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आरएसएस के द्वितीय प्रमुख एमएस गोलवलकर (Second head of RSS, MS Golwalkar) अपनी पुस्तक ‘‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड‘‘ में लिखते हैं, ‘‘हिंदुस्तान के सभी गैर-हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिंदू धर्म का आदर करना होगा और हिंदू जाति अथवा संस्कृति, अर्थात हिन्दू राष्ट्र, के गौरव गान के अलावा कोई विचार अपने मन में नहीं रखना होगा उन्हें अपने अलग अस्तित्व को त्याग कर हिन्दू नस्ल में समाहित होना होगा; या फिर, वे इस देश में रह सकते हैं परन्तु हिन्दू राष्ट्र के अधीन, वे किसी चीज पर दावा नहीं कर सकेंगे; उन्हें कोई विशेषाधिकार नहीं मिलेगा, किसी विशेष सुविधा का तो सवाल ही नहीं है - उन्हें नागरिक अधिकार भी नहीं मिलेंगे.”  यही विचार, नागरिकता संशोधन अधिनियम - Citizenship Amendment Act (सीएए), 2019 के मूल में है. इस अधिनियम में यह प्रावधान है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई प्रवासियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी. इस अधिनियम का पूरे देश में व्यापक विरोध हो रहा है.

जैसा कि गोलवलकर के उद्धरण से साफ है, भारत में ‘हिन्दू नस्ल’ को उच्चतम दर्जा प्राप्त है और जो लोग इस नस्ल के नहीं हैं, उन्हें अपने नागरिक अधिकारों से भी वंचित किया जा सकता है. सीएए, गोलवलकर की सोच पर आधारित तो है ही वह भाजपा की वोट बैंक राजनीति (BJP's vote bank politics) का हिस्सा और असम में एनआरसी (NRC in Assam) की कवायद से पार्टी को कोई लाभ न होने की प्रतिक्रिया भी है.

इस अधिनियम के उद्देश्य और उसके निहितार्थों को समझने के लिए यह जरूरी है कि सबसे पहले हम घुसपैठियों/प्रवासियों/ शरणार्थियों के मुद्दे पर भाजपा के बदलते रुख पर नजर डालें. सीएए का मुख्य और घोषित उद्देश्य यह है कि इन तीन देशों के ‘प्रताड़ित’ हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, पारसी, जैन और ईसाई प्रवासियों को भारत की नागरिकता

दी जाए. इस मामले में, पूर्व में भाजपा के विचार एकदम अलग थे. भाजपा का हमेशा से यह नजरिया रहा है कि प्रवासी (चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान) देश, और विशेषकर असम, के लोगों की पहचान और अर्थव्यवस्था के लिए खतरा हैं. असम और बांग्लादेश के बीच की सीमा को पार करना आसान रहा है और इस कारण, बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में हिन्दू और मुसलमान, दोनों बांग्लादेश से भारत आते रहे हैं. यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि कितने और कौनसे हिन्दू, प्रताड़ना के कारण यहाँ आये हैं. और यह पता लगाने का भाजपा ने कभी कोई प्रयास भी नहीं किया.

सन 2008 में यूपीए शासनकाल में भाजपा के तत्कालीन शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बांग्लादेश से भारत में आने वाले प्रवासियों को रोकने का कोई प्रयास न करने के लिए तत्कालीन सरकार को जमकर लताड़ा था. उनका कहना था कि इससे असम की जनसांख्यिकीय संरचना प्रभावित हो रही है. वे इतने चिंतित थे कि उन्होंने कड़े शब्दों में चेतावनी देते हुए कहा था कि

‘‘आज पूरा असम अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षरत है. असम के अस्तित्व को खतरा पड़ोसी बांग्लादेश से आ रही प्रवासियों की बाढ़ से है. अगर इस बाढ़ को नहीं थामा गया तो विदेशियों के इस सैलाब में असम विलुप्त हो जाएगा”.

