नई दिल्ली, 08 जनवरी : भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि दिल्ली और इसके आसपास के क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हैं, और यहाँ 7.9 की तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है। इतनी अधिक तीव्रता के भूकंप से बड़े पैमाने पर जान-माल के नुकसान की आशंका रहती है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (Ministry of Earth Sciences) के अंतर्गत कार्यरत राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (National Centre for Seismology एनसीएस) द्वारा दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में भूकंप के खतरे का सटीक आकलन करने के लिए भू-भौतिकीय सर्वेक्षण किया जा रहा है। एनसीएस के वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पहल भूकंप के कारण होने वाले नुकसान को कम करने से संबंधित रणनीतियों के विकास में मददगार हो सकती है।
एनसीएस यह अध्ययन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), कानपुर के सहयोग से कर रहा है।
हाल के वर्षों में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में भूकंप की कई घटनाएं दर्ज की गई हैं। भूकंप की बार-बार होने वाली घटनाओं को देखते हुए भूकंप के स्रोतों को चिह्नित करने की आवश्यकता महसूस की जा रही थी।
एनसीएस की इस पहल के अंतर्गत भूकंपीय खतरों के सटीक आकलन के लिए उपग्रह से प्राप्त तस्वीरों और भू-गर्भ क्षेत्र शोध का विश्लेषण और व्याख्या (Analysis and
इसके अलावा, हाइड्रोकार्बन (तेल और गैस) अन्वेषण, भू-तापीय अन्वेषण, कार्बन अनुक्रम, खनन अन्वेषण तथा हाइड्रोकार्बन और भूजल की निगरानी में भी इस तरह प्राप्त जानकारियों का उपयोग होता है।
भूकंप के आसन्न खतरे के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों को जोन-5 में रखा गया है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और उसके आपपास के इलाकों को जोन-4 की श्रेणी में रखे गए हैं। भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि स्थानीय भूकंपीय नेटवर्क को सुदृढ़ करना और भ्रंश (फाल्ट) जैसी उप-सतह की विशेषताओं की रूपरेखा तैयार करना जरूरी है, जो भूकंप का कारण बन सकते हैं। भ्रंश (फाल्ट), धरती के अन्दर की चट्टान में टूट-फूट या दरार को कहा जाता है।
दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में ज्ञात भ्रंश (फाल्ट) को कवर करने के लिए 11 अस्थायी अतिरिक्त स्टेशनों की तैनाती के साथ भूकंप नेटवर्क को मजबूत बनाया जा रहा है। इससे भूकंप के कारणों की बेहतर समझ के लिए भूकंप पैदा होने व बाद के झटकों का सटीक स्थान-निर्धारण किया जा सकेगा। इन स्टेशनों से डेटा लगभग वास्तविक समय पर प्राप्त किया जा सकता है। इस डेटा का उपयोग संबंधित क्षेत्र के सूक्ष्म और छोटे भूकंपों का पता लगाने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस विस्तारित नेटवर्क से अब भूकंप-केंद्र के निर्धारण में दो किलोमीटर तक की सटीकता आयी है।
दिल्ली क्षेत्र में भू-भौतिकीय सर्वेक्षण - मैग्नेटोटेल्यूरिक (विद्युत चुम्बकीय-भू-सतह) भी किया जा रहा है।
मैग्नेटोटेल्यूरिक (MT) एक भू-भौतिकीय पद्धति है, जिसमें भूगर्भीय संरचनाओं एवं गतिविधियों के अध्ययन के लिये पृथ्वी के चुंबकीय एवं विद्युत क्षेत्रों की भिन्नता का उपयोग किया जाता है। इस विधि के द्वारा भूकंप उत्प्रेरण की संभावना को बढ़ाने वाले तत्वों, जैसे मैग्मा आदि की आवृत्ति को मापा जाता है। इस विधि द्वारा 300 से 10,000 मीटर तक की गहराई में उच्च आवृत्तियों को रिकॉर्ड किया जा सकता है। इसके लिये प्रायः तीन प्रमुख भूकंपीय स्रोतों, महेंद्रगढ़-देहरादून फॉल्ट (MDF), सोहना फॉल्ट (SF) और मथुरा फॉल्ट (MF) से मापों को लिया जाता है। इस सर्वेक्षण में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान, देहरादून भी एक भागीदार है।
पिछले साल अप्रैल से अगस्त महीनों के दौरान राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी)-दिल्ली में चार छोटे-छोटे भूकंप की घटनाएं दर्ज की गईं। इनमें से 3.5 तीव्रता का पहला भूकंप लॉकडाउन के दौरान एनसीटी दिल्ली की पूर्वोत्तर सीमा में 12 अप्रैल, 2020 को आया था। इन भूकंपों के बाद रिक्टर पैमाने पर 3.0 से कम तीव्रता की लगभग एक दर्जन सूक्ष्म घटनाओं का अनुभव किया गया, जिनमें बाद में आने वाले कुछ झटके (आफ्टरशॉक्स) भी शामिल हैं।
भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भूकंप (Earthquake) की इन घटनाओं के केंद्र तीन अलग-अलग क्षेत्रों में आते हैं। इन क्षेत्रों में, उत्तर-पूर्वी दिल्ली की सीमा, रोहतक (हरियाणा) के दक्षिण-पूर्व में 15 किलोमीटर तक का क्षेत्र और फरीदाबाद (हरियाणा) से17 किलोमीटर पूर्व तक का क्षेत्र शामिल है। भूकंप की इन घटनाओं का स्थान निर्धारण राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र (एनसीएस) द्वारा संचालित राष्ट्रीय भूकंपीय नेटवर्क (एनएसएन) द्वारा किया गया है।
भू-भौतिकीय और भूगर्भीय दोनों जमीनी सर्वेक्षणों के 31 मार्च 2021 तक पूरा होने की उम्मीद है। इससे पहले पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक महत्वकांक्षी परियोजना के अंतर्गत भूकंप के खतरे से ग्रस्त जोन-4 और जोन-5 में शामिल क्षेत्रों की माइक्रो-मैपिंग भी की जा रही है, जो भूकंप-रोधी शहरों के विकास और अत्यधिक आबादी वाले क्षेत्रों में इमारतों की सुरक्षा एवं जान-माल के नुकसान को कम करने में उपयोगी हो सकती है।
(इंडिया साइंस वायर)