की भी कम नहीं है। बस यह समय की बात है कि दृश्यपट को कब और कौन कितना घेर पाता है।

“किसी भी निश्चित कालखंड के लिये कार्यनीति के स्वरूप को बांध देने और उससे चालित होने की जड़सूत्रवादी पद्धति ऐसे मौक़ों पर पूरी तरह से बेकार साबित होती है।यह कार्यनीति के नाम पर कार्यनीति के अस्तित्व से इंकार करने की पद्धति किसी को भी कार्यनीति-विहीन बनाने, अर्थात् समकालीन संदर्भों में हस्तक्षेप करने में असमर्थ बनाने की आत्म-हंता पद्धति है। इस मामले में शिव सेना जन-भावनाओं के ज़्यादा क़रीब, एक ज़रूरी राजनीतिक दूरंदेशी का परिचय देती दिखाई पड़ रही है। यह शिव सेना की राजनीति के एक नये चरण का प्रारंभ होगा, भारत की राजनीति में उसकी कहीं ज़्यादा बड़ी भूमिका का चरण।

“यह शिव सेना के लिये इतिहास-प्रदत्त वह क्षण है जिसकी चुनौतियों को स्वीकार कर ही वह अपने को आगे क़ायम रख सकती है। ऐसे समय में कायरता का परिचय देना उसके राजनीतिक भविष्य के लिये आत्म-विलोप के मार्ग को अपनाने के अलावा और कुछ नहीं होगा। समय की गति में ठहराव का मतलब ही है स्थगन और अंत। कोई भी अस्तित्व सिर्फ अपने बूते लंबे काल तक नहीं रहता, उसे समय की गति के साथ खुद को जोड़ना होता है।

“एक केंद्रीभूत सत्ता इसी प्रकार अपना स्वाभाविक विलोम, स्वयंभू क्षत्रपों का निर्माण करती है। बड़े-बड़े साम्राज्य इसी प्रकार बिखरते हैं। यह एक वाजिब सवाल है कि क्यों कोई अपनी गुलामगिरी का पट्टा यूँ ही लिखेगा ! ऐसे में विचारधारा की बातें कोरा भ्रम साबित होती हैं।”

सचमुच, महाराष्ट्र में इस बार न सिर्फ़ मोदी-शाह को, बल्कि सेना, पुलिस के साथ ही सीबीआई, ईडी, आईटी आदि की सम्मिलित राजनीतिक दमन की शक्ति को भी ललकारा गया है। हाल-फिलहाल इनमें न्यायपालिका का भी शुमार हो चुका है।

 कहना न होगा, यहीं से पूरे विषय का परिप्रेक्ष्य भी बदल जाता है। बात बीजेपी-आरएसएस के वृहत्तर विचारधारात्मक परिवार से बाहर निकल जाती है। मसला फासीवादी तानाशाही के प्रतिरोध और प्रतिकार का आ जाता है।

किसी भी कार्यनीति का हर मसला इसी प्रकार अंततः एक ऩई भाषाई संरचना का मसला ही हुआ करता है। जैसे मनोरोगी में कुछ बेकार के विचारों से होने वाले काल्पनिक दर्द के निवारण के लिये ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की होती है कि दमित विचारों को नये संकेतकों की श्रृंखला से जोड़ दिया जाए ताकि वह चीजों को एक प्रकार के नये तर्जुमा के जरिये पढ़ सके। यही इलाज है, तमाम राजनीतिक सिद्धांतकारों को भी उनकी अपनी जड़ीभूत लाक्षणिक मानसिकता के रोग से मुक्त कराने का। यद्यपि इस क्रम में इस बात का खतरा हमेशा प्रबल रूप से बना रहता है कि उसके शरीर के बाक़ी अंग कहीं नष्ट न हो जाए। इसके लिये आगे की अतिरिक्त मेहनत और रणनीति को तैयार करने की जरूरत रहती है, जो किसी भी राजनीतिक पार्टी का दैनन्दिन काम हुआ करता है।

देखना है कांग्रेस कार्य समिति कैसे इसे संभालती है। अब तक एनसीपी और कांग्रेस शिव सेना के प्रति जिस प्रकार के लचीलेपन का परिचय दे रही है, वह स्वागतयोग्य है। देश की पूर्ण तबाही के मोदी के एकाधिकारवादी राज से मुक्ति का रास्ता कुछ इसी प्रकार तैयार होगा।

(11 नवंबर 2019, अपरान्ह डेढ़ बजे )

अरुण माहेश्वरी

 

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