यौन अपराधों (Sexual offences) के साथ जब तक ‘मजा’ और ‘सजा’ का संबंध बना रहेगा, ये अपराध थमने वाले नहीं। जिसने यौन अपराध किया वह अपराधी है लेकिन पूरा समाज ही इस अपराधी मानसिकता को बनाने का जिम्मेदार ठहरता है।
पुरुषों के लिए ‘मर्दानगी’ जिसमें उसकी कामुकता का एक बड़ा हिस्सा शामिल है, का प्रदर्शन जरूरी बात मानी जाती है, पुरुष होने की पहली शर्त कि वह ‘मर्द’ के गुणों से युक्त हो। स्त्री को अपनी कामुकता के बल पर ‘काबू’ में रख सके। पुरुष कामुकता का संबंध अनिवार्यतः सामंती मानसिकता वाले समाज में देह के जोर से है। इस आधार को तय करने वाली चीज आयु, स्वास्थ्य, लिंग की ताक़त से है। यह एक सामान्य अवस्थागत स्थिति है जो स्त्री-पुरुष दोनों ही के साथ घटित होती है। लेकिन पुरुष अबाध रूप से इस लैंगिक ताक़त को भोग सके इसके लिए आयु के बंधन जिसके साथ शारीरिक शक्ति का स्वाभाविक क्षय होता है, शिथिल कर दिया गया है। उसे सामान्य चलन में ‘साठा तब पाठा’, या ‘मर्दों की उम्र नहीं देखी जाती’, ‘....के बैल और मानख एक जैसे होते हैं’, आदि कहकर सामाजिक चेतना में स्थापित किया जाता है।
यानि स्त्री-पुरुष का संबंध अंततः देह का ही संबंध ठहराया जाता है, बाकि संबंध महत्वपूर्ण नहीं। इस बात को हमारे महान् शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस तरह कहा है-
‘‘गो हाथ को जुम्बिश नहीं आंखों में तो दम है,
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मिरे आगे। ’’
जाहिर है देह बल में जैविक तौर पर स्त्री कुछ अपवादों को छोड़कर कमतर ठहरती है। स्त्री-पुरुष संबंधों का आधार देहबल को बनाने के साथ साथ इसका विस्तार स्त्री और पुरुष की सामाजिक भूमिकाओं में किया जाता है- स्त्री के काम अलग, पुरुष के काम अलग। और फिर स्त्री चूंकि ‘घर’ के काम करती है, तो तय किया गया कि ‘घर’ आराम की जगह है, मेहनत और कठोर श्रम की जगह बाहर है तो स्त्री की तुलना में पुरुष का ज्यादा शारीरिक श्रम ठहरा और इस नियम से पुष्टिकर भोजन जिसका ‘घर’ के संसाधनों के हिसाब से जितना भी प्रबंध है उसमें पुरुष का भाग पहला और विशेष होना चाहिए, यह भी तय हुआ।
जबकि शारीरिक क्षय की स्थिति माहवारी और बच्चा पैदा करने के क्रम में स्त्री के शरीर की एक निरंतर चक्रीय प्रक्रिया है जो अवस्था के साथ-साथ कई बार हारमोनजनित परिवर्तनों के कारण और भी दुरुह होती जाती है। इससे हर स्त्री को, स्त्री होने के जैविक कारणों से गुजरना होता है। लेकिन वह ‘घर’ की मालकिन ‘अन्नपूर्णा’ ठहरी, उसे तो सबका लालन-पालन करना है, सबकी संतुष्टि में उसकी संतुष्टि है। तो देवी स्वभाववाली अन्नपूर्णाएँ अपने को शारीरिक रूप से खपाकर और भी दुर्बल बनती रहीं, यह स्वाभाविक हुआ।
शरीर बल को बढ़ाने वाले और उसकी आवश्यकता महसूस कराने वाले ‘बाहर के क्षेत्र’ से ‘घर की लक्ष्मियां’ दूर रखी गईं। वहाँ उनके ‘बिगड़ने’ का ख़तरा था। उसी परिवेश में घूमकर पुरुष, ‘पुरुष’ बनते हैं, ‘बिगड़ते’ नहीं, ‘पुरुषोचित’ गुणों को अर्जित करते हैं पर घर की ‘लक्ष्मियाँ’, ‘अन्नपूर्णाएँ’ और ‘कुमारी दुर्गाएँ’ ‘बिगड़’ सकती हैं। उन्हें सुकोमल, सुंदर, रमणीय और ‘कमनीय’ (इन शब्दों का इस्तेमाल करते हमारी प्रबुद्ध स्त्रियाँ भी नहीं ठिठकतीं, किसी स्त्री की फेसबुक प्रोफाइल तस्वीर पर सहज ही इन शब्दों का प्रबुद्ध स्त्रियों द्वारा प्रशंसामूलक प्रयोग दिख सकता है!) बने रहना है, काम्य बने रहना है। ताकि वे ‘आनंद’ का बायस बनी रहें, ‘भोग’ के लायक रहें।
