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कांशीराम जयंती पर विशेष - Special on Kanshi Ram Jayanti

कांशीराम ने मुलायम सिंह को दी थी पार्टी बनाने की सलाह | कांशीराम ने राष्ट्रपति के पद का ऑफर ठुकरा दिया था !

बीएस फोर से, बामसेफ से बीएसपी तक का सफर | क्या थे कांशीराम के दो सपने? What were Kanshi Ram's two dreams ?

कांशी राम की जीवनी - Kanshi Ram Biography in Hindi

भारतीय राजनीति में 85% बनाम 15% की सामाजिक जाति व्यवस्था के आंकड़ों से पिछड़े अल्पसंख्यक तथा दलितों में सत्ता के प्रति प्यास जगाने वाले मान्यवर कांशी राम (Kanshi Ram (15 March 1934 – 9 October 2006) वास्तव में बहुजन आंदोलन के महानायक थे. उनके करिश्माई राजनीतिक विचारधारा से भारतीय राजनीति में एक नए युग का उदय हुआ.

कांशी राम का प्रारंभिक जीवन : मान्यवर कांशी राम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले में हुआ था. अन्य स्रोतों के आधार पर उनके जन्म स्थान पृथ्वीपुर बुंगा भी माना गया है. और कुछ के अनुसार उनका जन्म खवासपुर गांव में हुआ था.

कांशी राम का परिवार रविदासी समाज से था, और जो कि भारतीय समाज में अछूत मानी जाती है.जिस वक्त मान्यवर कांशीराम पैदा हुए उस वक्त पंजाब में क्या संपूर्ण भारत में जाति का और छुआछूत का कलंक पूर्ण रूप से व्याप्त था.

अपने स्थानीय शहर से प्रारंभिक शिक्षा हासिल करने के बाद साहब कांशी राम ने 1956 में विज्ञान विषय की डिग्री गवर्नमेंट कॉलेज रोपड़ से प्राप्त की.

कांशी राम की सामाजिक तथा राजनीतिक यात्रा

बौद्धिक संपदा के धनी मान्यवर कांशीराम सन 1958 में DRDO में सहायक वैज्ञानिक के पद पर नियुक्त हुए. वैज्ञानिक होते हुए भी जातिवाद और छुआछूत के कलंक ने साथ नहीं छोड़ा. उन्होंने बड़ी गहराई से जातिवाद का अध्य्यन किया तथा डॉ. अंबेडकर के विचारों को पढ़ा, तथा उनके संघर्ष से वे बहुत प्रभावित हुए.

1965 में डॉ. आंबेडकर के जन्मदिन का

सार्वजनिक अवकाश रदद् करने का उन्होंने पुरजोर मुखालफत की.

डॉ. अम्बेडकर के मिशन को आगे बढ़ाने तथा "pay back to society"के लिए उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया.तथा बहुजन आंदोलन के महानायक के रूप में शोषित समाज की आवाज को उठाने का बीड़ा उठा लिया. सबसे पहले उन्होंने 1971 में All India SC,ST,OBC and Minority Employees Association की स्थापना की तथा 1978 में इस संगठन का नाम बामसेफ ( BAMCEF ) कर दिया. आप रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) के भी सदस्य रहे.

कांग्रेस पार्टी से RPI का गठजोड़ होने के बाद साहेब कांशीराम ने रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया से त्यागपत्र दे दिया.

अटल बिहारी भी नहीं भाँप सके साहेब के इरादे

अंग्रेजी में एक मुहावरा है, ‘फ़र्स्ट अमंग दि इक्वल्स’ (First among the equals). इसी शीर्षक से ब्रिटिश लेखक जेफ़री आर्चर ने 80 के दशक में ब्रिटेन की सियासत पर एक काल्पनिक उपन्यास भी लिखा था. इसका मतलब है किसी विशेष समूह में शामिल व्यक्तियों में किसी एक का ओहदा, प्रतिष्ठा, हैसियत आदि सबसे ऊपर होना. इसे देश की केंद्रीय सरकार में प्रधानमंत्री के पद से समझा जा सकता है. मंत्रिमंडल में सभी मंत्री ही होते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति की हैसियत बाक़ी सभी मंत्रियों से ज़्यादा होती है. उसके मुताबिक़ ही मंत्रिमंडल तय होता है. वह इसका मुखिया है. दुनिया के लिए प्रधानमंत्री ही देश का चेहरा होता है. और यही वह पद है जिस पर आज़ादी के बाद दलित वर्ग का कोई व्यक्ति अभी तक नहीं पहुंचा है.

