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The election in the air and starvation on the ground! Media hot, battered public

अक्तूबर-नवम्बर में बिहार विधान सभा का चुनाव संपन्न हुआ। एक महीना से अधिक हो गया और अब सब शांति है। समय है एक सही समीक्षा का। यहाँ एक कोशिश की गयी है।

कई दल और “फ्रंट” (मोर्चा) अपने-अपने लुभावने वादे, घोषणा पत्र, आदि लेकर जनता के सामने आए। बहुत सारे “जरूरी”, बे-मानी वायदे किए गए, सपने दिखाए गए, जो पूंजीवादी व्यवस्था में कभी भी पूरे नहीं किए जा सकते, जैसे 10 या 19 लाख रोजगार।

दो करोड़ रोजगार प्रति वर्ष का अंजाम हम देख चुके हैं।  विकास, देश, पाकिस्तान, चीन, धर्म, जाति, व्यक्ति विशेष, क्षेत्र, लिंग, विश्व गुरु, आदि-आदि के नाम से वोट माँगे गए। भाजपा के तरफ से तो अमित शाह का “वर्चुअल रैली” से चुनाव का आगाज़ हुआ था, जिसमें लाखों करोड़ों खर्च हुए, जब कि प्रवासी मजदूरों, खासकर जो बिहार लौट चुके हैं और दयनीय स्थिति में हैं, के लिए कोई भी मदद, सरकार की तरफ से, सामने नहीं आया।

नरेंद्र मोदी की कई चुनावी रैली भी हुईं, और शुरू होने से पहले बड़े पोस्टर के द्वारा मतदाताओं को यह बताया गया कि करोड़ों विस्थापित मजदूरों (करीब 16 राज्यों से, लॉकडाउन के दौरान) को बिहार सुरक्षित वापस लाने में भाजपा का सबसे बड़ा हाथ रहा है!!

आज के दौर में चुनाव में तक़रीबन वही दल या राजनीतिक व्यक्ति जीतता है, जिसके नेता अच्छा भाषण देने में समर्थ हों, भाषण के दौरान तालियाँ बजवा सके, उद्वेलित कर सके, जनता को हंसा सके, जाति, धर्म, क्षेत्र, आदि पर ध्रुवीकरण कर सके, करोड़ों-खरबों खर्च कर सके, कॉरपोरेट मीडिया से अपनी “योग्यता” साबित करवा सके। साथ ही जनता के मुद्दों

को ख़ारिज कर सके, जो बिहार के चुनाव में दिखा। हालाँकि, विपक्ष ने रोजगार का मुद्दा उठाया और पक्ष को मजबूरन रोजगार की बातें करनी पड़ीं।

चुनाव नतीजा इस बात को साबित करता है (यदि यह मान कर चलें कि वोट गणना के दौरान धांधली नहीं हुई, जैसा कि कुछ विपक्षी दल आरोप लगा रहे हैं), एनडीए (जेडीयू, भाजपा) को 125, महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, साम्यवादी दल) को 110 और अन्य को 8 सीट मिले हैं।

10-11 नवम्बर को परिणाम आया और एनडीए की सरकार पुनः स्थापित हुई।

चुनाव के दौरान 60 से अधिक हेलिकॉप्टर का इस्तेमाल हुआ, चुनाव आयोग ने सभी उम्मीदवारों के खर्च करने की आधिकारिक खर्च सीमा बढ़ा दी थी, 10%, क्योंकि वे “बेचारे” कोरोना वायरस के सताए हुए थे! यह भी जानकारी बेमानी नहीं होगा कि बिहार में करीब 60 सरकारी अस्पताल हैं, जिनमें से एक में भी एक भी सही बिस्तर या चौकी नहीं है रोगियों के लिए, न ही उनके पास कोई एम्बुलेंस है, मरने के बाद परिवार भागता रहता है लाश को घर या श्मशान घाट ले जाने के लिए।

वैसे एम्बुलेंस का व्यापार पूरे भारत में दलालों और व्यापारियों के हाथ में है और अच्छा व्यापार कर रहे हैं

ऐसे दृश्य पहले भी हम देख चुके हैं, और भी देखेंगे। अगला पड़ाव बंगाल और उत्तर प्रदेश है। हवा में चुनाव है और जमीन पर भुखमरी है! मीडिया मस्त है, जनता पस्त है! एक ही सच है, पूंजीवाद में मजदूर वर्ग शोषण और प्रताड़ना से मुक्त नहीं हो सकता है, और पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण चुनाव से नहीं हो सकता है। चुनावी और सम्वैधिक प्रक्रिया, जो यदि कभी सत्ता परिवर्तन के आधार थे, अब सत्ता, जो फासीवाद के गिरफ्त में है, को मजबूत करता है, यानि फासीवाद को मजबूत करता है।