स्त्री का शरीर पुरुषों के ‘आनंद’ या ‘मजे’ के लिए है, इस बात को इतनी तरह से और इतने रूपों में पुष्ट कर वैध बनाया गया है कि इससे उलट सोचना संभव नहीं। यही नियम है बाकि सब विचलन! सामाजिक संरचना, घर की संरचना, बाहर की संरचना, राजनीति-अर्थ और न्याय की संरचना, ज्ञान के तमाम अनुशासनों की संरचना, अभिव्यक्ति और संप्रेषण के तमाम रूपों की संरचना इसी प्रकार की गई है।
राजनीति, अर्थ और न्याय की संरचनाओं में परिवर्तन के लिए नियम और प्रावधान बना दिए जाने के बावजूद सांस्कृतिक रूपों में उसका असर दिखाई नहीं देता।
हम मानते हैं कि स्त्री को उसकी देह के आधार पर टारगेट नहीं किया जा सकता, क़ानून और व्यवस्था इसके पक्ष में है लेकिन सामाजिक व्यवहार इसको खारिज करता है, नहीं मानता। सामाजिक व्यवहार में स्त्री की देह ही ‘मजा’ और ‘सजा’ के लिए टारगेट की जाती है।
सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक बड़ा क्षेत्र साहित्य और मनोरंजन है। सूचना उद्योग को एक घड़ी हम पीछे रखें तो जिस तरह का स्वीकृत मॉडल इन दोनों जगहों पर दिखाई देता है—वह बलात्कार का ही स्वीकृत मॉडल है! जो बलात्कारी के साथ-साथ लक्षणहीन बलात्कारी तैयार करता है। जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि स्त्रियों के प्रति पुरुषों का आकर्षण और उनकी देह को ‘भोगने’ की इच्छा ‘स्वाभाविक’ है, स्त्री की इच्छा-अनिच्छा का सवाल ही नहीं। हम बड़ी सहजता से इस प्रवृत्ति को स्वाभाविक मानकर इसमें निहित बर्बरता के रूपों की निंदा करने लगते हैं, अबोध बच्ची या वृद्धा पर हुई वारदातों की निंदा करने लगते हैं। कहीं-न-कहीं सहमत होते हैं कि युवा स्त्री पुरुष के ‘भोग’ के लिए है! स्त्रियों की नकार भी उनका स्वीकार ही है। और जो ‘वीर’ हैं वे ही ‘वसुंधरा’ के ऐश्वर्य को ‘भोग’ सकते हैं। हमने भाषा में बलात्कार और यौनिक हिंसा का पूरा शास्त्र रच डाला है।
स्त्री की स्टीरियोटाइप छवि (Stereotype image of woman) बनाना, उसे देह के रूप में देखना और अपनी या पराई वस्तु के रूप में वैध बनाना ये सब अंततः स्त्री के प्रति किसी न किसी रूप में हिंसा को जन्म देते हैं। यहाँ तक कि जब स्त्री पर हो रहे अत्याचारों का बयान भी करते हैं तो अवचेतन में पहले से मौजूद, सामाजिक संस्थानों द्वारा वैध बनाए गए मूल्यों और आदतों के जरिए उसमें आनंद ले रहे होते हैं। भाषा का तंत्र इसमें सहायता करता है।
साहित्य की पुस्तकों में स्त्री और पुरुष के उत्तेजक यौन शब्द-चित्र, सिनेमा के पर्दे पर स्त्री पर होनेवाले अत्याचारों की कहानी कहने के क्रम में बार-बार उसकी देह को केन्द्र कर यौनिक क्रियाओं का प्रदर्शन आदि, स्त्री के पक्ष में सहानुभूति और सम्मान का घोषित लक्ष्य रखने के बावजूद, ऐसा करने में असफल होते हैं। इसलिए इन विधाओं के ‘मैसेज’ स्त्री-पक्ष में होने की घोषणा के बावजूद स्त्री के पक्ष में नहीं होते।
16 एमएम और उसके पहले की हिंदी सिनेमा के आम ट्रेंड को याद कीजिए जहाँ नायिका पर यौनिक हिंसा और बलात्कार के दृश्य ‘हीरो’ की ‘मर्दानगी’ के प्रदर्शन लिए जरूरी हुआ करता था और ‘विलेन’ के चंगुल से छूटकर कोमल-भयभीत ‘हीरोइन’ अपनी ‘देह’ को बचाती हुई सीधे ‘हीरो’ को ‘देह’ स्वेच्छया प्रदान कर देती थी। खलनायक से नायक की तरफ शिफ़्टिंग, स्त्री देह को भोगने की ‘बर्बर मर्दानगी’ के बजाय ‘सॉफ्ट मर्दानगी’ की शिफ्टिंग भर है और कुछ नहीं, जहाँ स्त्री जो कहने को हीरोइन है अपने रोम-रोम से पुरुष की सौम्य या सॉफ़्ट मर्दानगी में आश्रय ढूँढ, सुकून पाती दिखाई जाती है।
