‘जाति प्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर चंडीगढ़ के भकना भवन में सम्पन्न हुये चतुर्थ अरविंद स्मृति संगोष्ठी की हस्तक्षेप पर प्रकाशित रिपोर्ट्स के प्रत्युत्तर में हमारे सम्मानित लेखक पलाश विश्वास जी का यह आलेख प्राप्त हुआ है। उनके इस आरोप पर कि हम एक पक्ष की ही रिपोर्ट्स दे रहे हैं, (हालाँकि जिस संगोष्ठी की रिपोर्ट्स दी गयीं उनमें प्रोफेसर आनंद तेलतुंबड़े, प्रोफेसर तुलसीराम और प्रोफेसर लाल्टू व नेपाल दलित मुक्ति मोर्चा के तिलक परिहार जैसे बड़े दलित चिंतक शामिल थे) हमने उनसे (पलाश जी) अनुरोध किया था कि उक्त संगोष्ठी में जो कुछ कहा गया है उस पर अपना पक्ष रखें और यह बतायें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता आखिर था क्या और उनके अनुयायियों ने उसकी दिशा में क्या उल्लेखनीय कार्य किया।
मान लिया कि डॉ. अंबेडकर को खारिज करने का षडयंत्र चल रहा है तो ऐसे में क्या अंबेडकरवादियों का दायित्व नहीं बनता है कि वह ब्राह्मणवादी तरीके से उनकी पूजा के टोने-टोटके से बाहर निकलकर लोगों के सामने तथ्य रखें कि डॉ. अंबेडकर का मुक्ति का रास्ता यह था। लेकिन किसी भी अंबेडकरवादी ने सिर्फ उनको पूजने और ब्राह्मणवाद को कोसने की परम्परा के निर्वाह के अलावा कभी यह नहीं बताया कि डॉ. अंबेडकर का नुस्खा आखिर है क्या।
हम यह भी जानना चाहते हैं कि आखिर बामसेफ और आरएसएस में लोकेशन के अलावा लक्ष्य में मूलभूत अंतर क्या है।
पलाश जी भी “साम्राज्यवादी हिन्दुत्व का यह वामपंथी चेहरा बेनकाब कर देने का वक्त है” तो रेखांकित करते हैं लेकिन डॉ. अंबेडकर की सियासी विरासत “बहुजन समाज पार्टी” की बहन मायावती और आरपीआई के अठावले के “नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व” पर मौन साध लेते हैं।
हम चाहते हैं पलाश जी ही इस “नीले कॉरपोरेटी हिन्दुत्व” पर भी थोड़ा प्रकाश डालें। लगे हाथ एफडीआई पर डॉ. अंबेडकर के चेलों पर भी प्रकाश डालें। “हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है”
बहरहाल इस विषय पर बहस का स्वागत है। आप भी कुछ कहना चाहें तो हमें amalendu.upadhyay@gmail.com पर मेल कर सकते हैं। पलाश जी भी आगे जो लिखेंगे उसे आप हस्तक्षेप पर पढ़ सकेंगे।
-संपादक हस्तक्षेप
-0-0-0-0-0-00--
पलाश विश्वास
सबसे बुरा दौर तो अब शुरु हुआ है! इसके विपरीत वैश्विक रेटिंग एजेंसी फिच की भारतीय इकाई इंडिया रेटिंग्स का कहना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सबसे बुरा दौर खत्म हो चुका है, लेकिन आने वाला समय अब भी अनिश्चितताओं से भरा है। किसी अनहोनी से बचने के लिए गुणवत्तापूर्ण राजकोषीय उपाय किये जाने की आवश्यकता है। भारत सरकार की अपनी कोई वित्तीय नीति है नहीं। कॉरपोरेट नीति निर्धारण के लिए रेटिंग एजंसियों की रपट का बतौर छतरी इस्तेमाल करने का रिवाज बन गया है। वित्तीय घाटा को आर्थिक संकट का पर्याय बताया जाता है और विकास दौर को समृद्धि का। पर इन आंकड़ों से निनाब्वे फीसदी जनता का कोई लेना देना नहीं है।
दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से यह आर्थिक संकट दूर होने से तो रहा। आधार योजना को भी अब किनारे करके अब एक अरब डॉलर के निवेश से नई पहचान योजना आरआईसी कारपोरेट हितों के मुताबिक कॉरपोरेट द्वारा संचालित शुरू की जाने वाली है। हिन्दुत्व के एजण्डे के प्रतिरोध के लिये जब अंबेडकर विचारधारा के तहत बहिष्कृत बहुसंख्यक जनता को गोलबन्द करना सम्भव है क्योंकि इसके जरिये उत्पादक व सामाजिक शक्तियों के धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक मोर्चा बनाया जा सकता है। अंबेडकर के प्रयास से जो गोल्ड स्टैण्डर्ड चालू हुआ उसे खत्म करके भारतीय शासक वर्ग ने जो डॉलर की नियति के साथ भारत की अर्थ व्यवस्था को जोड़ा है, वही आर्थिक संकट की जड़ है।
वैश्विक मुक्त बाजार के संकट को भारतीय जनता का संकट बताते हुए समृद्धि के रिसाव को भारतीय समावेशी विकास बनाने का सबसे मुखर विरोध करने वाले वामपंथी अब अंबेडकर और उनकी विचारधारा को खारिज करने में लगे हैं। जनसंहार की नीतियों का विरोध करने का नारा लगाने वाले इन लोगों ने उदारीकरण के दो दशक जनता को गुमराह करके सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक संविधान की हत्या में पूरा सहयोग करके प्रतिरोध की हर सम्भावना को खराब करने में बेकार बिता दिये। अब जब हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है तब ये अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करने की तैयारी में है। इससे बड़ा संकट क्या हो सकता है?