उसका कांशीराम के जीवन की एक घटना और उद्देश्य दोनों से गहरा संबंध है.

कहते हैं कि एक बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कांशीराम को राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन कांशीराम ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया. उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति नहीं बल्कि प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा देने वाले कांशीराम सत्ता को दलित की चौखट तक लाना चाहते थे. वे राष्ट्रपति बनकर चुपचाप अलग बैठने के लिए तैयार नहीं हुए. आज के दलित नेता पद के लिए अपने समाज का सौदा कर रहे हैं.

कांशीराम ने अपने संघर्ष से वंचितों को फ़र्श से अर्श तक पहुंचाया, लेकिन ख़ुद के लिए आरंभ से अंत तक ‘शून्य’ को प्रणाम करते रहे. वास्तव में बहुजन आंदोलन के महानायक ही नहीं एक सामाजिक क्रांति के महानायक भी थे.

 आखिर अटल बिहारी क्यों बनाना चाहते थे साहेब को राष्ट्रपति.

क़िस्सा पहले भी बताया जाता रहा है, लेकिन इस पर खास चर्चा नहीं हुई कि आख़िर अटल बिहारी वाजपेयी कांशीराम को राष्ट्रपति क्यों बनाना चाहते थे.

कहते हैं कि राजनीति में प्रतिद्वंद्वी को प्रसन्न करना उसे कमज़ोर करने का एक प्रयास होता है. ज़ाहिर है वाजपेयी इसमें कुशल होंगे ही. लेकिन जानकारों के मुताबिक वे कांशीराम को पूरी तरह समझने में थोड़ा चूक गए. वरना वे निश्चित ही उन्हें ऐसा प्रस्ताव नहीं देते.

वाजपेयी के प्रस्ताव पर कांशीराम की इसी अस्वीकृति में उनके जीवन का लक्ष्य भी देखा जा सकता है. यह लक्ष्य था सदियों से ग़ुलाम दलित समाज को सत्ता के सबसे ऊंचे ओहदे पर बिठाना. उसे ‘फ़र्स्ट अमंग दि इक्वल्स’ बनाना. मायावती के रूप में उन्होंने एक लिहाज से ऐसा कर भी दिखाया. कांशीराम पर आरोप लगे कि इसके लिए उन्होंने किसी से गठबंधन से वफ़ादारी नहीं निभाई. उन्होंने कांग्रेस, बीजेपी और समाजवादी पार्टी से समझौता किया और फिर ख़ुद ही तोड़ भी दिया. ऐसा शायद इसलिए क्योंकि कांशीराम ने इन सबसे केवल समझौता किया, गठबंधन उन्होंने अपने लक्ष्य से किया. इसके लिए कांशीराम के आलोचक उनकी आलोचना करते रहे हैं. लेकिन कांशीराम ने इन आरोपों का जवाब बहुत पहले एक इंटरव्यू में दे दिया था.

उन्होंने कहा था, ‘मैं उन्हें (राजनीतिक दलों) ख़ुश करने के लिए ये सब (राजनीतिक संघर्ष) नहीं कर रहा हूं. ऐसे अडिग थे बहुजन आंदोलन के महानायक साहेब कांशीराम.

ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी कांशीराम | Kanshi Ram, a staunch opponent of Brahminism

अपने राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष के दौरान कांशीराम ने, उनके मुताबिक़ ब्राह्मणवाद से प्रभावित या उससे जुड़ी हर चीज़ का बेहद तीखे शब्दों में विरोध किया, फिर चाहे वे महात्मा गांधी हों, राजनीतिक दल, मीडिया या फिर ख़ुद दलित समाज के वे लोग जिन्हें कांशीराम ‘चमचा’ कहते थे.

