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भारतीय अभिजात्य वर्ग की सहपराधिता भारत में लंबे समय तक अंग्रेजी शासन के रहने की व्याख्या करती है

सत्ता में बैठे हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी यह दावा कर रहे हैं कि वे भारत के लोगों के प्रवक्ता हैं और जिन चीजों में उनका यकीन है, उन्हें ही हर किसी को अपनाना होगा. कांग्रेसी राष्ट्रवादी भी जब सत्ता में रहे तो लंबे समय तक इसी तरह की कोशिशें कीं. उनकी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों ने बच्चों को यह यकीन दिलाया कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने लोगों को एकजुट करके देश को अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराया. लेकिन क्या उस राष्ट्रीय आंदोलन ने वाकई अंग्रेजों को भारत से बाहर कर दिया?

अगस्त, 1942 में अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़ने की कोशिश की गई थी. 8 अगस्त, 1942 को गांधी और कांग्रेस ने अंग्रेजों भारत छोड़ो अभियान की शुरुआत की थी. उसके 75 साल पूरा होने पर आम लोगों के मानस की अनदेखी करते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने पन्नों पर 9 अगस्त, 2017 को हिंदुत्ववादी विचारक राकेश सिन्हा को जगह दिया. उन्होंने दावा किया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गांधीवादी आंदोलन में भागीदारी के बावजूद सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का संघ का विचार कुंद नहीं पड़ा था. वे हमेशा की तरह यह जिक्र करना नहीं भूले कि आजादी के आंदोलन में कम्युनिस्टों ने गद्दारी की. 

कोई पूछ सकता है कि सिन्हा जैसे व्यक्ति के कुछ लिखने पर क्यों परेशान होना चाहिए?

हमें लगता है कि ऐसा करना चाहिए क्योंकि बड़े कॉरपोरेट घरानों के सहयोग से चल रही भारतीय जनता पार्टी की इस सरकार के कार्यकाल में ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि किसी की सोच का सत्ता के प्रभाव के आगे कोई मतलब ही नहीं रहे. ऐसे में

सत्ता पक्ष के पूर्वाग्रहों से अवगत होना सच तक पहुंचने के लिए बेहद जरूरी है.

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1942 के आसपास की घटनाओं का विस्तार से जिक्र किए बगैर द्वितीय विश्व युद्ध, कई देशों में फासिस्ट सरकारें और भारत पर जापान के हमले का खतरा के परिप्रेक्ष्य को समझें. 9 अगस्त, 1942 को अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें अगले तीन साल तक जेल में रखा. तीन हफ्ते में शहरों में चल रही क्रांति को कुचल दिया. इसके बाद आंदोलन ने गांवों में जोर पकड़ा. रेलवे लाइन उखाड़े गए, टेलीग्राफ लाइन उखाड़े गए, पुलिस थानों पर हमले हुए, सरकारी भवनों को नुकसान पहुंचाया गया आदि. मुख्य तौर पर ये घटनाएं संयुक्त प्रांत और बिहार में हुईं. सरकार ने सेना तैनात कर दिया. कुछ जगहों जैसे बंगाल के मिदनापुर, बांबे प्रांत के सतारा और ओडिशा के तालचर में विद्रोहियों ने समांतर सरकारें बना लीं. यह सब 1944 तक चलता रहा.

DR SYAMA PRASAD MOOKERJEE ORGANIZED RECRUITMENT CAMPS FOR THE BRITISH ARMY

अंग्रेज सरकार के प्रति लोगों का गुस्सा और नफरत 1942 में अपने चरम पर था. ऐसे में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि यह आंदोलन शुरुआत से ही हिंसक था. लोग करेंगे या मरेंगे के नारे लगा रहे थे. कांग्रेस नेतृत्व इस आंदोलन से बाहर हो गया था. क्योंकि पार्टी के प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी हो गई थी. इस वजह से न तो वे हिंसक आंदोलन की निंदा कर सकते थे, न इससे पल्ला झाड़ सकते थे और न ही इसे रोक सकते थे. जब मई, 1944 में गांधी को जेल से छोड़ा गया तब उन्होंने भूमिगत आंदोलन की आलोचना करनी शुरू की और विद्रोहियों से आत्समर्पण करने को कहा.

Dr. Syama Prasad Mookerjee never-never participated in the anti-colonial freedom struggle.

1921-22 के असहयोग आंदोलन और 1930-34 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में नेतृत्व अभिजात्य वर्ग के हाथों में था. जब चौरी-चौरा में हिंसा हुई तो असहयोग आंदोलन वापस ले लिया गया. शांतिपूर्ण विद्रोह तो सविनय अवज्ञा आंदोलन की पूर्व शर्त था. इसमें अंग्रेजों के सहयोगी जमींदारों के खिलाफ लगान नहीं देने की अनुमति नहीं थी.

