निजीकरण, उदारीकरण और ग्लोबीकरण के मुक्त बाजार में समूचे यूरोप में कोरोना का कहर (Corona havoc all over Europe) रोजाना मृत्यु जुलूस के रूप में सामने आ रहा है
1991 से आर्थिक सुधारों की सत्तावर्गीय सर्वदलीय संसदीय मुहिम के बावजूद, श्रम कानून, नागरिकता कानून समेत तमाम कानून बदल दिए जाने के बावजूद, राजकाज में कारपोरेट, राजनीति और मीडिया में कारपोरेट और जमविरोधी तत्वों के वर्चस्व के बावजूद भारत में गांव और किसान अभी जिंदा हैं। भारत में भाषाएं, बोलियां और लोकसँस्कृति अभी जीवित हैं। दमन और राष्ट्र के हिंदुत्ववादी सैन्यकरण के साथ मनुस्मृति शासन लागू करने के नरमेधी अभियान के बावजिद संविधान और लोकतंत्र जीवित है। प्रतिरोध और किसान, मजदूर, छात्र, दलित, आदिवासी और स्त्री आंदोलन जारी है।
इसलिए भारत अभी अमेरिका नहीं बन सका।
इसिलिये भारत कभी अमेरिका बन नहीं सकता।
यह भारतीय लोकतंत्र की विविधता और बहुलता का लोकतंत्र है और भारतीय सामाजिक और धार्मिक संस्कृति का उदारतावाद है कि उग्रतम मतभेद के बावजूद संकट के समय पूरा देश राष्ट्रीय नेतृत्व का हमेशा समर्थन करता रहा है।
इसलिए सरकारी और सार्वजनिक संस्थानों को बेचने की हरचंद कोशिश के बावजूद भारत पूरी तरह मुक्त बाजार नहीं बना है और न ही भारत का पूरी तरह शहरीकरण और बाज़ारीकरण भी नहीं हो सका।
जड़ों से कटने के बावजूद भारतीय नागरिक कहीं न कहीं गांव और किसान से जुड़े हैं।
इसीलिए निजी स्कूल और निजी अस्पताल के बावजूद सरकारी
विदेशी पूंजी और प्राइवेट सेक्टर के वर्चस्व के बावजूद सरकार और संसद का कानून व्यवस्था और सेना पर नियन्त्रण है।
भारत अभी अमेरिका बना नहीं है और गांव और किसान की ताकत से भारत हर संकट का अब भी मुकाबला कर सकता है।
तमाम मूर्खताओं और लापरवाही, भ्रष्टाचार और दलाली के बावजूद भारत अमेरिका नहीं बना है और यकीनन भारत में अमेरिका की तरह कोरोना काल में भी व्यापक जनहानि नहीं होगी
श्रेय लेने की होड़ में लॉक डाउन के आकस्मिक फैसले से अर्थ व्यवस्था कृषि और औद्योगिक संकट की वजह से बहुत बुरी हालत में है। 38 करोड़ लोग एकमुशत बेरोजगार हो गए।
करोड़ों लोग शहरों से गांव लौट आये क्योंकि उन्हें भरोसा है कि गांव में रोज़ी भले न हो, रोटी यहां बचे हुए समाज में जरूर मिल सकती है जबकि शहर में मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता।
यूरोप के संकट की शुरुआत औद्योगिक क्रांति (industrial Revolution) में गांव और किसान कर विध्वंस से दो सौ साल पहले हो गयी थी। पूंजीवाद के संकट से उबारने के लिये फासीवादी साम्राज्यवादी कोशिशों का नतीजा भी यूरोप और अमेरिका के विनाश में साफ-साफ दिख रहा है।
कोरोना संकट का सबक यही है कि गांव और किसान बचे रहेंगे तो भारत न यूरोप और न अमेरिका बनेगा और विकास के इस महाविनाश से बच रहेगा। बची रहेगी प्रकृति और यह पृथ्वी भी। बची रहेगी धर्मोन्माद को पराजित करने वाली मनुष्यता भी।
इस महाविनाश से बचने के लिए भारत को यूरोप और अमेरिका बनाने से बचाने की जरूरत है।
हमें यूरोप और अमेरिका के ज्ञान विज्ञान, साहित्य, इतिहास, दर्शन, पूंजीवाद के प्रतिरोध की विचारधारा और बर्बर सामन्तवाद के खिलाफ मानवतावादी आधुनिकता और समानता और न्याय की क्रांतियों की विरासत जरूर चाहिए, उनकी तकनीक भी चाहिए लेकिन उनका मुक्तबाजार, निजीकरण, उदारीकरण और ग्लोबीकरण नहीं चाहिए।
पलाश विश्वास