सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 के अपने आदेश में राज्य सरकारों को खारिज किए गए दावों के मालिकों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश दिया था। इस बेदखली के आदेश पर गुजरात और केन्द्र सरकारों ने रोक लगाने का अनुरोध किया था और 28 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के अमल पर रोक लगा दी। अदालत ने सम्बन्धित राज्यों से जानना चाहा है कि वे 24 जुलाई के पहले हलफनामा दाखिल कर बताएं कि उन्होंने जंगलों में निवास कर रहे लोगों के दावों का निपटारा किस आधार पर किया।
सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश पर आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वननिवासियों की बड़ी आबादी को वनभूमि से बेदखली का गंभीर संकट फिलहाल टल गया है।
अदालत ने खुद अपने आदेश के क्रियान्वयन पर फिलवक्त रोक लगा दी है। लेकिन क्या इस कानून में कुछ ऐसा भी है जिसके वैधानिक आधार पर आदिवासियों के भले के साथ-साथ वनों को भी संवारा, सुधारा जा सके?
वर्ष 2006 में वनों में निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासियों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करने वाला अधिनियम पारित हुआ था। तब इसे मील का पत्थर माना गया था क्योंकि यह अधिनियम जंगलों में पीढ़ियों से निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पारंम्परिक वननिवासी समाज के भूमि-अधिकारों और आजीविका को मान्यता प्रदान करता था। जंगल में उनके निवास को मान्यता देता था। इसके अलावा यह अधिनियम (Forest Rights Act-2006 in Hindi) उनकी जिम्मेदारियों को भी रेखांकित करता है जिसमें कहा गया है कि उक्त
अध्याय दो (1) की उप-कंडिकाओं में पीढ़ियों से निवास करने वाले अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वननिवासी समाज के वन-भूमि पर मालिकाना हक तथा बसने और आजीविका अर्जन सम्बन्धी अधिकारों को कतिपय प्रतिबन्धों के साथ लिपिबद्ध किया गया है। इसी अध्याय के भाग (2) की उप-कंडिकाओं में भारत सरकार द्धारा उपलब्ध कराई जाने वाली मूलभूत जन- सुविधाओं का उल्लेख है। इन जन-सुविधाओं में स्कूल, अस्पताल, आंगनवाड़ी, उचित मूल्य की अनाज की दुकान, बिजली और दूर-संचार की लाइन, तालाब और अन्य छोटी जल-संरचनाएं, जल संरक्षण या वर्षा जल संरक्षण कार्य, जल प्रदाय, छोटी नहर, सड़क, अपरम्परागत ऊर्जा, प्रशिक्षण केन्द्र और सामुदायिक भवन सम्मिलित हैं। अध्याय तीन में मान्यता, अधिकारों की बहाली इत्यादि का और अध्याय चार में अधिकारों को प्रदान की जाने वाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया का उल्लेख है।
यह कानून 13 दिसम्बर 2005 के पहले तक आदिवासियों को ग्रामसभा या गांव के दो वरिष्ठ नागरिकों की अनुशंसा पर और अन्य परंपरागत वन निवासियों को कम-से-कम तीन पीढ़ियों यानी 75 वर्ष से वनभूमि पर बसे रहने के कोई सबूत के आधार पर भू-अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। इन अधिकारों की वैधता की जांच के लिए 'त्रि-स्तरीय' समितियों का गठन किया गया है। जिले के कलेक्टर की अध्यक्षता वाली जिला-स्तरीय समिति को असंतुष्ट होने पर अपील की सुनवाई का अधिकार है, लेकिन वह दावों को खारिज नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 के अपने आदेश में राज्य सरकारों को खारिज किए गए दावों के मालिकों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश दिया था। इस बेदखली के आदेश पर गुजरात और केन्द्र सरकारों ने रोक लगाने का अनुरोध किया था और 28 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश के अमल पर रोक लगा दी। अदालत ने सम्बन्धित राज्यों से जानना चाहा है कि वे 24 जुलाई के पहले हलफनामा दाखिल कर बताएं कि उन्होंने जंगलों में निवास कर रहे लोगों के दावों का निपटारा किस आधार पर किया।
'वनाधिकार कानून-2006' का दूसरा पेराग्राफ अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वननिवासियों की जिम्मेदारियों को रेखांकित करता है। इसमें दर्ज है कि वे जंगल की जमीन पर वन सम्पदा (Forest wealth on forest land), वनों की जैव-विविधता (biodiversity of forests) और वनों के पारिस्थितिकी सन्तुलन (Ecological balance of forests) को बनाए रखने में अपना योगदान देंगे। यानि उन्हें जंगल की जमीन पर वन लगाने, जड़ी-बूटी पैदा करने इत्यादि का अधिकार और जिम्मेदारियाँ प्रदान की गई हैं। यह मौजूदा नीति के प्रावधानों के अनुसार संभव भी है। जाहिर है, ऐसे में खेती के समानान्तर वन सम्पदा आधारित अर्थव्यवस्था (Forest wealth based economy) विकसित हो सकती है। वन भूमि पर निवास करने वाले लोगों की प्रत्यक्ष तथा परोक्ष आजीविका को आधार मिल सकता है।
जंगल बचेंगे तो देश का पर्यावरण सुधरेगा, आक्सीजन की मात्रा में सुधार होगा। जैव-विविधता बहाल होने लगेगी। हमें उस दिशा में पहल करना चाहिए।
'वनाधिकार अधिनियम-2006' (Forest Rights Act-2006) में तालाब और अन्य छोटी जल संरचनाएं बनाने, जल संरक्षण, वर्षा जल संरक्षण कार्य करने और जल-प्रदाय व छोटी नहरों का निर्माण करने के अधिकार सम्मिलित हैं।
यदि सारे वनवासियों को जंगल में बसाया जाता है और उन्हें मूलभूत सुविधाओं के साथ-साथ आवश्यकतानुसार पानी उपलब्ध कराया जाता है तो उनकी आजीविका को तो सम्बल मिलेगा ही, पानी का सबसे अधिक लाभ जंगलों और जानवरों को होगा। जंगल में सतही जल, भूजल और नमी की उपलब्धता बढ़ेगी। वृक्षों तथा वनस्पतियों को पानी मिलेगा। जंगली जानवरों को पीने के लिए पानी मिलेगा। जंगलों को सरकार की अन्य योजनाओं का लाभ मिलेगा।
आदिवासियों, वननिवासियों की आजीविका को जंगलों के लाभों से जोड़ा जाएगा तो वे जंगलों की सलामती के लिए अधिक-से-अधिक प्रयास करेंगे। चूँकि अर्जित लाभ वनवासियों के ही बीच ही वितरित होना है इसलिए यह प्रयास पीपीपी मॉडल की तुलना में अधिक कारगर साबित होगा।
गौरतलब है कि पीपीपी मॉडल में मजदूर को केवल मजदूरी मिलती है, लाभ मालिक ले जाता है। मजदूरी मिलने के कारण उसकी गरीबी दूर नहीं होती, पर मालिकाना हक मिलने का अर्थ होता है, अधिक आय। अधिक आय का अर्थ सम्पन्न्ता होता है। यह लाभ आदिवासी समाज को जंगलों से जोड़कर दिया जा सकता है। कुछ साल पहले तेंदू पत्ता के मामले में मध्यप्रदेश सरकार ने यही किया था।
कृष्ण गोपाल व्यास
(लेखक राजीव गांधी वाटरशेड मिशन के पूर्व सलाहकार हैं।)