उनके मुताबिक ये ‘चमचे’ वे दलित नेता थे जो दलितों के ‘स्वतंत्रता संघर्ष’ में दलित संगठनों का साथ देने के बजाय पहले कांग्रेस और बाद में भाजपा जैसे बड़े राजनीतिक दलों में मौक़े तलाशते रहे.

मुलायम सिंह को दी थी पार्टी बनाने की सलाह 

1991 में इटावा से उपचुनाव जीतने के बाद उन्होंने स्पष्ट किया कि चुनावी राजनीति में नये समीकरण का प्रारम्भ हो गया है.

कांशी राम ने एक साक्षात्कार में कहा कि यदि मुलायम सिंह से वे हाथ मिला लें तो उत्तर प्रदेश से सभी दलों का सूपड़ा साफ हो जाएगा.

मुलायम सिंह को उन्होंने केवल इसीलिए चुना क्योंकि वही बहुजन समाज के मिशन का हिस्सा था. इसी इंटरव्यू को पढ़ने के बाद मुलायम सिंह यादव दिल्ली में कांशीराम से मिलने उनके निवास पर गए थे.

उस मुलाक़ात में कांशीराम ने नये समीकरण के लिए मुलायम सिंह को पहले अपनी पार्टी बनाने की सलाह दी और 1992 में मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी का गठन किया.

1993 में समाजवादी पार्टी ने 256 सीटों पर और बहुजन समाज पार्टी ने 164 सीटों पर विधानसभा के लिए चुनाव लड़ा और पहली बार उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज की सरकार बनाने में कामयाबी भी हासिल की।

दो सपने जो अधूरे रह गए!

पहला सपना --14 अप्रैल 1984 को मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. उनका नारा था जो बहुजन की बात करेगा ओ दिल्ली पर राज करेगा. उनके सामाजिक और राजनीतिक विचारों से शोषित समाज में जागृति आने लगी और दलित, पिछड़े तथा अल्पसंख्यक सत्ता प्राप्ति के लिए तैयार होने लगे.

कांशी राम का कहना था कि "हमारा एक मात्र लक्ष्य इस देश पर शासन करना है. इसके लिए वे निरन्तर प्रयास करते रहे दलितों में चेतना जगाने के लिए साहेब कांशीराम ने कई हजार किलोमीटर साइकिल से यात्रा की. इस मकसद में वे धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे. यूपी में सरकार भी बना डाली और धीरे-धीरे वे दिल्ली की ओर बढ़ ही रहे थे कि उनके स्वास्थ्य ने उनका साथ नहीं दिया. 2003 में वे सक्रिय राजनीति से दूर हो गए और मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. और उनके जीते जी देश का शासक बनने का सपना अधूरा रह गया.

दूसरा सपना-जिस तरह बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर निश्चय किया था कि वे हिन्दू धर्म में मरेंगे नहीं. अंततः 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया. ठीक उसी प्रकार साहेब कांशीराम ने भी 2002 में ये प्रण लिया था कि 14 अक्टूबर 2006 को डॉ. आंबेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के 50 वी वर्ष गांठ पर वे 5 करोड़ अनुयायियों के साथ धर्मांतरण कर बौद्ध धर्म अपना लेंगे. मगर ये सपना भी उनका सपना ही रह गया.

इस महान क्रांति दिवस को साकार रूप देने से 5 दिन पहले 9 अक्टूबर 2006 को साहेब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. देखना है कि उनके अधूरे सपनों को बहुजन समाज कभी पूरा कर भी पायेगा या नहीं.

कांसीराम का साहित्यिक योगदान : Kanshi Ram's literary contribution

मान्यवर कांशीराम ने निम्नलिखित पत्र-पत्रिकाएं शुरू की—-

अनटचेबल इंडिया (अंग्रेजी)

बामसेफ बुलेटिन (अंग्रेजी)

आप्रेस्ड इंडियन (अंग्रेजी)

बहुजन संगठनक (हिन्दी)

बहुजन नायक (मराठी एवं बंग्ला)

श्रमिक साहित्य

शोषित साहित्य

दलित आर्थिक उत्थान

इकोनोमिक अपसर्ज (अंग्रेजी)

बहुजन टाइम्स दैनिक

बहुजन एकता

आई. पी. ह्यूमन

स्वतंत्र स्तम्भकार

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