Hastakshep.com-आपकी नज़र-उत्तर प्रदेश-uttr-prdesh-किसान आंदोलन-kisaan-aandoln-किसान गणतंत्र परेड-kisaan-gnntntr-predd-किसान-kisaan-किसानों की समस्या-kisaanon-kii-smsyaa-गणतंत्र दिवस-gnntntr-divs-गाजीपुर बार्डर-gaajiipur-baarddr-टीकरी बार्डर-ttiikrii-baarddr-दीप सिद्धू-diip-siddhuu-पंजाब-pnjaab-हरियाणा-hriyaannaa

The dangerous game of crushing the peasant movement exposed

यह मोदी राज का जाना-पहचाना तरीका ही बन गया है। विरोध की हरेक आवाज को या तो खरीद लो या कुचल दो। फिर भी, अगर आवाज इतनी ताकतवर हो जाए कि उसे सीधे कुचलना मुश्किल हो या महंगा पड़ सकता हो, तो पहले मीडिया से लेकर शासन के विभिन्न अंगों तक, सारे उपलब्ध औजारों का इस्तेमाल कर उसे बदनाम करो, उसे राष्ट्रविरोधी प्रचारित करो। और अंतत: किसी न किसी तरह से हिंसा का बहाना बनाकर, राज्य के सारे औजारों की दमनमारी ताकत के बल पर और जाहिर है कि उच्चतर न्यायपालिका से मुंह दूसरी ओर करवाए रखकर, उसे कुचल दो।

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ देशव्यापी किसान आंदोलन के साथ और खासतौर पर दिल्ली के गिर्द दो महीने से ज्यादा से धरना देकर आंदोलन कर रहे पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा आस-पड़ौस के अन्य राज्यों के किसानों की गोलबंदी के साथ, मोदी सरकार को इस समय इसी बाद वाले, विरोध की प्रबल आवाजों से निपटने के तरीके को, आजमाते हुए देखा जा सकता है।

शाहीन बाग में भी अपनाया था यही तरीका, यह आखिरी हथियार है

         इससे पहले, इस तरीके को सबसे मुकम्मल तरीके से पिछले साल, सीएए-विरोधी देशव्यापी आंदोलन के खिलाफ जिसका प्रतीक शाहीनबाग का धरना बन गया था, आजमाया गया था। 26 जनवरी को विराट किसान परेड के साथ जो हुआ उसके बाद भी, शाहीनबाग प्रकरण के एक हथियार का आजमाया जाना बाकी था, उसे भी आखिरकार अजमाया जा चुका है। यह आखिरी हथियार है कथित रूप से ‘आहत स्थानीय लोगों’ के नाम पर, हमलावर संघी भीड़ों को शांतिपूर्वक धरने पर बैठे आंदोलनकारियों से

भिड़ने के लिए उकसाना।

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक, ऐसी ‘भारत माता की जय’ के साथ ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाती भीड़ें, सिंघू बॉर्डर पर बैठे आंदोलनकारियों पर प्रदर्शन के नाम पर हमले कर चुकी थीं और उसी समय स्थानीय होने का दावा करने वालों की वैसी ही भीड़ टीकरी बॉर्डर पर बैठे प्रदर्शनकारियों को अल्टीमेटम देने पहुंच चुकी थी। गाजीपुर बॉर्डर पर इससे एक दिन पहले ही भाजपा के स्थानीय विधायक जी, कपिल मिश्रा की स्टाइल में तीन दिन में धरना उठाने की चेतावनी दे गए थे, जबकि उत्तर प्रदेश में बड़ौत व हरियाणा में पलवल समेत कुछ और जगहों पर पुलिस की मदद कर संघी भीड़ें, जोर-जबर्दस्ती से आंदोलन स्थलों को खाली करा चुकी थीं। यानी सब कुछ पूरी तरह से स्क्रिप्ट के मुताबिक चल रहा है।