आडवाणी ने यह दावा भी किया था कि भारत में 35 लाख अवैध बांग्लादेशी प्रवासी हैं और उनके कारण देश में आतंकवाद की समस्या गंभीर होती जा रही है.

आडवाणी ने हिन्दू और मुसलमान प्रवासियों के बीच कोई विभेद नहीं किया था और ना ही बांग्लादेश में हिन्दुओं को प्रताड़ित किए जाने की बात कही थी. उन्हीं की पार्टी के एक अन्य शीर्ष नेता मुरली मनोहर जोशी का कहना था कि भारत में 1.70 करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए रह रहे हैं.

इन दोनों बयानों से दो बातें स्पष्ट हैं. पहली, भाजपा नेताओं को यह कतई अंदाजा नहीं था कि देश में कितने बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और वे असम में उन्माद पैदा कर लोकप्रियता हासिल करने के उद्देश्य से मनमानी संख्या बता रहे थे. दूसरी, वे यह कहना चाहते थे कि सभी अवैध प्रवासी मुसलमान हैं. वे मुसलमान प्रवासियों को ‘‘घुसपैठिया” और हिन्दू प्रवासियों को ‘‘शरणार्थी” कहते थे. ऐसा कोई विश्वसनीय अध्ययन नहीं है जिससे यह साबित होता हो कि बांग्लादेश से आने वाले हिन्दू प्रवासी, अपने मुसलमान साथियों के विपरीत, बेहतर आजीविका की तलाश में नहीं बल्कि प्रताड़ना के कारण भारत आ रहे थे.

प्रवासियों के प्रति अपना रोष जाहिर करते हुए वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह ने कहा,

‘‘अवैध प्रवासी दीमक की तरह हैं. वे उस अनाज को चट कर रहे हैं जो हमारे गरीबों को मिलना चाहिए. वे हमारे देश में नौकरियों पर कब्जा कर रहे हैं.”

केन्द्र सरकार ने क्रमशः 2015 और 2016 में पासपोर्ट अधिनियम, 1920 और विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946 में संशोधन कर प्रवासियों को इन अधिनियमों का उल्लंघन करने के लिए अभियोजन से मुक्त कर दिया था. विदेशी नागरिक अधिनियम में यह प्रावधान है कि ऐसे प्रवासी जिनके पास अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है उनकी यह जिम्मेदारी है कि वे यह साबित करें कि वे भारत के नागरिक हैं. इन संशोधनों के जरिए इन प्रवासियों को भारत में रहने के लिए लंबी अवधि का वीजा प्राप्त करने का पात्र भी घोषित कर दिया गया था. इन संशोधनों से ‘प्रताड़ित’ प्रवासियों की समस्या हल हो गई थी. उन्हें कोई सजा नहीं मिलती और मतदान और किसी संवैधानिक पद पर नियुक्ति के अधिकार को छोड़कर, अन्य सभी अधिकार प्राप्त हो जाते. इस पृष्ठभूमि में सीएए का कोई औचित्य नजर नहीं आता जब, तक कि वह शासकदल की वोट बैंक राजनीति का हिस्सा न हो.

सन् 2014 के अपने चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने कहा था कि उत्तरपूर्व में घुसपैठ और अवैध प्रवासियों की समस्या से निपटना उसकी प्राथमिकता होगी. घोषणापत्र में कहा गया था कि इसके लिए भारत-बांग्लादेश सीमा में सुरक्षा व्यवस्थाओें का पुनरीक्षण कर उन्हें बेहतर बनाया जाएगा. यह भी कहा गया था कि अवैध प्रवास को रोकने के लिए दंडात्मक उपाय किए जाएंगे. इसके साथ ही पार्टी ने यह भी कहा था कि ‘‘भारत, प्रताड़ित हिन्दुओं का स्वाभाविक आश्रय स्थल होगा और अगर वे यहां शरण लेना चाहेंगे तो उनका स्वागत किया जाएगा”.

जुलाई 2018 में असम में हुए एनआरसी की अंतिम मसविदा सूची प्रकाशित की गई. इसमें असम के 40 लाख रहवासियों के नाम नहीं थे परंतु एनआरसी का इस्तेमाल मुसलमानों को प्रताड़ित करने के भाजपा के मंसूबों पर इसलिए पानी फिर गया क्योंकि इस सूची से बड़ी संख्या में हिन्दुओं के नाम भी गायब थे. मजबूर होकर भाजपा को उन उपायों पर मंथन शुरू करना पड़ा जिनसे वह इन हिन्दुओं को देश की नागरिकता दे सके. यहीं से सीएए के विचार ने जन्म लिया. अगस्त 2019 के अंत में असम की अंतिम एनआरसी सूची प्रकाशित की गई. इसमें 19 लाख लोगों के नाम नहीं थे और इनमें से अधिकांश हिन्दू थे. इसके बाद भाजपा जल्द से जल्द सीएए को पारित करवाने के लिए उद्यत हो गई.

देश भर में विद्यार्थियों और अन्य वर्गों द्वारा सीएए के विरोध के जवाब में भाजपा द्वारा यह कहा जा रहा है कि सीएए का भारतीय मुसलमानों से कोई लेनादेना नहीं है. परंतु समस्या यह है कि सीएए को सरकार की इस घोषणा से अलग करके नहीं देखा जा सकता कि वह पूरे देश में एनआरसी करवाएगी. सरकार का कहना है कि देशव्यापी एनआरसी इसलिए आवश्यक है क्योंकि बांग्लादेशी घुसपैठिए पूरे देश में हैं. परंतु सरकार को यह डर है कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी के नतीजे भी असम के एनआरसी, जिससे वह पल्ला झाड़ चुकी है, की तरह न हों. और इसलिए वह सीएए के जरिए यह इंतजाम कर रही है कि एनआरसी में जिन हिन्दुओं को देश का नागरिक नहीं पाया जाए उन्हें पिछले दरवाजे से नागरिकता दी जा सके. उसका उद्देश्य मुसलमानों को उनकी नागरिकता से वंचित करना है. भारत में विभिन्न सरकारों के शासनकाल में मुसलमान भेदभाव और हिंसा का शिकार होते रहे हैं और व्यावहारिक दृष्टि से उन्हें देश का दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है. परंतु यह पहली बार है कि कोई सरकार संस्थागत तरीके से मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने का प्रयास कर रही है.

अगर भाजपा का इरादा पूरे देश में एनआरसी करवाने का है तो उसे असम में हुई इस कवायद से सबक सीखना चाहिए.

असम में एनआरसी पर 12,000 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं और इसके जरिये केवल 19 लाख ‘अवैध प्रवासियों’ का पता लगाया जा सका है. अपनी नागरिकता को साबित करने के लिए लोगों को जो कष्ट भोगने पड़े, उनका तो कोई हिसाब ही नहीं है.

असम में एनआरसी की प्रक्रिया के अध्ययन के लिए वहां गए एक दल में यह लेखिका भी शामिल थी. वहां हमें यह पता चला कि इस काम में कॉलेजों और स्कूलों के जिन शिक्षकों को लगाया गया था, वे सालों से इसमें लगे हुए थे. जाहिर है कि इससे असम के नागरिकों की एक पूरी पीढ़ी की शिक्षा पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ा. शिक्षकों के अलावा, शासकीय मशीनरी के अन्य अधिकारी और कर्मचारी भी अपना मूल काम छोड़ कर एनआरसी बनाने में जुटे रहे.

