Hastakshep.com-आपकी नज़र-अर्जुन सिंह-arjun-sinh-आपातकाल-aapaatkaal-नसबंदी-nsbndii-राजिम-raajim-ललित सुरजन-llit-surjn-लोकसभा-loksbhaa-श्यामाचरण शुक्ल-shyaamaacrnn-shukl-स्वाधीनता संग्राम-svaadhiintaa-sngraam

Shyama Charan Shukla (श्यामा चरण शुक्ल) Former Chief minister of Madhya pradesh

श्यामाचरण शुक्ल के अंतर्विरोधों से भरे लेकिन बुनियादी तौर पर उदार व्यक्तित्व की एक घटना का वर्णन कर हम आगे बढ़ेंगे। 1970 में वे मुख्यमंत्री के रूप में जबलपुर आए थे। छात्रों का आंदोलन चल रहा था। छात्रों ने रास्ते में उनका काफिला रोकने की कोशिश की। पुलिस ने भारी बल का प्रयोग किया। शरद यादव व रामेश्वर नीखरा सहित अनेक नेता बुरी तरह जख्मी हुए। शहर में उत्तेजना का वातावरण बन गया। छात्र हित में बाबूजी को आगे आना पड़ा। मुख्यमंत्री के नाम बाबूजी का पत्र लेकर छात्र भोपाल गए। दोषी पुलिस वालों पर कार्रवाई हुई। विद्यार्थियों पर लगे मुकदमे वापस हुए। उनकी अधिकतर मांगें जायज थीं जो मान ली गईं। यही वह क्षण था जहां से शरद यादव व रामेश्वर नीखरा का राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण हुआ। रामेश्वर नीखरा कांग्रेस से चार बार लोकसभा सदस्य और कांग्रेस सेवादल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने।

श्री शुक्ल की यह खासियत थी कि उन्हें सारे मध्यप्रदेश में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। एक समय ऐसा आया जब प्रदेश की राजनीति में एक तरह से मध्यभारत का वर्चस्व और महाकौशल का पराभव हो गया। द्वारिका प्रसाद मिश्र एक भूली हुई कहानी बन चुके थे।

Shyama Charan Shukla Biography Hindi

शरद यादव जबलपुर छोड़ चुके थे। रामेश्वर नीखरा और कर्नल अजय मुश्रान को प्रदेशव्यापी स्वीकृति नहीं मिल सकी थी। और कमलनाथ  धनकुबेरोचित अपने फैन क्लब बनाने जैसे चोचलों में ही व्यस्त थे। तब जबलपुर के मित्रों ने मुझसे कहा कि मैं शुक्लजी से जबलपुर आकर चुनाव लड़ने को कहूं

ताकि संस्कारधानी को उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नेतृत्व मिल सके। शुक्लजी के पास मैं यह संदेश लेकर गया लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ अलग प्रदेश बन गया था और वे मध्यप्रदेश जाने तैयार नहीं थे। वे उस समय अपने अनुज से चालीस साल पुराना अलिखित अनुबंध तोड़ महासमुंद से लोकसभा सदस्य थे और इस स्थिति से बहुत प्रसन्न नहीं थे। प्रसंगवश ध्यान आता है कि उन्हें 1967 में टिकटों के वितरण में सोशल इंजीनियरिंग यानी सामाजिक समीकरणों का बखूबी प्रयोग करते हुए भी देखा है। इसके विस्तार में जाने की अभी आवश्यकता नहीं है।

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पंडित रविशंकर शुक्ल के सभी पुत्र स्वाधीनता संग्राम के दौर से ही एक के बाद एक राजनीति में आए।

उनकी सबसे बड़ी बेटी की बेटी यानी नातिन राजेंद्र कुमारी बाजपेयी भी एक समय कांग्रेस के बड़े नेताओं में गिनी जाती थीं। वे इंदिराजी की विश्वासभाजन थीं। उनके बेटे अशोक बाजपेयी भी उत्तर प्रदेश में विधायक, मंत्री आदि बने; तथापि संसदीय राजनीति में पांच दशक से अधिक समय बिताने का दुर्लभ अवसर श्यामाचरण और विद्याचरण को ही मिला। दोनों भाइयों ने आपस में समन्वय करते हुए अपने-अपने क्षेत्र बांट लिए थे। दोनों को पर्याप्त महत्व एवं सम्मान भी मिला। इसके बावजूद दोनों को अपनी-अपनी सुदीर्घ पारी में अनेक उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ा। कहना कठिन है कि ऐसा अपनी शर्तों पर राजनीति करने के कारण हुआ या कभी परिस्थितियों का सही आकलन न कर पाने के कारण या फिर आत्मविश्वास के अतिरेक के कारण।

1969 में संविद सरकार गिरने के बाद जब श्यामाचरण को पहली बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला तब किसी ने कल्पना न की थी कि 3 साल के भीतर उन्हें पद छोड़ना पड़ेगा। उनके मंत्रिमंडल में तीन-चार ऐसे सदस्य थे जिनके ऊपर गंभीर आरोप थे।