         वैसे इस स्क्रिप्ट में संगठित, हिंसक भगवाई भीड़ों को, बहत्तर घंटे की मोहलत देने का 2002 का गुजरात का तजुर्बा भी शामिल है और यहां से वह एक कदम दूर ही रह जाता है। आखिरकार, शासन-प्रशासन तो मोदी-शाह जोड़ी के ही हाथों में है। फिर भी, इस प्रसंग में उसे आजमाया जाता है या नहीं, इसके लिए अभी हमें इंतजार करना होगा। कम से कम फिलहाल तो यह थोड़ा मुश्किल ही लगता है। पहली वजह तो यही है कि आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ संघी वीरों तथा गोदी मीडिया के संघी/सरकारी लठैतों को छोड़कर, लाल किला प्रकरण के नाम पर कोई वास्तविक उन्माद जगाना उनके लिए कम से कम अब तक संभव नहीं हुआ है। उल्टे इस अप्रिय प्रसंग से कुछ मायूस होकर अगर कुछ आंदोलनकारी वापस चल भी पड़े थे या आंदोलन के समर्थन में हिचक रहे थे, उन्हें भी हमले की इन भोंडी शासन-प्रायोजित कोशिशों ने, आंदोलनस्थलों पर लौटने के लिए मजबूर कर दिया है। मुजफ्फरनगर में हुई विराट महापंचायत (Virat Mahapanchayat held in Muzaffarnagar) का, गाजीपुर बॉर्डर के आंदोलन स्थल को और कई गुना मजबूत करने का फैसला, इसका संकेतक है।

         दूसरे, कम से कम मौजूदा सत्ताधारियों से भी इतना समझने की तो उम्मीद की ही जा सकती है कि दिल्ली के बार्डरों पर बैठे आंदोलनकारी किसानों को, जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा अब भी पंजाब के सिख किसानों का ही है, भीड़ की हिंसा के जरिए दबाने की कोई भी कोशिश, आसानी से सांप्रदायिक प्रतिक्रिया जगा सकती है। जिस सिख अलगाववाद का हौवा दिखाकर, वे किसान आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश करते रहे हैं, अब तक बेशक इस आंदोलन के हाशिए से ज्यादा प्रभाव नहीं हासिल कर पाया है, लेकिन दमन की कोशिश उसे नयी ताकत भी दे सकती है। और अगर सिख अलगाववाद की आग दोबारा भड़की तो, मौजूदा शासकों को शुरूआत में भले अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का मौका मिल जाए, लेकिन देश को इसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

बेशक, मौजूदा सत्ताधारियों की राजनीति, इसमें भी अवसर देख सकती है और कश्मीर की ही तरह, पंजाब को भी दमन के जरिए साधने की कोशिश करने में उसे कम से कम कोई नैतिक-राजनीतिक हिचक नहीं होगी। लेकिन, कश्मीर भी क्या वाकई सारे दमन के बाद भी साधा जा सका है! इसलिए, यह उम्मीद करना बहुत ज्यादा नहीं होगा कि वे पंजाब के मामले में इस रास्ते पर नहीं चलेंगे। तब तो और भी नहीं जबकि इस आजादी के बाद के सबसे बड़े आंदोलन से भी, कम से कम दो-तीन वर्ष तो, उनकी सत्ता के लिए कोई खतरा है नहीं।

         फिर भी जैसा कि हमने शुरू में ही कहा, इस आंदोलन को दबाने के लिए, जिसे सत्ता के सभी अंगों पर और मीडिया के जरिए, सोच-विचार के बड़े हिस्से पर अपने सारे नियंत्रण के बावजूद, मोदी-संघ निजाम रोक नहीं पाया है, सीएए-विरोधी आंदोलन की स्क्रिप्ट का पूरी तरह से अनुसरण किया जा रहा है।

गणतंत्र दिवस (The Republic Day) पर हुई किसानों की अभूतपूर्व और अति-विशाल परेड के प्रभाव को, जिस तरह लालकिला प्रकरण के सहारे मिटाया गया है, वह उसी का हिस्सा है।