सत्ता में कोई भी आये, हमेशा से धोखा मेहनतकश आवाम को ही मिला है। चुनाव के दौरान निम्नतम स्तर का भाषा, व्यवहार, नारा, आपराधिक काम तक होते हैं, जो इस बार दिल्ली और बिहार के चुनाव में दिखा। अरबों-खरबों रुपये पानी की तरह “निवेश” किए जाते हैं।

चुनाव ख़त्म होते ही, अगर कोई एक पार्टी बहुमत में ना हो तो “कानून बनाने वालों” की खरीद फरोख्त तो आलू-प्याज या मछली के खरीद फरोख्त से भी भद्दे स्तर का होता है। यह बात हमें पिछले महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में भी दिखा। इसके पहले बिहार, गोवा और अब मध्य प्रदेश के उदाहरण सामने हैं। यानी हमारे वोट का मतलब सत्ता और पैसे के लालची, धोखेबाज, मौकापरस्त और बड़े पूंजीपतियों के “मैनेजर” एमएलए, एमपी (कानून बनाने वाले जन प्रतिनिधि, विधायक, सांसद) शून्य कर देते हैं। यदि चुनाव सही ढंग और निष्पक्ष हो तब भी (जो कभी भी नहीं होता है), जनता के “प्रतिनिधि”, वास्तव में बड़े पूंजीपतियों के लिए काम करते हैं।

एक नजर भारत की आर्थिक स्थिति पर डालें

कोरोना वायरस महामारी और फिर बिना किसी योजना के और देर से लॉकडाउन जनता के ऊपर थोप दिया गया। करोड़ों मजदूर, खास कर प्रवासी मजदूर, बिना घर, पानी और भोजन के सड़क पर आ गए। लाखों मजदूर हजारों किलो मीटर चल कर घर पहुँचाने की कोशिश की, सैकड़ों मर भी गए। शोर और विरोध के बाद कुछ विशेष (स्पेशल) ट्रेन चलायी गयीं। वहां भी, पानी तक नहीं दिया गया और मजदूरों और बच्चों को शौचालय का पानी पीना पड़ा। 40 ट्रेन तो रास्ता ही भूल गईं। 3-4 दिन के बाद किसी नई जगह पहुँच गए। ऊपर से पुलिस का अत्याचार हर जगह दिखा। इतनी बेरहमी से तो शायद विदेशी पुलिस, अंग्रेजों के ज़माने में भी नहीं पीटती थी।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सरकार ने प्रवासी मजदूरों को वापस लेने से इनकार कर दिया था। पर जब कोई चारा नहीं बचा तो उन्हें संगरोध (क्वॉरन्टीन) किया, जहाँ बद इंतजाम हर जगह दिखा। सामाजिक दूरी (सोशल डिसटेंसिंग) का मजाक ही बना दिया गया। जांच और इलाज की तो बात ही नहीं करें, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के पास भी ढंग के सामान तक नहीं हैं।

बेरोजगारी करीब 30% तक पहुँच चुकी है, जो स्वतंत्रता के बाद सबसे ज्यादा है

जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 3.4% तक गिर चुका है, जो कि अगर पिछले पैमाने से गणना करें तो आधा ही रह जायेगा, जो 1.7% होगा। ध्यान रखें, इस गणना में अनौपचारिक क्षेत्र शामिल नहीं है, जिसमें जीडीपी का हिस्सा 25-40% तक होता है। अगर इसे जोड़ा जाए तो जीडीपी 0% या इससे भी नीचे चले जायेगा। यानी हम आर्थिक मंदी में हैं! पिछले आर्थिक तिमाही गणना में यह 24% तक गिर गया था और केन्द्रीय वित्त मंत्री ने इसे “भगवान का काम” बताया।

जहाँ भारत आर्थिक रूप से विश्व में काफी पिछड़ गया है, प्रति व्यक्ति आय में बंगलादेश से भी पीछे हो चुका है, वहीं बिहार और भी गर्त में जा चुका है, दक्षिणी सूडान के बराबर जा चुका है, और सिर्फ अफगानिस्तान, सोमालिया जैसे कुछ देशों से आगे हैं। यहाँ उद्योग ख़त्म हो चुका है और पिछले कई दशकों में कुछ भी नया नहीं बना है। 12 करोड़ से अधिक के आबादी में आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। ऐसी बरबादी तो दुश्मन ही कर सकता है।