स्त्री की देह के साथ जितने ‘मूल्य’ जोड़े गए हैं उनमें स्त्री-अस्तित्व और व्यक्तित्व के लिए सबसे घातक मूल्य है ‘इज़्जत’। यह इज़्जत भी स्त्री की अपनी नहीं, पुरुष की इज़्जत है, जो स्त्री की ‘देह’ से जुड़ी है। समाज में प्रचलित कहावतों और मुहावरों पर ग़ौर करें तो इस मर्दाना इज़्जत की जटिल संरचना को समझा जा सकता है। इसमें ‘मालिक’ और ‘दास’ का भाव है, ‘वस्तु’ पर स्वामित्व का बोध है। ‘‘हाथी घूमे गाँव-गाँव, जाको हाथी ताको नाँव’’, ‘‘कमज़ोर की लुगाई, गाँव भर की भौजाई’’ आदि कितनी कहावतें हैं जो स्त्री-पुरुष की यौनिकता पर आधारित संबंधों की व्यावहारिक पुष्टि करती हैं। ऐसे में पढ़े-लिखे, सामान्य पढ़े-लिखे और अशिक्षित पुरुषों में स्त्रियों को लेकर जो मानसिकता और बोध विकसित होता है वह किस प्रकार का हो सकता है, समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
There is no provision of heaven for women in the scriptures.
देह-आधारित संबंध पर ‘नियंत्रण’ भी देह की ताक़त का ही होगा। स्त्री अगर इस ‘नियंत्रण’ और ‘स्वामित्व’ को किसी भी रूप में मानने से इंकार करती है तो उसे ‘सजा’ मिलती है। धर्मशास्त्रों में स्त्री के लिए किसी स्वर्ग का प्रावधान नहीं है, पति के चरणों में ही स्त्री का स्वर्ग बताया गया है। फिर वह पति कितना ही बदचलन, बर्बर या असभ्य क्यों न हो! हमारा शास्त्र, हमारा साहित्य और हमारा मीडिया लगातार स्त्री की इस छवि को पुष्ट करते हैं।
‘नियंत्रण’ और ‘स्वामित्व’ न मानने वाली स्त्री के लिए ‘सजा’ है यह ‘सजा’ पुनः उसकी ‘देह’ को आधार बनाकर ही तय की जाती है। लोकप्रिय वेब सीरिज ‘‘मिर्जापुर’’ में नायक की पत्नी की भूमिका याद कीजिए, वह सिर्फ एक ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ की तरह प्रदर्शित है। घर के नौकर के साथ शारीरिक संबंध बनाने के कारण उसका अपंग ससुर उसे ‘सजा’ के लायक समझता है और बदनामी का भय दिखाकर खानदान की इज़्जत के नाम पर उसके साथ बलात्कार करता है। वह अपाहिज और अशक्त है फिर भी एक युवा और ऊर्जा से भरी स्त्री पर भारी पड़ता है चूँकि वह किसी प्रकार का शारीरिक प्रतिरोध नहीं करती क्योंकि उसके पति और घरवालों को नौकर के साथ उसके शारीरिक संबंध की बात पता चलने पर वह ‘पतिव्रता’ के आसन से च्युत हो सकती थी और उसका जीवन नर्क किया जा सकता था, अतः वृद्ध, अशक्त, अपाहिज ‘पुरुष’ भी उसकी ‘देह’ को अपमानित करके उसे सजा दे सकने का सामर्थ्य रखता है!
धर्म स्त्री को सामाजिक रूप से ‘नियंत्रित’ करने का बड़ा आधार है। देह आनंद देती है तो देह ही सब भोगों का आधार है। स्त्री की देह पर नियंत्रण रखना है तो उसे अपौष्टिक भोजन दो, भूखा रखो, धर्म के नाम पर व्रत-उपवास कराओ, कभी पति की लंबी उम्र के नाम पर, कभी संतान की खुशी के नाम पर-किसी भी बहाने उसे सामान्य जीवन न जीने दो।
और तो और धर्म का आडंबर तो स्त्रियों के लिए दोहरा छल है! आत्मिक मुक्ति और उत्थान अगर इतना ही वांछनीय है तो यहाँ भी स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार क्यों नहीं दिए गए? क्यों उसके साथ एक बार फिर छल किया गया? ‘परमात्मा’ को प्राप्त करना अगर सर्वोच्च आनंद और मुक्ति प्राप्त करना है तो स्त्री को सीधे उसी रूप में जिस रूप में पुरुष साधना कर सकता है, साधना के अधिकार से क्यों वंचित किया!