बेशक, इसमें मीडिया तथा खासतौर पर टीवी मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसे मोदी राज के सात साल में अधिकांश रूप से गोद में बैठाया जा चुका है और बचे-खुचे हिस्से को भी, ‘सनसनी ही खबर है’ के वैचारिक पाठ से, शासन के आग्रहों का हमसफर तो बनाया ही जा चुका है। इसी का नतीजा था कि लाखों की संख्या में ट्रैक्टर, निर्धारत रास्ते पर ही रहकर, लाखों लोगों के साथ और मुख्यत: तिरंगे लेकर, असली किसान ट्रैक्टर परेड में शामिल हुए।

लाखों आम लोगों ने सिर्फ कौतूहल से ही नहीं, जोशीले समर्थन के भाव से इस परेड को देखा और जगह-जगह फूल बरसाकर, पानी पिलाकर, मिठाई आदि खिलाकर, उनका स्वागत किया। और इस तरह किसान आंदोलन के हिस्से के तौर पर लाखों लोगों ने एक अनोखे तरीके से गणतंत्र दिवस मनाया, जिसमें गण की केंद्रीयता थी।

इसके बावजूद, दोपहर के बाद से टीवी के जरिए देखने वालों ने सिर्फ और सिर्फ, रास्ता बदलने के लिए पुलिस से भिड़ते एक छोटे से हिस्से को और बचते-बचाते लाल किला जा पहुंचे और भी छोटे से हिस्से की हरकतों को ही देखा।

किसानों की मांगों के पक्ष में दसियों लाख लोगों की गोलबंदी ने, 26 जनवरी की हैडलाइन तो बेशक बदल दी, लेकिन राजपथ की परेड की पवित्रता की दुहाइयां देने वालों ने, लाखों देशवासियों की इस आवाज को भी हैडलाइन से बाहर कर दिया। और उसकी जगह पर बैठा दिया--लाल किले पर उपद्रव और तिरंगे के अपमान को! यह दूसरी बात है कि हालांकि यह हरकत सरासर अनुचित तथा नुकसानदेह थी, फिर भी तिरंगे को न तो किसी ने छुआ था और उतारा था। अलबत्ता उससे काफी नीचे, कुछ और झंडे लगा दिए गए थे। वैसे लाल किले पर सिखों के निशान साहिब सहित, तिरंगे के अलावा किसी और झंडे के लगाए जाने का, यह कोई पहला मामला भी नहीं था।

         और यह सब भी कैसे हुआ? लाल किला झंडा कांड के हीरो, दीप सिद्धू (Deep Sidhu,) की भाजपा नेताओं से राजनीतिक नजदीकियां अब तक सब की जानकारी में आ चुकी हैं। वह 2019 के आम चुनाव में पंजाब में गुरुदासपुर सीट से भाजपा के उम्मीदवार, फिल्म अभिनेता सनी देओल का चुनाव एजेंट ही नहीं था, उसे प्रधानमंत्री मोदी समेत, अनेक भाजपा नेताओं के साथ तस्वीरें खिंचाने का मौका भी मिला था।

वास्तव में 26 नवंबर को आंदोलनकारियों के दिल्ली के बॉर्डर पर पहुंचने के समय से ही उसने विशेष रूप से मीडिया का अपनी ओर ध्यान खींचा था और संघी प्रचार मशीनरी को इसका प्रचार करने का मसाला दिया था कि आंदोलनकारियों में खालिस्तान समर्थक भरे हैं, इनमें किसान नहीं हैं बल्कि विदेशी उच्चारण के साथ अंग्रेजी बोलने वालों की भरमार है, आदि।

खबरों के अनुसार, ट्रेक्टर परेड से पहले वाली रात को, संयुक्त किसान मोर्चा के खाली मंच पर काबिज हो गए दीप सिद्धू तथा लाखा सिदाना जैसे लोगों ने, किसान जत्थेबंदियों के नेताओं द्वारा पुलिस का सुझाया रूट मान लेने को चुनौती दी थी और उनके निर्णय का उल्लंघन करने का आह्वान किया था। सतनाम सिंह पन्नू की किसान मजदूर संघर्ष समिति के तयशुदा रूट को न मानकर रिंग रोड जाने के आह्वान ने, उनके लिए रास्ता खोल दिया।