भारत में आर्थिक अवसाद (आर्थिक मंदी एक लम्बे समय के लिए) की काफी संभावना है, जो विश्व में 1928-32 में था। एक सर्वेक्षण और अनुमान के आधार पर, विश्व बैंक ने दावा किया है कि भारत की अर्थव्यवस्था 10% तक और संकुचित हो सकती है। औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र को नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद जबरदस्त झटका लगा था और इसमें तक़रीबन 3 करोड़ मजदूर बेरोजगार हो गए थे, जो अब 22 करोड़ से ज्यादा हो गया है, जिन्हें पुनः स्थापित करने की कोई चर्चा नहीं है। “20 लाख करोड़ रुपया जनता के लिए” की कहानी (लॉकडाउन के दौरान) को दुहराने की जरूरत नहीं है, इसके बंदर बाँट की बात पाठकों को पता होगा।

देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, क़ानूनी स्थिति बहुत ही ख़राब है। इस सब में मेहनतकश स्त्रियाँ, चाहे किसी भी धर्म या जाति की हों, घर में या फिर घर से बाहर काम करने वाली हों, के हालत बदतर हैं। पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता कानून (कई रूपों में: NRC, CAA, NPR), और बढ़ते आर्थिक कठिनाइयों के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन चल रहे थे, जिसमें महिलाएं आगे बढ़ कर भाग ले रही थीं। शाहीन बाग की तर्ज पर देश भर में 500 से अधिक केंद्र सक्रिय थे और एक विशाल जन सवज्ञा आंदोलन का रूप ले चुका था। पर अब ये आंदोलन स्थगित हो गए हैं, या पुलिस बल द्वारा बंद कर दिए गए हैं। ट्रेड यूनियन और वामपंथी दलों द्वारा आंदोलन, सीमित संख्या में ही सही, जन आक्रोश को संगठित करने की कोशिश कर रहे हैं। बिहार इसमें अग्रणी है, 1975-77 आंदोलन में भी बिहार अग्रणी था।

दूसरी तरफ मेहनतकश और प्रताड़ित जनता की आवाज को कोई भी सुनने को तैयार नहीं है, चाहे वह सरकार हो, या मीडिया या न्यायालय हो। पुलिस और राज्य प्रायोजित हिंसा भी बढ़ रही है। विरोध के स्वर को पाकिस्तान समर्थक या फिर देशद्रोही कह कर दबाया जा रहा है। कोरोना वायरस का जिम्मा तब्लीगी जमात पर थोप दिया गया। पुलिस द्वारा अकारण छात्र और महिलाओं तक को बेरहमी से मारा गया। विरोधियों के खिलाफ “राष्ट्रीय सुरक्षा कानून” तो ऐसे लगाया जा रहा है, जैसे चोर-सिपाही का खेल चल हो और पकड़े जाने पर “जेल” में डाल दिया जाता है। पर यहाँ का जेल वास्तविक है, जहाँ हर मानवीय सुविधाएँ और संवेदनाएं समाप्त हो जाती हैं और दो साल तक बिना किसी सुनवाई के अन्दर रहना पड़ सकता है। कोर्ट भी जमानत देने के नाम पर आनाकानी कर रहे हैं, जबकि आरएसएस के सदस्यों पर, खुले आम गुंडागर्दी करने और भड़काऊ भाषण देने के बावजूद, कोई कार्रवाई नहीं की जाती है, और यदि हुआ भी तो जमानत शीघ्र ही मिल जाता है, और एफ़आईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) तक को ख़ारिज कर दिया जाता है। ये हम किस देश में रह रहे हैं? कैसा प्रजातंत्र है यह?