कांग्रेस हाईकमान से उन्हें हटाने के संकेत भेजे गए जिनकी शुक्ल जी ने अनदेखी कर दी। परिणामत: इंदिरा गांधी ने उन्हें हटाकर प्रकाश चंद्र सेठी को मुख्यमंत्री बनाकर मध्यप्रदेश भेज दिया। शुक्ल जी की हठधर्मिता के बावजूद इंदिराजी का यह निर्णय हमें इसलिए पसंद नहीं आया था, क्योंकि इसमें कांग्रेस विधायक दल को विश्वास में न लेकर संसदीय परंपरा का उल्लंघन किया गया था। इस पर देशबन्धु में बाकायदा संपादकीय टिप्पणी लिखी गई।

श्री शुक्ल को आपातकाल के दौरान दोबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला जब सेठीजी को इंदिरा जी ने केंद्र में दोबारा बुला लिया। इस दौर में अन्य तमाम कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की तरह शुक्ल जी ने भी अपने सारे अधिकार मानो केंद्रीय सत्ता के हाथ सौंप दिए।

यद्यपि इतना कहना होगा कि उन्होंने नारायण दत्त तिवारी अथवा हरिदत्त जोशी की तरह अपनी गरिमा को ताक पर नहीं रखा।

जब 20 सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत चुंगी कर (आक्ट्राय) हटाने का प्रस्ताव रखा गया तो मध्यप्रदेश पहला और इकलौता राज्य था जिस ने आनन-फानन में सबसे पहले चुंगी कर समाप्त कर दिया। इसका राज्य की वित्तीय स्थिति पर क्या असर पड़ेगा इसका विचार ज्यादा नहीं किया गया।

इसी तरह नसबंदी कार्यक्रम को सफल बनाने में भी शुक्ल सरकार ने अतिरिक्त उत्साह के साथ भाग लिया। जिन आदिवासी क्षेत्रों में, जिनमें स्वयं मुख्यमंत्री का क्षेत्र शामिल था, यह कार्यक्रम नहीं चलाया जाना था वहां भी अधिकारियों ने नियमों की अनदेखी कर दी।

1977 के विधानसभा चुनाव (1977 Assembly Elections) में अपनी परंपरागत सीट राजिम से श्री शुक्ल चुनाव हार गए क्योंकि उस अंचल के आदिवासियों ने नसबंदी की ज़्यादतियों के कारण उनसे मुंह मोड़ लिया।

देश-प्रदेश में जनता पार्टी सरकार बन जाने के बाद कांग्रेस लगभग एक साल तक सदमे में रही। जब पार्टी ने नए सिरे से खुद को संभालना शुरू किया तब हारे हुए मुख्यमंत्री एक तरह से हाशिए पर चले गए।

याद आता है कि कांग्रेस ने अखिल भारतीय स्तर पर महंगाई विरोधी आंदोलन का आह्वान किया था। विधानसभा में विपक्ष के नेता अर्जुन सिंह (Arjun Singh) रैली को संबोधित करने में रायपुर आए थे। श्यामाचरण इसमें बेमन से शामिल हुए।

Lalit Surjan ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं. वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं. वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सद्भाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है. यह आलेख देशबन्धु से साभार लिया गया
Lalit Surjan ललित सुरजन देशबंधु पत्र समूह के प्रधान संपादक हैं. वे 1961 से एक पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं. वे एक जाने माने कवि व लेखक हैं. ललित सुरजन स्वयं को एक सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं तथा साहित्य, शिक्षा, पर्यावरण, सांप्रदायिक सद्भाव व विश्व शांति से सम्बंधित विविध कार्यों में उनकी गहरी संलग्नता है. यह आलेख देशबन्धु से साभार लिया गया

रायपुर के कंकालीपारा चौक (Kankalipara Chowk of Raipur) से अर्जुनसिंह रैली बीच में छोड़कर भाटापारा की रैली में शामिल होने चले गए। उनके पीछे-पीछे बाकी कांग्रेसी भी। बहुत देर तक श्यामाचरण अपने वाहन के इंतजार में अकेले खड़े रहे। किसी ने उनसे बात तक नहीं की।

कुछ समय बाद मौजीराम मुरारीलाल फर्म के मोहनलाल अग्रवाल अपने स्कूटर से वहां से गुजरे तो शुक्लजी को देखकर रुके और वहीं पास में शिवकुमार चौधरी के कुमार मेडिकल स्टोर में उन्हें ले जाकर बैठाया। मैं चौक पर खड़े-खड़े यह दृश्य देख रहा था।

ललित सुरजन

लेखक देशबन्धु के प्रधान संपादक हैं। उनकी यह टिप्पणी देशबन्धु के प्रकाशन के 60 वर्ष पूरा होने पर प्रकाशित हुई है, उसके संपादित अंश।

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