उनकी दलील है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये। दलित उत्पीडऩ को लेकर अंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता। तो साम्राज्यवादी खतरे को आपने कैसे पहचाना, कोई उनसे पूछे। डॉ. अंबेडकर ने ही प्रॉब्लम ऑफ रूपी के जरिये सबसे पहले साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था की चीरफाड़ की। भारतीय वामपंथी तो अमेरिका और इजराइल के नेतृत्व में पारमाणविक जायनवादी सैन्य गठबंधन बनने तक सत्ता वर्ग को पूरा समर्थन देते रहे, भारत अमेरिका परमाणु संधि का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने तक। इन्हें अंबेडकर की आलोचना करने का क्या हक है?
देश की संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक हकूक के लिए बाबासाहेब ने जो संवैधानिक रक्षा कवच तैयार किये, उसे ध्वस्त करने में वामपंथी भी तो लगातार सत्ता वर्ग का साथ देते रहे। मरीचझांपी नरसंहार प्रकरण से साफ जाहिर है कि उनका जाति विमर्श दरअसल ब्राह्मणवादी वर्चस्व बनाये रखने और मनुस्मृति कॉरपोरेट व्यवस्था बनाये रखने के लिये है।
कामरेड ज्योति बसु ने अपने लंबे राजकाज के दौरान बाकी देश में मंडल कमीशन लागू करने का शोर मचाने के बावजूद बंगाल में आधी आबादी ओबीसी होने के बावजूद यहाँ ओबीसी के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं किया। पैंतीस साल तक बंगाल के वाम शासन में ब्राह्मणमोर्चा का ही राज रहा। यहीं नहीं ब्राह्मणवादी बंगाली वर्चस्व के जरिये भारतीय वामपंथी आंदोलन को तहस नहस कर दिया गया।
आदिवासियों के हक-हकूक के बारे में उनकी ही नीतियों की वजह से नक्सलबाड़ी जनविद्रोह हुआ। वे ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने को तैयार सिर्फ इसलिए नहीं हुये कि केन्द्र में उनकी सरकार होने पर भूमि सुधार लागू करना उनकी जिम्मेवारी होती और भूमि सुधार लागू नहीं करना चाहते।
य़हीं नहीं, बंगाल और केरल के ब्राहण वामपंथी नेताओं ने पार्टी नेतृत्व में सवर्ण असवर्ण दूसरी जातियों को कोई प्रतिनिधित्व देने से परहेज किया। स्त्रियों को अधिकार नहीं दिये। वृंदा कारत और सुभाषिणी अली अपवाद हैं।
आदिवासियों के हक हकूक के लिए भारतीय वामपंथियों ने संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूचियों को लागू करने के लिये कौन सा राष्ट्र व्यापी आन्दोलन किया अगर करते तो आज देश को माओवाद की जरूरत ही नहीं होती। यह जाति विमर्श अंबेडकरवादी आन्दोलन के विरुद्ध है और कुछ भी नहीं। जबकि साम्राज्यावादी हिन्दुत्ववादी जायनवादी मुक्त बाजार व्यवव्था के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक अंबेडकरवादी आंदोलन के सिवाय कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं।
अभी तो हम इस जाति विमर्श में क्या हुआ, इसी की जानकारी देने के लिये इतना भर लिख रहे हैं और पहले उनकी दलीलों को रख रहे हैं। बाद में सिलसिलेवार उनके हर तर्क का यथोचित जवाब दिया जायेगा।
यह जाति विमर्श अनुष्ठान जयपुर साहित्य सम्मलन के आरक्षणविरोधी मंच बन जाने जैसा वाकया है। जहाँ अवधारणा पेश करने की यह बानगी देखिये -
आज सामन्ती शक्तियाँ नहीं बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था जाति प्रथा को जिन्दा रखने के लिये जिम्मेदार है और यह मेहनतकश जनता को बाँटने का एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण बन चुकी है। इसलिये यह सोचना गलत है कि पूँजीवाद और औद्योगिक विकास के साथ जाति व्यवस्था स्वयं समाप्त हो जाएगी।
चौथे दिन आज यहाँ पेपर प्रस्तुत करते हुए ‘आह्वान’ पत्रिका के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने यह बात कही। ‘जाति व्यवस्था सम्बंधी इतिहास लेखन’ पर केंद्रित अपने आलेख में उन्होंने जातिप्रथा के उद्भव और विकास के बारे में सभी प्रमुख इतिहासकारों के विचारों की विवेचना करते हुए बताया कि जाति कभी भी एक जड़ व्यवस्था नहीं रही है, बल्कि उत्पादन सम्बंधों में बदलाव के साथ इसके स्वरूप और विशेषताओं में भी बदलाव आता रहा है। उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था का उदय अभिन्न रूप से समाज में वर्गों, राज्य और पितृसत्ता के उदय से जुड़ा हुआ है। अपने उद्भव से लेकर आज तक जाति विचारधारा शासक वर्गों के हाथ में एक मजबूत औजार रही है। यह गरीब मेहनतकश आबादी को पराधीन रखती है और उन्हें अलग-अलग जातियों में बाँट देती है। पूँजीवाद ने जातिगत श्रम विभाजन और खान-पान की वर्जनाओं को तोड़ दिया है लेकिन सजातीय विवाह की प्रथा को कायम रखा है,क्योंकि पूँजीवाद से इसका कोई बैर नहीं है।
कहा जा रहा है कि जाति व्यवस्था तथा छुआछूत के विरुद्ध अम्बेडकर के अथक संघर्ष से दलितों में नयी जागृति आयी लेकिन वह दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना नहीं दे सके और अम्बेडकर के दार्शनिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक चिन्तन में से दलित मुक्ति की कोई राह निकलती नज़र नहीं आती। इसलिए भारत में दलित मुक्ति तथा जाति व्यवस्था के नाश के संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाने के लिए अम्बेडकर से बढ़कर रास्ता तलाशना होगा।
‘जातिप्रश्न और मार्क्सवाद’ विषय पर भकना भवन में जारी अरविंद स्मृति संगोष्ठी के पाँचवें और अन्तिम दिन आज यहाँ ‘अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति’ विषय पर अपने पेपर में पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के संपादक सुखविन्दर ने कहा कि जाति प्रश्न के सन्दर्भ में अम्बेडकर तथा उनके नेतृत्व वाले समाज-सुधार आन्दोलन की ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील भूमिका को स्वीकार करते हुये भी, उनकी सीमाओं से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
उन्होंने कहा कि आज मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद को मिलाने की बातें हो रही हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों विचारधाराओं में बुनियादी अन्तर है। मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष के ज़रिये समाज में से वर्ग विभेदों को मिटाने, मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का अन्त करने तथा समाजवाद को वर्गविहीन समाज ले जाने का रास्ता पेश करता है जबकि अम्बेडकर की राजनीति शोषण-उत्पीड़न की बुनियाद पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था का अंग बनकर इसी व्यवस्था में कुछ सुधारों से आगे नहीं जाती है। सुखविन्दर ने अपने विस्तृत आलेख में अम्बेडकर के दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र और इतिहास सम्बंधी उनके विचारों का विश्लेषण प्रस्तुत करते हुये बताया कि दलितों में चेतना जगाने के उनके योगदान को स्वीकार करने के साथ ही उनके रास्ते की सीमाओं को भी स्वीकारना होगा।
उन्होंने कहा कि दलितों को भगत सिंह के इस आह्वान को याद करना होगा कि धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं होगा, सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा करने तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लेनी होगी।