         पन्नू की किसान मजदूर संघर्ष समिति का किस्सा भी सिद्धू जैसा ही संदेहजनक है। यह समिति न तो संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल थी और न ही 26 नवंबर को सिंघू बॉर्डर में आए जत्थे के साथ थी।

यह ग्रुप बॉर्डर पर आंदोलन के चलते करीब दस दिन होने के बाद पहुंचा और उसे संयुक्त किसान मोर्चा से अलग, वास्तव में बॉर्डर लगाए बैरीकेडों के पार पुलिस की तरफ यानी दिल्ली की तरफ, अपना मंच लगाने की जगह दी गयी थी। इस विशेष सलूक से पैदा होने वाले संदेहों को छोड़ भी दें तब भी, दिल्ली की ओर बढऩे के हिसाब से उसे सबसे आगे जगह मिली हुई थी। और उसने तय समय से दो घंटे पहले, आठ बजे ही कूच कर दिया और मुबारका चौक से लगायी गयी रोकों को हटाकर, रिंग रोड पर बढ़ चले।

इसका नतीजा यह हुआ कि जुलूस में एक हिस्सा, यह जाने बिना ही कि उन्हें किस तरफ ले जाया जा रहा है, इस छोटे से गुट के पीछे चलता चला गया। यह संयोग ही नहीं है कि अनेक रिपोर्टरों को लाल किले पर जा पहुंचे कई ट्रैक्टर सवार यह कहते मिले कि उन्हें अंदाजा नहीं था कि वे किधर धकेले जा रहे थे! इसी प्रकार, सारे उपद्रव के बीच सुरक्षा बलों का एक बड़ा दस्ता लाल किले के सामने जिस तरह इत्मीनान से कुर्सियों पर बैठा इंतजार करता सैकड़ों तस्वीरों में दर्ज हुआ है, उससे भी बहुत से संदेह उठते हैं। कहीं यह सब कराया गया या होने दिया गया तो नहीं था? जनांदोलनों को कुचलने के लिए, इस तरह की हरकतों के लिए उकसावेबाजों का इस्तेमाल, कोई अनहोनी बात नहीं है।

         खैर! उकसावे का षडयंत्र हो या चूक, इतना बिल्कुल स्पष्ट है कि जो कुछ हुआ, उसका संबंध 26 जनवरी को जुटे दसियों लाखों किसानों में से एक बहुत छोटे से हिस्से था और उसका दो महीने से जारी किसान धरने से कुछ भी लेना-देना नहीं था। उल्टे यह उसके निर्देशों का उल्लंघन कर के किया गया था। फिर भी, मोदी-शाह की दिलचस्पी इन अलग-थलग घटनाओं को हथियार बनाकर, लाखों किसानों की नाराजगी के संदेश को नकारने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसे उसी प्रकार इस जनांदोलन को कुचलने के लिए इस्तेमाल करने मे है, जिस तरह उसने खुद अपने समर्थकों द्वारा उकसाए गए उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों का, न सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यकों का उत्पीडऩ करने के लिए इस्तेमाल किया था बल्कि सीएएविरोधी आंदोलन को ही कुचलने के लिए भी इस्तेमाल किया था। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली के बार्डरों पर ही नहीं बल्कि देश भर में तेज से तेज होते आंदोलन को देखते हुए, उसकी इस कपटचाल के कामयाब होने के आसार तो नहीं लगते हैं। लेकिन, इस हताशा में अगर वे दमनचक्र तथा हिंसा के जरिए, इस शांतिपूर्ण आंदोलन को, प्रतिहिंसा की ओर धकेलने पर तुल गए तो? नतीजों की सोचकर ही शरीर सिहर उठता है।                           

0 राजेंद्र शर्मा



Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।
Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा, लेखक वरिष्ठ पत्रकार व हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं। वह लोकलहर के संपादक हैं।

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