सभी धर्मों में स्त्री के लिए एक उपधर्म बनाया गया, उसका ‘परमात्मा’ उसके पति या स्वामी को ठहराया गया! यह विचित्र स्थिति थी, सबके ऊपर ईश्वर लेकिन स्त्री का ईश्वर, उसका मालिक पुरुष! इस धारणा को आधुनिक समय में भी महिमामंडित किया जाता है। ‘पातिव्रत्य धर्म’ को धर्म की एक उपधारा के रूप में स्त्रियों के लिए स्थिर कर दिया गया। ताकि वे अपनी यौनिकता को अंकुश में रखें, स्वयं ही अपने को तरह-तरह से बंधनों में जकड़ कर अपनी कार्य-शक्ति, अपनी यौनिकता, अपनी इच्छाओं के पर कतर दें। और अपने अलावा अन्य स्त्रियों पर भी इस अंकुश का विस्तार पितृसत्ता के हित में करती रहें। ऐसा न करने वाली स्त्रियाँ कुलटा, कुलच्छिनी, चरित्रहीन आदि विशेषणों से नवाजी जाएँ, यह सुनिश्चित कर लिया गया।
आज के बॉलीवुड का लोकप्रिय गीत है ‘‘भला है बुरा है जैसा भी है, मेरा पति मेरा देवता है’’!
हज़ारों साल पहले कबीर ने गाया ‘‘पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरुप’’! अद्भुत साम्य है, स्त्री के प्रति पुरुषों की इस मनोदशा में आधुनिक काल की समझदारी और वैज्ञानिकता की ज़रा भी हवा न लगी!
The complexity of Male-Female Relations
स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता का दावा करने वाले सभ्य से सभ्य संबंधों में पुंसवादी वर्चस्व की स्थितियाँ हावी रहती हैं। पुरुष प्यार करता है तो इस दावे के साथ कि ऐसा प्यार तुम्हें और कोई नहीं कर सकता! रसोई या घर का काम करता है तो इस भाव के साथ कि ‘तुम्हारा काम’ कर रहा हूँ। जबकि इन्हीं स्थितियों के संदर्भ में देखें तो बाहर जाकर काम करने वाली स्त्री नहीं कह पाती पुरुष से कि वह ‘तुम्हारा काम’ कर रही है! क्योंकि यह पुरुष ही कहता फिर रहा है कि स्त्रियाँ पढ़-लिखकर, घर के बाहर जाकर पुरुषों का काम कर रही हैं!! लेकिन यह कथन स्त्रियों के लिए भर्त्सनामूलक है, उन्हें पुरुषों के अवसर छीनने वाला साबित करता है!!!
शिक्षित स्त्रियों की बेरोजगारी जैसी समस्या तो सुनाई ही नहीं पड़ती। ‘बेरोजगार’ तो केवल पुरुष होता है, उसे ‘बाहर’ काम करना है, काम नहीं है तो वह ‘बेरोजगार’ है, स्त्रियों को ‘घर’ का काम करना है, शिक्षित हो तो भी! तो ‘बाहर’ के ‘रोजगार’ के अवसर ‘स्वाभाविक’ रूप से उसके नहीं हैं, तो वह ‘बेरोजगार’ भी नहीं है! बल्कि उसने तो ‘बाहर’ निकलकर ख़तरा पैदा कर दिया है, पुरुषों को लुभाकर रोजगार प्राप्त कर रही है और अवसर हथिया रही है! पुरुष कामुकता को उत्तेजित करने के लिए भी स्त्रियाँ ही जिम्मेदार हैं, पहले भी थीं! पुरुषों को अपनी देह के आकर्षण में बाँधकर नौकरी ले लेती हैं! अब जब ‘नारी की झांई’ मात्र से भुजंग (साँप) भी अंधा हो जाता है तो ये तो बेचारे ‘पुरुष’ हैं। अधिसंख्यक सामाजिक मानसिकता में सदियों से कुछ नहीं बदला।
ऐसे में अगर हज़ारों साल की सामाजिक फैक्ट्री में घर-घर लक्षणयुक्त और लक्षणहीन बलात्कारी पैदा हों, तो क्या आश्चर्य!
-प्रोफेसर सुधा सिंह,
लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय, हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं।