जो वोट बटोरने के लिए हमारे समाज में नफरत (Hate in society) फैला रहे हैं, वे भारत की प्रगति एवं विकास के शत्रु (Enemies of India's progress and development) हैं तथा भारत विरोधी शक्तियों के सहायक (Assistant to the anti-India powers) हैं।
हमारे समाज का ताना बाना मेल मिलाप का है, भाइचारे का है। वोट पाने के लिए जो भी हमारे समाज में जहर घोलने का काम करता है वह देश के विकास एवं प्रगति का शत्रु है और अलकायदा जैसी नापाक ताकतों का सहायक है। सांप्रदायिक ताकतें (Communal forces) सुनियोजित ढ़ंग से भारतीय समाज में नफरत फैलाने का काम कर रही हैं। अलकायदा जैसी आतंकवादी एवं भारत की प्रगति एवं विकास की विरोधी ताकतें तो चाहती ही यह हैं कि भारतीय समाज की एकजुटता (Solidarity of Indian society) खंडित हो जाए।
आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता। जो लोग हिन्दू आतंकवादी अथवा मुसलमान आतंकवादी (Hindu terrorist or Muslim terrorist) जैसे वाक्यांशों का प्रयोग करते हैं वे जाने अनजाने भारत विरोधी ताकतों के हाथ मजबूत कर रहे हैं। आतंक एवं धर्म अथवा दहशतगर्द एवं मजहब परस्पर एकदम विपरीतार्थक हैं। धर्म अहिंसा, उदारता, सहिष्णुता, उपकारिता एवं परहित के लिए त्याग सिखाता है जबकि आतंकवाद हिंस्रता, उग्रता एवं कट्टरता, नृशंसता, क्रूरता एवं गैर लोगों का संहार करना सिखाता है।
मज़हब नेकचलनी सिखाता है; दहशतगर्दी वहशीपन सिखाता है। मज़हबी रहमदिल होता है; दहशतगर्द
जब धर्म मजहब का यथार्थ (Truth of religion) अमृत तत्व आतंकवादियों के हाथों में कैद हो जाता है तब धर्ममजहब के नाम पर अधार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का जहर वातावरण में घुलने लगता है। धर्म- मजहब की रक्षा के लिए धर्म युद्ध जिहाद के नारे भोले भाले नौजवानों के दिमाग में साम्प्रदायिकता एवं उग्रवादी आतंक के बीजों का वपन कर उनको विनाश, विध्वंस, तबाही, जनसंहार के जीते जागते औज़ार बना डालते हैं।
आतंकवाद को यदि मिटाना है, निर्मूल करना है तो धर्माचार्यों को धर्म मजहब के वास्ताविक एवं यथार्थ स्वरूप को उद्धाटित करना होगा, विवेचित करना होगा, मीमांसित करना होगा। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि यदि चित्त में राग एवं द्वेष है, मेरे तेरे का भाव है तो व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। सबको मिलजुलकर एकस्वर से यह प्रतिपादित करना होगा कि धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। प्रत्येक प्राणी के अन्दर उसका वास है, इस कारण अपने अन्दर झाँकना चाहिए, अन्दर की आवाज सुनना चाहिए तथा अपने हृदय अथवा दिल को आचारवान, चरित्रवान, नेकचलन एवं पाकीज़ा बनाना चाहिए। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार सम्भव नहीं है।
क्या अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वार अल्लाह के सामने शरणागत होना अध्यात्म साधना है? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति में निहित है? सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से आराध्य की भक्ति करना धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है? क्या स्नान करना, तिलक लगाना, माला फेरना, आदि बाह्य आचार की प्रक्रियाओं को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है?
धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेष रहित होने में है? धर्म का रहस्य संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि के आचरण में? संसार के सभी धर्मों के साधक सत्य की आराधना करते हैं।
महात्मा गाँधी जी ने ठीक कहा कि- 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दें भगवान'।
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
(देशबन्धु में प्रकाशित एक पुराना परन्तु आज भी प्रासंगिक लेख)