बलात्कार की आए दिन हो रही नई वारदातें व बढ़ते हुए क्रूर, बर्बर, घृणित दुष्कर्म के मामले देखकर तो यह निश्चित हो गया है कि लोगों में अब कानून या सजा का भय नहीं है। कानून अब उनके लिए शायद एक दाँवपेंच का तंत्र मात्र बन गया है। न्यायिक-व्यवस्था का ढुलमुल रवैया, सुस्त कार्यवाही, तारीखों पे तारीख जैसी खामियों को लेकर अपराधी बड़ी निडरता से अब अपने अपराधों को जन्म दे रहे हैं।
यह बिल्कुल एक अन्धा कानून ही लगता है। दलीलों सबूतों का संवेदनहीन खेल लगता है। यह सब ऐसा क्यों है, और क्यों अपराधियों को यह सब सहज व निडर लगता है। कम से कम बढ़ते हुए अमानवीय अपराधों को देखकर तो यही मालूम पड़ रहा है।
बड़ा आश्चर्य होता है कि जब अपराधी जेल से रिहा होता है और खुले आम पीड़िता को धमकी देता है फिर उसे जला डालता है। कुछ ऐसा ही अभी उन्नाव में भी हुआ। ऐसे न जाने कितनी ही हृदयविदारक घटनाएँ, कांड बेहद बेबाक अंदाज में अपना अंजाम देते रहते हैं, और हम सब मुंह बाएँ उसकी ओर बस केवल घूरते ही रहते हैं और इससे अधिक कुछ नहीं करते। यह कैसी व्यवस्था है? कैसा सिस्टम है?
दूसरी तरफ यदि सरकार की बात करें तो मालूम हो कि, देश की लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 30% नेताओं (जिन्हें हम चुनते हैं) का आपराधिक रिकॉर्ड है। इनमें से 4 नेता तो सीधे-सीधे दुष्कर्म के मामलों का सामना भी कर रहे हैं। यह सब
अभी संसद में देश की एक सांसद ने लिंचिंग की बात कही। जायज़ है उनका गुस्सा, लेकिन मैडम जी जनता क्या करे जब आपके संसद के भीतर ही कुछ ऐसे सांसद बैठे हैं, जिन पर बलात्कार के आरोप हैं। पर शायद यह सब हम नजरअंदाज़ करने के आदी भी हो गए हैं, जोकि चुनाव के समय अपने यहाँ से खड़े होने वाले प्रत्याशी की जानकारी तक नहीं रखते और चुनाव कर उसे सदन तक पहुँचाते हैं।
परिणामस्वरूप, यह सब जो तमाशा हो रहा है इसका जिम्मेदार सरकार व सिस्टम और साथ ही जनता भी है, क्योंकि जनता भी अपना काम ठीक-ठीक नहीं कर रही है। एक तो नेताओं का सही चुनाव करने में अपनी अज्ञानता दिखाती है। दूसरा, काम का ब्योरा मांगने व सवाल करने में असमर्थता महसूस करती है।
आखिरकार सवाल पूछना कोई गलत है क्या या फिर अलोकतांत्रिक है? यदि नहीं, तो फिर क्यों नहीं करते हैं सवाल। सवाल करिए, पूछिए।
कहाँ, कैसे, किन चीजों पर / सुविधाओं पर / व्यस्थाओं पर लगाए गए हैं पैसे? यह लगाया भी गया है ठीक-ठीक या नहीं, और यदि है तो ये व्यवस्था, तंत्र, सुविधायें कहाँ सो रही हैं?
जारी किए गए करोड़ों रुपए के ‘निर्भया फंड’ से हमारी बहनें कितनी निर्भय बन सकीं?
निर्भया फंड से जो इमरजेंसी रिस्पांस सपोर्ट सिस्टम (ERSS) बनाना था, जिसके लिए करोड़ों रुपए जारी भी किए गए, उसका क्या हुआ?
निर्भया फंड से जो वन स्टॉप सेंटर (One stop center from Nirbhaya fund) बनाना था, जिसमें यौन-शोषण व हिंसा से प्रभावित महिलाएं फौरन चिकित्सा सहायता, पुलिस सहायता, कानूनी सहायता, मनोसमाजिक परामर्श सहायता सब एक ही जगह सहजपूर्ण उपलब्ध होने का उल्लेख था, उसका क्या हुआ?
इन सारे सवालों का जवाब अब सरकार को देना ही होगा और यही सही मायने में एक लोकतान्त्रिक सरकार का अर्थ है।
संदीप के. गुप्ता,
असि. प्रोफेसर एवं मीडिया रिसर्च स्कॉलर - पांडिचेरी विश्वविद्यालय