अखिल भारतीय एनआरसी इससे कहीं अधिक खर्चीली और देश के लिए नुकसानदेह होगी. असम में एनआरसी के काम में लगभग 50,000 सरकारी कर्मचारियों को लगाया गया और पूरी कवायद पर, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, लगभग  12,000 करोड़ रूपये खर्च हुए. असम की आबादी देश की कुल आबादी का केवल तीन प्रतिशत है. ऐसे में राष्ट्रव्यापी एनआरसी कितनी महंगी पड़ेगी यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं है. और इतना भारी खर्च केवल अप्रमाणित और अतिशयोक्तिपूर्ण  दावों को सही या गलत साबित करने के लिए किया जाएगा. इससे देश में किस तरह की अफरातफरी फैलेगी यह स्पष्ट है. यह भी विडंबनापूर्ण है कि हिन्दुओं, जिनकी सुरक्षा के लिए कथित रूप से सीएए लागू किया गया है, को ही लंबी-लंबी कतारों में लगकर अपनी नागरिकता साबित करनी होगी. और जिन हिन्दुओं को एनआरसी से बाहर कर दिया जाएगा, उन्हें यह साबित करना पड़ेगा कि वे तीन पड़ोसी देशों में से एक में प्रताड़ना का शिकार होने के कारण भारत आए हैं. तभी उन्हें देश की नागरिकता मिल सकेगी. जाहिर है कि यह करना आसान नहीं होगा क्योंकि उन्हें अपने आपको विदेशी और शरणार्थी साबित करना होगा. इस तरह यद्यपि मुसलमानों के साथ भेदभाव होगा तथापि हिन्दुओं के लिए भी राह आसान नहीं होगी. देश के सभी नागरिकों को अकल्पनीय कठिनाईयों का सामना करना पड़ेगा.

सीएए-एनआरसी देश पर क्या प्रभाव डालेंगे? इनसे भारत में नागरिकता का स्वरूप पूरी तरह बदल जाएगा.

अब तक भारत की नागरिकता इस सिद्वांत पर आधारित थी कि देश में जन्म लेने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वमेव देश का नागरिक बन जाता है. अब सरकार गोलवलकर की इस सोच पर काम कर रही है कि भारत हिन्दुओं का प्राकृतिक और स्वाभाविक देश है. यह इजराइल की तरह है जो दुनिया भर के सभी यहूदियों को अपना नागरिक मानता है. स्पष्टतः यह बहुसांस्कृतिक समाजों के विचार के विरूद्ध है - ऐसे समाजों के जिनमें विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ मिलकर शांतिपूर्वक रहते हैं. यह हमारे संविधान में निहित समानता के मूल्य के खिलाफ भी है. हमारा संविधान धर्म, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार के भेदभाव की इजाजत नहीं देता. यह दरअसल भारत के विचार के खिलाफ है.

सरकार का कहना है कि सीएए का उद्देश्य केवल उन देशों के प्रताड़ित नागरिकों को शरण देना है जिनका कोई विशिष्ट राज्यधर्म है. सरकार का यह मानवीय चेहरा स्वागतयोग्य है परंतु क्या फिर सरकार को श्रीलंका, भूटान और नेपाल जैसे हमारे अन्य पड़ोसी देशों के प्रताड़ित अल्पसंख्यक नागरिकों को भी शरण नहीं देनी चाहिए? श्रीलंका के संविधान में बौद्ध धर्म को विशेष दर्जा प्राप्त है और भूटान और नेपाल के अपने राज्यधर्म हैं.

आज देश जल रहा है और इसके लिए जिम्मेदार है सरकार का अहंकार, जो एक अप्रजातांत्रिक कानून को बिना विचार-विमर्श के देश पर लाद रही है. वह देश में इस कदम के व्यापक विरोध को नजरअंदाज कर रही है और उसे इस बात की कोई फिक्र नहीं है कि प्रदर्शनकारियों के विरूद्ध जरूरत से ज्यादा बल का इस्तेमाल किया जा रहा है. सरकार भारत के विचार को ही पुनपर्रिभाषित कर रही है और देश में कट्टरता और धर्माधंता को बढ़ावा दे रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह अधिनियम भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के आरएसएस के स्वप्न को साकार करने की दिशा में एक ठोस कदम है और अगर इस प्रक्रिया में देश के करोड़ों नागरिकों को घोर पीड़ा और कष्ट से गुजरना भी पड़े तब भी सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.

नेहा दाभाड़े

(अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)

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