यूनेस्को की टीम सांस्कृतिक और प्राकृतिक महत्व के जिन संपत्तियों को ’विश्व विरासत’ का दर्जा देगी, वे विश्व विरासत का हिस्सा बन जायेंगी। उन्हें संजोने और उनके प्रति जागृति प्रयासों को अंजाम देने में यूनेस्को भी साझा करेगा। यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र संघ का शैक्षिक, वैज्ञानिक एवम् सांस्कृतिक संगठन (UNESCO, United Nations Educational, Scientific and Cultural Organization)। ऐतिहासिक महत्व के स्थानों व इमारतों की एक अंतर्राष्ट्रीय परिषद (An international conference of places and buildings of historic importance) ’इकोमोस’ द्वारा 18 अप्रैल, 1982 को ट्युनीशिया में आयोजित एक सम्मेलन में जब पहली बार ’विश्व विरासत दिवस’ का विचार पेश किया गया, तो मंतव्य इतना ही था।
यूनेस्को ने 1983 के अपने 22वें अधिवेशन में इसकी मंजूरी दी। आज तक वह 981 संपत्तियों को विश्व विरासत का दर्जा दे चुका है। जिसमें सबसे अधिक 49 संपत्तियों के साथ इटली सबसे आगे और 30 संपत्तियों के साथ भारत सातवें स्थान पर है। अपनी विरासत संपत्तियों का सबसे बेहतर रखरखाव व देखभाल करने का सेहरा जर्मनी के सिर है। संकटग्रस्त विरासतों की संख्या 44 है।
India's World Heritage Site,
30 भारतीय संपत्तियां हुईं ’विश्व विरासत’ 30 Indian properties to be 'World Heritage'
गौरतलब है कि आज भारत के छह प्राकृतिक और 24 सांस्कृतिक महत्व के स्थान/इमारतें विश्व विरासत की सूची में दर्ज हैं।
अजंता की गुफायें और आगरा फोर्ट ने इस सूची में सबसे पहले 1983 में अपनी जगह बनाई। सबसे ताजा शामिल स्थान राजस्थान के पहाङियों पर स्थित रणथम्भौर, अंबर, जैसलमेर और गगरोन किले हैं।
ताजमहल, लालकिला, जंतर-मंतर, कुतुब मीनार, हुमायुं का मकबरा, फतेहपुर सीकरी, अंजता-एलोरा की गुफायें, भीम बेतका की चट्टानी छत, खजुराहो के मंदिर, महाबलीपुरम्, कोणार्क का सूर्यमंदिर, चोल मंदिर, कर्नाटक का हम्पी, गोवा के चर्च, सांची
प्राकृतिक स्थानों के तौर पर कांजीपुरम वन्य उद्यान, नंदा देवी की खूबसूरत पहाड़ियों के बीच स्थित फूलों की घाटी और केवलादेव पार्क भी इस सूची में शामिल हैं।
पहाड़ी इलाकों में रेलवे को इंजीनियरिंग की नायाब मिसाल मानते हुए तमिलनाडु के नीलगिरि और हिमाचल के शिमला-कालका रेलवे को विश्व विरासत होने का गौरव प्राप्त है।
कभी विक्टोरिया टर्मिनल के रूप में मशहूर रहा मुंबई का रेलवे स्टेशन आज छत्रपति शिवाजी टर्मिनल के रूप में विश्व विरासत का हिस्सा है।
प्रतीक्षा सूची में 33
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, लेह-लद्दाख और सारनाथ के संबंधित बौद्ध स्थल, प. बंगाल का बिशुनपुर, पाटन का रानी का वाव, हैदराबाद का गोलकुण्डा, मुंबई का चर्चगेट, सासाराम स्थित शाह सूरी का मकबरा, कांगङ़ा रेलवे और रेशम उत्पादन वाले प्रमुख भारतीय क्षेत्रों समेत 33 भारतीय संपत्तियां अभी प्रतीक्षा सूची में हैं। यदि पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित बलास्तिान वाले हिस्से में उपस्थित बाल्तित के किले को भी इसमें शामिल कर लें तो प्रतीक्षा सूची की यह संख्या 34 हो जाती है।
