औरतों के पक्ष में फेसबुक पर लिखते ही अनेक मित्र हैं जो यह कहने लगते हैं कि भाई साहब ! शैतान औरतों का भी ख्याल कीजिए। उन मर्दों का भी ख्याल कीजिए जो औरतों के लगाए मिथ्या आरोपों के शिकार होते हैं।
सच है कि समाज में ऐसी औरतें भी हैं जो दुष्ट हैं और परेशान करती हैं लेकिन इनसे भी हजार गुना ज्यादा संख्या उन औरतों की है जो सचमुच में पीड़ित हैं, दमन की शिकार हैं और अधिकारहीन अवस्था में जी रही हैं।
संविधान में समानता के अधिकार के बावजूद औरतें अधिकारहीन हैं। इन अधिकारहीन औरतों पर ही पुरुषों के हमले सबसे ज्यादा हो रहे हैं।
लोग सोचते हैं कि औरतें घर में रहती हैं तो सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं लेकिन सच यह है कि वे घर में सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं।
अधिकांश औरतें आज भी पुरुष जगत के अंतर्गत ही जिंदगी जी रही है। वे हर समय पुरुष के पूरक के रूप में सेवा करती रहती हैं। वे जहां एक ओर पुरुष के पूरक की तरह काम करती हैं वहीं दूसरी ओर उसे चुनौती भी देती हैं। इस विरोधाभासी स्थिति के कारण ही वे समाज में अपनी जगह बनाती हैं। औरत बचपन से यही सीखकर बड़ी होती है कि औरत को पुरुषों की बातें माननी
औरत की समूची संरचना इस कदर बनी होती है कि वह आलोचना, जाँच-पड़ताल आदि से बचती है। वह पुरुष के मूल्यांकन और राय की आराधना करती है। वह पुरुष को रहस्यमय मूर्ति की तरह देखती है। स्त्री की दृष्टि में शक्ति ही महान है इसलिए वह पुरुष की शक्तिशाली के रुप में पूजा करती है।
स्त्री में अनुकूलन की प्रबल प्रवृति होती है। सीमोन के शब्दों में कहें तो पुनर्निर्माण और विध्वंस स्त्री का सहज स्वभाव नहीं है। वह विद्रोह की अपेक्षा समझौते पसंद करती है। चूंकि स्त्री को घर-परिवार की चौखट से बाँध दिया गया है फलतः वह उसी में रमण करती रहती है ऐसी स्थिति से लोकमंगल और स्वतंत्रता के बारे में उससे सकारात्मक पहल की उम्मीद कम ही करें।
Free the woman from the shackles of the house
स्त्री को घर के बंधनों से मुक्त करो वह स्वतंत्रता और लोकमंगल के सवालों पर सक्रिय मिलेगी। स्त्री को समर्थ बनाने के लिए उसे घर से बाहर निकालना जरूरी है। उसको सार्वजनिक तौर पर विभिन्न सवालों पर बोलना चाहिए। स्त्री के लिए अस्पृश्यता के सभी दायरों तोड़ने की जरुरत है।
औरत सुरक्षित रहे, आत्मनिर्भर बने और मानवीय जीवन जिए इसके लिए उसके अंदर स्वतंत्रता का बोध पैदा करने की जरुरत है।
जगदीश्वर चतुर्वेदी
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