प्रसिद्ध लेखक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. तुलसीराम ने कहा कि अम्बेडकर का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने जाति व्यवस्था की दैवी मान्यता पर चोट की। सुखविन्दर के पेपर की आलोचना करते हुये उन्होंने कहा कि बुद्ध के दर्शन के क्रान्तिकारी योगदान की इसमें उपेक्षा की गयी है। अम्बेडकर को उनके ऐतिहासिक काल की सीमाओं को ध्यान में रखकर ही समझा जा सकता है। उन्होंने हिन्दू धर्म की विकृतियों की विस्तार से चर्चा करते हुये कहा कि जाति प्रथा का विरोध करने के ही कारण ब्राह्मणवादियों ने बौद्ध धर्म को खत्म कर दिया। डॉ. तुलसीराम ने कहा कि अम्बेडकर ने राजकीय पूँजीवाद के रूप में जो आर्थिक मॉडल दिया वह रूस में मौजूद राजकीय समाजवाद से कम प्रगतिशील नहीं था।
आह्वान पत्रिका के सम्पादक अभिनव ने प्रो. तुलसीराम के वक्तव्य की अनेक बातों से असहमति प्रकट करते हुये कहा कि जाति व्यवस्था के उद्भव के बारे में उनकी सोच तथ्यों से मेल नहीं खाती। अम्बेडकर ने जाति प्रथा के खिलाफ अथक संघर्ष किया लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि उनके पास दलित मुक्ति का सही रास्ता भी था। समस्या का सही निवारण वही कर सकता है जिसके पास कारण की सही समझ हो। इसका हमें अम्बेडकर में अभाव दिखता है। उन्होंने डॉ. तुलसीराम के इस विचार का तीव्र खण्डन किया कि सामाजिक आन्दोलनों को राजनीतिक आन्दोलन पर वरीयता देनी होगी। सामाजिक आन्दोलन सत्ता के सवाल को दरकिनार करके सुधार के दायरे में सीमित रहते हैं।
बी.आर. अम्बेडकर कालेज, दिल्ली के प्रशांत गुप्ता ने अस्मितावादी राजनीति पर अपना आलेख प्रस्तुत किया। कल देर रात तक चले सत्र और आज के सत्र में हुई सघन चर्चाओं में निनु चपागाईं, शिवानी, असित दास, शब्दीश, तपीश मैन्दोला, डा. सुखदेव, कश्मीर सिंह, सत्यम आदि ने भाग लिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय की शिवानी ने ‘जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति’ विषय पर और सोशल साइंसेज स्टडीज़ सेंटर, कोलकाता के प्रस्कण्व सिन्हाराय ने ‘पश्चिम बंगाल में जाति और राजनीति: वाम मोर्चे का बदलता चेहरा’ विषय पर पेपर प्रस्तुत किए।
शिवानी ने अपने पेपर में कहा कि पहचान की राजनीति जनता के संघर्षों को खण्ड-खण्ड में बांटकर पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रही है। जातीय पहचान को बढ़ावा देने की राजनीति ने दलित जातियों और उपजातियों के बीच भी भ्रातृघाती झगड़ों को जन्म दिया है। जाति, जेंडर, राष्ट्रीयता आदि विभिन्न अस्मिताओं के शोषण-उत्पीडऩ को खत्म करने की लड़ाई को साझा दुश्मन पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की ओर मोडऩी होगी और यह काम वर्गीय एकजुटता से ही हो सकता है।
श्री सिन्हा राय ने बंगाल में नाम शूद्रों से निकले मतुआ समुदाय की राजनीतिक भूमिका की चर्चा करते हुए कहा कि वाम मोर्चे ने 1947 के बाद मतुआ शरणार्थियों की मांगों को मजबूती से उठाया था लेकिन बाद में वाम मोर्चे पर हावी उच्च जातीय भद्रलोक नेतृत्व ने न केवल उनकी उपेक्षा की बल्कि मतुआ जाति का दमन भी किया। पिछले चुनावों में कई इलाकों में वाम मोर्चे की हार का यह भी कारण था।
पर्चों पर जारी बहस में हस्तक्षेप करते हुए सुखविन्दर ने कहा कि जाति व्यवस्था को सामंती व्यवस्था के साथ जोडक़र देखने से न तो दुश्मन की सही पहचान हो सकती है और न ही संघर्ष के सही नारे तय हो सकते हैं। वास्तविकता यह है कि आज भारत में दलितों के शोषण का आधार पूँजीवादी व्यवस्था है। जमीन जोतने वाले को देने का नारा आज अप्रासंगिक हो चुका है।
लेखक शब्दीश ने कहा कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपनी नफरत के कारण अंबेडकर उपनिवेशवाद की साजिश को समझ नहीं पाये। दलित उत्पीडऩ को लेकर अंबेडकर की पीड़ा सच्ची थी लेकिन केवल पीड़ा से कोई मुक्ति का दर्शन नहीं बन सकता।