प्रशांत जी और दूसरे लोगों की बात छोड़िए, दलित चिंतक और नेता कर्णन साहेब के मामले में खामोश थे तो अब प्रशांत जी के साथ जब पूरा देश खड़ा है, तब कर्णन के साथ हुई ज्यादती पर मगरमच्छ आंसू क्यों भी रहे हैं?
ये तमाम लोग कभी दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और किसानों मजदूरों, जिनमें बहुजन ही ज्यादातर हैं, उनकी किसी लड़ाई में शामिल क्यों नहीं होते?
उल्टे बहुजनों की लड़ाई में शामिल सामाजिक कार्यकर्ताओं को कम्युनिस्ट कहकर सत्ता के साथ चिपक जाते हैं। ऐसा क्यों होता है?
भीमा कोरेगांव में मामला दलितों का ही था। इस मामले में दलितों आदिवासियों की लड़ाई में शामिल तमाम लोगों को माओवादी कहकर जेल में ठूंस दिया गया।
इनमें जिन बाबा साहेब और जयभीम के नाम से उनका कारोबार चलता है, उसके सबसे बड़े विशेषज्ञ, प्रोफेसरों के प्रोफेसर और बाबा साहेब की एकमात्र पोती के पति आनन्द तेलतुंबड़े भी शामिल हैं।
हमने बार-बार पूछा है, दलित चिंतक, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता और नेता, संगठन, पार्टियां और दलित बहुजन समाज इस मामले में खामोश क्यों हैं?
उनका एजेंडा आखिर क्या है?
एकदम वाजिब सवाल है। उम्मीद है कि प्रशांत भूषण के समर्थन पर सवाल उठाने वाले इस सवाल का जवाब जरूर देंगे।
यह सम्वाद इसलिए जरूरी है कि इन मुद्दों पर खुलकर बात हो और तमाम चेहरे बेनकाब हों।
बाबा साहेब अंबेडकर जाति को ही सारी समस्याओं की जड़ मानते हैं।
वे जाति को खत्म करने का आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने आरक्षण नहीं मांगा था। बहुजनों के प्रतिनिधित्व के लिये स्वतन्त्र मताधिकार की मांग की थी।
लंदन के गोलमेज सम्मेलनों में मुख्य मुद्दा यही था। इसके खिलाफ गाँधीजी आमरण अनशन पर
बाबा साहेब के लिए तो संविधान सभा के दरवाजे बंद कर दिए गए थे। बंगाल से वे चुने गए तो भारत विभाजन के जरिये उनका चुनाव क्षेत्र और चुनाव खारिज कर दिया गया।
अकेले आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने कहा कि बाबा साहेब आदिवासियों के नेता हैं। तब भी सभी दलितों ने नहीं कहा कि अम्बेडकर उनके नेता हैं।
संविधान सभा ने पूना समझौता के आधार पर आरक्षण लागू कर दिया। जिस आरक्षण से ज्यादातर दलित जातियां और ज्यादातर आदिवासी हमेशा के लिए वंचित हो गए।
जिस बंगाल के दलितों ने उन्हें संविधान सभा में भेजा वे शरणार्थी बनकर हमेशा के लिए बंगाल से खदेड़ दिए गए। उनके आरक्षण और दूसरी दलित और आदिवादियों को आरक्षण का विरोध आरक्षित जातियों से बने नेता और संगठन करते हैं, सवर्ण नहीं।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादब की सरकार ने शरणार्थियों को आरक्षण देने की सिफारिश की थी।
मुख्यमंत्री बनते ही मायावती ने सबसे पहले उस सिफारिश को खारिज कर दिया।
क्या यह उनका ब्राह्मणवाद नही है?
आरक्षण का लाभ भी इनी गिनी जातियों को ही मिल है जबकि बहुजन साढ़े छह हजार जातियों में बांट दिए गए हैं। दलितों, पिछड़ों ( मण्डल कमीशन लागू होने के बाद) और आदिवासियों की सौ जातियों को भी आरक्षण का फायदा नही मिला आरक्षण से फायदा उठाने वाली मजबूत जातियों के कारण।
क्या इसके लिए सवर्ण जिम्मेदार हैं?
जिस जाति के कारण इतनी समस्या है, उसी जाति को खत्म करने की बात करते रहे अम्बेडकर, लेकिन बाबासाहेब के इस मिशन से गद्दारी करने वाले कौन हैं?
श्रम कानून सारे के सारे बाबासाहेब ने बनाये, उन्हें सिरे से खत्म करने के खिलाफ दलित क्यों खामोश हैं?
भारतीय अर्थव्यवस्था, मुद्रा व वित्तीय प्रबन्धन और रिजर्व बैंक में बाबासाहेब के योगदान मिटाकर निजीकरण, उदारीकरण और मुक्तबाजार की अर्थ व्यवस्था का विरोध क्यों नहिं करते दलित?
आजाद भारत में दलितों के लिए बाबासाहेब के स्वतन्त्र मताधिकार के मुद्दे को क्यों भुला दिया दलितों ने?
इन तमाम सवालों पर भी बहस हो।
पलाश विश्वास