उल्लेखनीय है कि यूनेस्को ने विरासत शहरों की एक अलग श्रेणी और संगठन बनाया है। कनाडा इसका मुख्यालय है। इस संगठन की सदस्यता प्राप्त 233 शहरों में फिलहाल भारत, पाकिस्तान और बांग्ला देश का कोई शहर शामिल नहीं है। आप यह जानकर संतुष्ट अवश्य हो सकते हैं कि एक विरासत शहर के रूप में जहां हङप्पा सभ्यता के सबसे पुराने निशानों में एक - धौलवीरा और आजादी का सूरज उगने से पहले के प्रमुख निशान के रूप दिल्ली को भी ’विश्व विरासत शहर’ का दर्जा देने के बारे में सोचा जा रहा है।
विरासत के कुछ निशान और
इन तमाम आंकड़ों से इतर विरासत का वैश्विक पक्ष चाहे जो हो, भारतीय पक्ष यह है कि विरासत सिर्फ कुछ परिसंपत्तियां नहीं होती। बाप-दादाओं के विचार, गुण, हुनर, भाषा, बोली और नैतिकता भी विरासत की श्रेणी में आते हैं। संस्कृति को हम सिर्फ कुछ इमारतों या स्थानों तक सीमित करने की भूल नहीं कर सकते। भारतीय सांस्कृतिक विरासत का मतलब ’अतिथि देवो भवः’ और ’वसुधैव कुटुम्बकम’ से लेकर ’प्रकृति माता, गुरु पिता’ तक है। गो, गंगा, गीता और गायत्री आज भी हिंदू संस्कृति के प्रमुख निशान माने जाते हैं। गुरु ग्रंथ साहिब, बाइबिल और कुरान को विरासत के चिन्ह मानकर संजोकर रखने का मतलब किसी पुस्तक को संजोकर रखना नहीं है। इसका मतलब उनमें निहित विचारों को शुद्ध मन व रूप में अगली पीढ़ी को सौंपना है। क्या हम ऐसा कर रहे हैं ?
प्रश्न कीजिए कि क्या हमारे हुनरमंद अपना हुनर अगली पीढ़ी को सौंपने को संकल्पित दिखाई देते हैं ? योग, ध्यान, अध्यात्म, वेद, आयुर्वेद और परंपरागत हुनर की बेशकीमती विरासत को आगे बढ़ाने में यूनेस्को की रुचि हो न हो, क्या भारत सरकार की कोई रुचि है ?
क्या गंगा, गो और भारतीय होने के हमारे गर्व की रक्षा के लिए आज कोई सरकार, समाज या हम खुद संकल्पित दिखाई देते हैं ? नैतिकता की विरासत का हश्र हम हर रोज अपने घरों, सङ़कों और चमकते स्क्रीन पर देखते ही हैं। अनैतिक हो जाने के लिए हम नई पीढ़ी पर को दोष जरूर देते हैं; किंतु क्या यह सच नहीं कि हम अपने बच्चों पर हमारी गंवई बोली तो दूर, क्षेत्रीय-राष्ट्रीय भाषा व संस्कार की चमक तक का असर डालने में नाकामयाब साबित हुए हैं। सोचिए! गर हम विरासत के मूल्यवान मूल्यों को ही नहीं संजो रहे तो फिर कुछ इमारतें और स्थानों को संजोकर क्या गौरव हासिल होगा ?
विश्व विरासत दिवस पर सोचने के लिए यह एक गंभीर प्रश्न है।
आइये! इन्हें संजोयें।
सावधान होने की बात है कि जो राष्ट्र अपनी विरासत के निशानों को संभाल कर नहीं रख पाता, उसकी अस्मिता और पहचान एक दिन नष्ट हो जाती है। क्या भारत ऐसा चाहेगा ? यदि नहीं तो हमें याद रखना होगा कि गुरुकुलों, मेलों, लोककलाओं, लोककथाओं और संस्कारशालाओं के माध्यम से भारत सदियों तक अपनी सांस्कृतिक विरासत के इन निशानों को संजोये रख सका। माता-पिता और ग्राम गुरु के चरण स्पर्श और नानी-दादी की गोदियों और लोरियों में इसे संजोकर रखने की शक्ति थी। नासिक नगर निगम ने बोर्ड लगाकर चेतावनी दे दी है - ’’गोदावरी का पानी उपयोग योग्य नहीं है।’’ अब गंगा की दुर्लभ विरासत भी कहीं हमसे छूट न जाये। भारतीय अस्मिता व विरासत के इन निशानों को संजोना ही होगा। आइये, संजोयें।
अरुण तिवारी
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