इतिहास की राष्ट्रवादी किताबों में लिखे होने के बावजूद अंग्रेजों को भारत से खदेड़ा नहीं गया था. बल्कि उन्हें आने वाले दिनों के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे. हिंसक भारत छोड़ो आंदोलन, सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज द्वारा नाजी जर्मनी और जापान से अंग्रेजों के खिलाफ मदद लेने की आशंका, भारतीय शहरों में बड़े पैमाने पर हो रहे हड़तालों, नौ सेना की आंतरिक बगावत, अंग्रेजों की सेना में मौजूद भारतीयों का बढ़ता असंतोष और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा चलाए जा रहे तेभागा और तेलंगाना किसान आंदोलन ने अंग्रेजों को पर्याप्त संकेत दे दिए थे.

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अभी सत्ता में बैठे हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादी कहां थे? जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम भाजपा में बड़े सम्मान से लिया जाता है. जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था तो वे उस वक्त बंगाल सरकार में वित्त मंत्री थे. गवर्नर जॉन हर्बट ने सरकार को आदेश दिया कि या तो वह आंदोलन को कुचले या इस्तीफा दे. इस्तीफा देने के बजाए मुखर्जी यह योजना तैयार करने में लगे थे कि बंगाल में इस आंदोलन का सामना कैसे किया जाए. जब मिदनापुर में आंदोलन को बर्बरता के साथ कुचला गया तो उस वक्त भी वे मंत्री बने रहे. विनायक दामोदर सावरकर को भाजपा वीर सावरकर कहती है. लेकिन जेल से छूटने के लिए उन्होंने अपमानजनक शर्तें मानीं. बॉम्बे की कांग्रेस सरकार द्वारा खुद पर लगे शर्तों को हटवाने के बाद वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने. सितंबर, 1942 में सावरकर ने महासभा की ओर से निगमों, विधायिका और सरकारी सेवाओं में कार्यरत अपने सदस्यों को निर्देश जारी करके कहा कि वे अपने रोज के काम में लगे रहें. उन्होंने ऐसा तब किया जब आंदोलनकारी बिल्कुल इसका उलटा करने को कह रहे थे.

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उस दौर में संघ का काम राकेश सिन्हा के दावे के बिल्कुल उलट था. बॉम्बे प्रांत के गृह विभाग ने लिखा, ‘संघ ने खुद को कानून के दायरे में रखा है और अगस्त, 1942 की बाद की हिंसा में शामिल नहीं हुआ है.’ उस वक्त हिंदू महासभा का प्रभाव संघ से कहीं ज्यादा था. सावरकर और सर संघचालक एमएस गोलवलकर के खिलाफ अहं का टकराव भी चल रहा था. इस वजह से दोनों में समन्वय की कोई संभावना नहीं थी. इसका जिक्र एजी नूरानी ने अपनी पुस्तक ‘दि संघ परिवार ऐंड दि ब्रिटिश’ के तीसरे अध्याय में किया है.

अब कम्युनिस्ट पार्टी की ‘गद्दारी’ को समझते हैं. भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करना भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी भूल थी. लेकिन यह फैसला उस वक्त की वैश्विक हालतों और खास तौर पर फासीवादी ताकतों के विरोध में लिया गया था. उस वक्त यह लग रहा था कि फासीवादी ताकतें जीत जाएंगी और नाजियों का नरसंहार चलता रहेगा.

सीपीआई को आंदोलन के लिए वक्त के चयन से भी परेशानी थी. उस वक्त कम्युनिस्टों के निर्णय के बारे में यही कहा जा सकता है कि बड़ी बुराई से लड़ने के लिए उन्होंने छोटी बुराई को चुना. इसे आंतरिक संघर्ष तो कहा जा सकता है लेकिन गद्दारी नहीं. हमें यह याद रखना चाहिए कि सीपीआई पर खूब अत्याचार हुए और इससे अधिक समय तक प्रतिबंध किसी और पार्टी को नहीं झेलना पड़ा.

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सच्चाई तो यह है कि भारत में अंग्रेजों का शासन लंबे समय तक अभिजात्य वर्ग के सहपराधिता की वजह से चला. इसमें भारतीय नेताओं द्वारा अंग्रेजों का समर्थन, उनका सहयोगी बनकर सरकार में रहना, बड़े कारोबारियों का उनके साथ साठ-गांठ, सरकारी कर्मचारियों की भूमिका और राजघराने सब जिम्मेदार हैं. लेकिन राष्ट्रवादी इतिहास में सिर्फ अंग्रेजों के दमन का जिक्र है, भारतीय अभिजात्य वर्ग की संलिप्तता का नहीं. लोकसभा में अपने पहले भाषण में 11 जून, 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘1,200 सालों की गुलामी की मानसिकता हिंदुस्तानियों को परेशान करती रही है.’ साम्राज्यवादी इतिहास में मुस्लिम सभ्यता के दौर को इसी तरह पेश किया जाता है. इसके पहले के 2,000 साल की हिंदु सभ्यता को ‘स्वर्ण युग’ के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन संसद में इसका कोई प्रतिवाद नहीं होता. कांग्रेस के अस्त होते धर्मनिरपेक्षराष्ट्रवाद और तेजी से बढ़ रहे हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के मुकाबले में दूसरा पक्ष लगातार मजबूत होता दिख रहा है.

Quit India Movement : HINDUTVA BRIGADE HAD GANGED UP WITH THE BRITISH RULERS & THE MUSLIM LEAGUE

(Economic and Political Weekly, वर्षः 52, अंकः 31, 5 अगस्त, 2017)

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