कोरोना वायरस के कारण मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा भी तेजी से देश में उभरकर आया है. लॉकडाउन ने लोगों की आदतें तो जरूर बदल दी हैं लेकिन एक बड़ा तबका तनाव के बीच जिंदगी जी रहा है. यह तनाव बीमारी और भविष्य की चिंता को लेकर है. कोरोना से बचने के लिए लोग घरों में तो हैं लेकिन उन्हें कहीं ना कहीं इस बीमारी की चिंता लगी रहती है और वह दिमाग के किसी कोने में मौजूद रहती है, जिसकी वजह से इंसान की सोच पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लॉकडाउन ही नहीं उसके बाद की भी चिंता से लोग ग्रसित हैं, क्योंकि कई लोगों के सामने रोजगार, नौकरी और वित्तीय संकट पहले ही पैदा हो चुके हैं।
Depression is increasing manifold due to imprisonment in homes. In such a situation, keeping yourself normal is certainly not less than a big challenge.
सुशान्त का जाना ज्यादा शॉकिंग इसलिए भी लग रहा है क्योंकि वह हमारी ही उम्र के थे। लेकिन हमारी उम्र के होने के बावजूद कामयाबी के शीर्ष पर थे। जहाँ हमारे जीवन में कैरियर और जीवन का संघर्ष लगातार जारी है, उनके जीवन का संघर्ष अलग तरह का रहा होगा शायद। लेकिन, क्या इस दौर में जबकि दुनिया एक भयंकर महामारी की चपेट में है। देश के हालात भी बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। उस पर भी कुछ स्थानों के हालात बद से बदतर होते नजर आ रहे हैं। भविष्य अथाह आर्थिक अनिश्चितता की ओर जाता दिखाई पड़ रहा है। जीवन में किसी के स्थिरता नजर नहीं आ रही। खबरें सकारात्मकता से कोसों दूर हैं। घरों में कैद हो डिप्रेशन कई गुणा बढ़ जा रहा है। ऐसे में स्वयं
मैं स्वयं भी जीवन के बड़े उतार-चढ़ावों से जूझ रही हूँ और जानती हूँ कि मेरे जैसे अधिकांश युवाओं की कमोबेश ऐसी ही हालत है। मैं भी डिप्रैशन का दंश झेल चुकी हूँ। बन्दे को अपने जीने-खाने तक कि खबर नहीं होती। लेकिन, अपनी ही कोशिशों के दम पर उससे बाहर भी आई हूँ बिना दवाइयों के, क्योंकि कारण और निवारण जिन्हें मालूम है उनके लिए थोड़ा आसान होता है बाहर निकलना। मगर अधिकांश समझ ही नहीं पाते इसके लक्षण और कारण, तब इलाज में भी देरी ही हो जाती है। फिर समाज का रवैय्या भी ऐसा होता कि आपको बीमार नहीं, बल्कि पागल घोषित कर दिया जाएगा। तब जरूरी हो जाता है कि स्वयं को किसी भी प्रकार की नकारात्मकता से दूर रखा जाए और परिजनों से भी अपील है कि अपने अपनों का खयाल रखें।
Loneliness is a big tragedy in itself
अकेलापन अपने आप में एक बड़ी त्रासदी है। इसलिए खुद को उस अकेलेपन से बचाने का प्रयास करें। जीवन में जो भी है जितना भी है उतने में ही संतुष्ट रहना सीखना होगा। अपनी खुशी अपने भीतर भी तलाशनी होगी किसी के साथ या फिर किसी के बगैर भी। आत्महत्या जैसी घटना को अंजाम देने के लिए कुछ पल ही काफी होते हैं किसी भी व्यक्ति के लिए इसलिए हम सबको ऐसे पलों के साथ डील करना सीखना होगा। आपके किसी मित्र, किसी परिजन, किसी जानने वाले की कॉल आये तो नजरअंदाज मत कीजिये। सम्भव है यह उस व्यक्ति के जीवन के वही कठिन पल हों और आपके बात कर लेने से उसकी जिंदगी बच सके।
दरअसल लॉकडाउन लगने और उसके बढ़ने से दो तरह के मुद्दे सामने आ रहे हैं। पहला लोग लगातार घर पर रह रहे हैं और ऐसे में अंतर्वैयक्तिक संबंध जैसे कि घरेलू हिंसा और बच्चों को संभालने को लेकर विवाद बढ़ा है, क्योंकि सभी लोग अपने दैनिक रूटीन से कट चुके हैं। दूसरी समस्या यह है कि लोग लॉकडाउन खत्म होने के बाद की स्थिति को लेकर चिंतित हैं, जैसे कि अपनी आर्थिक स्थिति और आजीविका। कई अन्य बीमारियों की तरह इस बार भी सबसे निचले स्तर के लोग प्रभावित हैं।
मौजूदा हालात और भविष्य की चिंता ना केवल गरीबों को सता रही है बल्कि उन्हें भी परेशान कर रही है जो समृद्ध परिवार से आते हैं। दूसरे शहरों में काम करने वाले प्रवासी अपने शहर और गांव जाने को लेकर चिंतित हैं। उन्हें आने वाले दिनों में रोजगार नहीं मिलने का भी डर है। जो लोग अपने गांव पहुंच भी जा रहे हैं उन्हें भी गांव में अपनापन नहीं मिल रहा है। गांव वाले उन्हें शक की नजर से देख रहे हैं। गांवों में लोगों पर शक किया जा रहा है कि कहीं वे संक्रमित तो नहीं हैं।
Brain awe came with Corona
कोरोना के साथ आया दिमागी खौफ भारत जैसे बड़े देश में कमोबेश सबकी स्थिति एक समान बनाता है. भले ही अधिकांश लोग मानसिक तौर पर पीड़ित नहीं हो लेकिन एक बड़ा तबका है जिसे भविष्य की चिंता है। वे अपने बच्चे के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं।
हालांकि तनाव तो सभी को है। किसी को लॉकडाउन के खत्म होने का तनाव है तो किसी को वित्तीय स्थिति ठीक करने का तनाव, घर पर नहीं रहने वालों को जल्द आजाद घूमने का तनाव है। इसे सामूहिक तनाव भी कह सकते हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि लोगों को लॉकडाउन जैसे हालात से निपटने के लिए समय का सही इस्तेमाल करना चाहिए। उनके मुताबिक जिन विषयों में रूचि हैं उन पर किताबें पढ़नी चाहिए, घर में पेड़ और पौधों से भी सकारात्मकता का एहसास हो सकता है। वे कहते हैं साथ ही सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप पर आने वाली नकारात्मक चीजों को नजरअंदाज कर सकारात्मक चीजों को ही अपनाना चाहिए।
मनोचिकित्सकों का कहना है कि लोग शारीरिक और मानसिक रूप से खुद को स्वस्थ रखें ताकि समय आने पर वे चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहें।
-प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,