26 नवम्बर, 2020 को भारत में मजदूरों और उनके यूनियनों, दलों द्वारा हड़ताल का आह्वान सफल रहा, जिसमें करीब 25 करोड़ मजदूरों और प्रताड़ित जनता ने हिस्सा लिया। यह विश्व की सबसे बड़ी हड़ताल थी। उसी के साथ-साथ किसानों का दिल्ली चलो आंदोलन शुरु हुआ, जो अब भी चल रहा है, तीन फार्म बिल के खिलाफ, जो सीमांत, गरीब, छोटे, और मझोले किसानों के हित खिलाफ है। इस आंदोलन में भी 25 लाख से अधिक किसान शामिल हैं, और सारे पुलिस दमन के बावजूद जारी है और सरकार डरी हुई है।

भारत क्रान्तिकारी परिस्थिति के नजदीक है, जो कभी भी इन स्वःस्फूर्त और योजनाबद्ध आंदोलनों के कन्धों पर आ सकता है।

यह तो स्पष्ट है कि चुनाव के द्वारा हम इस तानाशाही या संघवाद (फासीवाद) का खात्मा नहीं कर सकते हैं, जिसका इलाज सिर्फ और सिर्फ सर्वहारा क्रांति ही है। पर क्या हम इस क्रांति के आगमन का इंतजार करें (वैसे, तैयारी तो हर क्रांतिकारी दल करते ही हैं और हम भी कर रहे हैं)? या फिर, जो भी संभावनाएं बनती हों, हम उसका उपयोग करें और शामिल हों? साथ-साथ क्रांतिकारी संगठन की तैयारी करें? यह सब हमें सोचना होगा, खासकर प्रगतिशील, धर्म निरपेक्ष, फासीवाद विरोधी और क्रांतिकारी शक्तियों को।

चुनाव एक अवसर है, हमारे लिए एकता और संघर्ष को आगे बढ़ाने लिए, प्रतिरोध को तीव्र करने के लिए। बिहार चुनाव भी एक अवसर था, बिहारवासियों के लिए, उनके विचार जानने का और एक संवाद स्थापित करने का। बिहार के मजदूर वर्ग और छोटे, मझोले और गरीब किसानों के साथ काम करने का। क्या हम उस बिहार के तर्ज पर काम कर सकते थे, जो हमें 1975-77 के आंदोलन में दिखा था और हमने कांग्रेस और आपात काल (इमर्जेंसी) को ध्वस्त कर दिया था, हालाँकि कोई भी मूल भूत परिवर्तन करने में समर्थ नहीं हुए।

इस प्रदेश में आंदोलन और परिवर्तन करने का इतिहास रहा है और यहाँ के विद्यार्थी, युवक और युवतियां, मजदूर और किसान, मेहनतकश औरतें आधुनिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से शिक्षित हैं। पिछले कई विधान सभा के चुनाव में हमने संघवाद को हराया था। पर नितीश कुमार और उनकी पार्टी जनता दल (यू) के घात के कारण संघ सत्ता में आ गया था और अब एनडीए का सबसे बड़ा घटक बन कर आया है। यह भाजपा के धूर्तता के कारण संभव हुआ, जहाँ लोजपा स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा (योजना के तहत)। उसके उम्मीदवार जेडीयू के खिलाफ हर जगह थे, और 6% से ज्यादा वोट लेकर जेडीयू भारी नुकसान पहुँचाया। साम्यवादी दलों को कुल 16 सीट मिले, जो हालाँकि राजद और कांग्रेस की मदद से मिला, वामपंथ के लिए उत्साहजनक है।

पूंजीवाद में चुनावी सियासत सिर्फ गंदा ही नहीं है, जैसा कि एक कहावत बन गया है, और सच्चाई भी है, बल्कि बुर्जुआ राजनीति का एक आवश्यक अंग है, जहाँ हर 5 वर्ष के बाद जनता का “मुहर” लगाया जाता है, कि “प्रजातंत्र” और इसका रखवाला राज्य और संविधान काम कर रहा है, वे तटस्थ और निष्पक्ष हैं और यदि अन्याय हो रहा है, तो चुनाव के द्वारा सही दल को सत्ता में लाकर अन्याय को ख़त्म किया जा सकता है। पर ऐसा कुछ होता नहीं है। सिर्फ भारत का ही उदाहरण नहीं है, पिछले 70 वर्षों के भारत का, बल्कि विकसित देशों का भी है, जिसमें अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन भी शामिल हैं, जहाँ बेरोजगारी, स्वास्थ्य सेवा की कमी और घर विहीन लोग बहुतायत में दिखते हैं। बेरोजगारी और बेरोजगारों की फौज पूंजीवाद के गर्भ से पैदा होते हैं और मजदूर वर्ग के बाकी हर दुर्दशा भी उसी कोख से पैदा होते हैं।

रास्ता कोई भी हो, लक्ष्य सिर्फ समाजवाद ही हो सकता है सर्वहारा वर्ग के लिए, पर वही रास्ता सफल होगा जो क्रांतिकारी होगा।